ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 40/ मन्त्र 2
कुह॑ स्विद्दो॒षा कुह॒ वस्तो॑र॒श्विना॒ कुहा॑भिपि॒त्वं क॑रत॒: कुहो॑षतुः । को वां॑ शयु॒त्रा वि॒धवे॑व दे॒वरं॒ मर्यं॒ न योषा॑ कृणुते स॒धस्थ॒ आ ॥
स्वर सहित पद पाठकुह॑ । स्वि॒त् । दो॒षा । कुह॑ । वस्तोः॑ । अ॒श्विना॑ । कुह॑ । अ॒भि॒ऽपि॒त्वम् । क॒र॒तः॒ । कुह॑ । ऊ॒ष॒तुः॒ । कः । वा॒म् । श॒यु॒ऽत्रा । वि॒धवा॑ऽइव । दे॒वर॑म् । मर्य॑म् । न । योषा॑ । कृ॒णु॒ते॒ । स॒धऽस्थे॑ । आ ॥
स्वर रहित मन्त्र
कुह स्विद्दोषा कुह वस्तोरश्विना कुहाभिपित्वं करत: कुहोषतुः । को वां शयुत्रा विधवेव देवरं मर्यं न योषा कृणुते सधस्थ आ ॥
स्वर रहित पद पाठकुह । स्वित् । दोषा । कुह । वस्तोः । अश्विना । कुह । अभिऽपित्वम् । करतः । कुह । ऊषतुः । कः । वाम् । शयुऽत्रा । विधवाऽइव । देवरम् । मर्यम् । न । योषा । कृणुते । सधऽस्थे । आ ॥ १०.४०.२
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 40; मन्त्र » 2
अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 18; मन्त्र » 2
अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 18; मन्त्र » 2
पदार्थ -
(अश्विना) हे विवाहित स्त्री-पुरुषों ! तुम दोनों (कुह दोषा) किस स्थान में रात्रि को (कुह वस्तोः) और कहाँ दिन में (कुह-अभिपित्वं करतः) कहाँ भोजनादि की अभिप्राप्ति करते हो (कुह-ऊषतुः) कहाँ वास करते हो (वां शयुत्रा कः) तुम दोनों का शयनाश्रम कौन सा है (विधवा-इव देवरम्) जैसे विधवा और देवर का नियोग हो जाने पर व्यवहार होता है (मर्यं न योषा सधस्थं कृणुते) जैसे वर के प्रति वधू सहस्थान बनाती है, ऐसे विवाहित स्त्री-पुरुषों ! तुम्हारा व्यवहार हो ॥२॥
भावार्थ - गृहस्थ स्त्री-पुरुषों को सदा प्रेम के साथ रहना चाहिए। जैसे विवाहकाल में वर-वधू स्नेह करते थे, वह स्नेह बना रहे। कदाचित् मृत्यु आदि कारणवश दोनों का वियोग हो जाये, तो सन्तान की इच्छा होने पर नियोग से सन्तानलाभ कर सकते हैं ॥२॥
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