ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 40/ मन्त्र 1
रथं॒ यान्तं॒ कुह॒ को ह॑ वां नरा॒ प्रति॑ द्यु॒मन्तं॑ सुवि॒ताय॑ भूषति । प्रा॒त॒र्यावा॑णं वि॒भ्वं॑ वि॒शेवि॑शे॒ वस्तो॑र्वस्तो॒र्वह॑मानं धि॒या शमि॑ ॥
स्वर सहित पद पाठरथ॑म् । यान्त॑म् । कुह॑ । कः । ह॒ । वा॒म् । न॒रा॒ । प्रति॑ । द्यु॒ऽमन्त॑म् । सु॒ऽवि॒ताय॑ । भू॒ष॒ति॒ । प्रा॒तः॒ऽयावा॑णम् । वि॒ऽभ्व॑म् । वि॒शेऽवि॑शे । वस्तोः॑ऽवस्तोः । वह॑मानम् । धि॒या । शमि॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
रथं यान्तं कुह को ह वां नरा प्रति द्युमन्तं सुविताय भूषति । प्रातर्यावाणं विभ्वं विशेविशे वस्तोर्वस्तोर्वहमानं धिया शमि ॥
स्वर रहित पद पाठरथम् । यान्तम् । कुह । कः । ह । वाम् । नरा । प्रति । द्युऽमन्तम् । सुऽविताय । भूषति । प्रातःऽयावाणम् । विऽभ्वम् । विशेऽविशे । वस्तोःऽवस्तोः । वहमानम् । धिया । शमि ॥ १०.४०.१
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 40; मन्त्र » 1
अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 18; मन्त्र » 1
अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 18; मन्त्र » 1
विषय - इस सूक्त में ‘अश्विनौ’ शब्द से वृद्ध स्त्री-पुरुष गृहीत हैं। उनका राज्यसभा से सम्पर्क करके राष्ट्र में सद्व्यवहार का प्रचार करना तथा नवगृहस्थों में यथार्थ गृहस्थ धर्म का शिक्षण करना मुख्य विषय है।
पदार्थ -
(नरा) हे गृहस्थों में नेता सुशिक्षित स्त्री-पुरुषो ! (वाम्) तुम दोनों (द्युमन्तं यान्तं रथम्) दीप्तिमान् और सुभूषित जाते हुए रथ को (कुह) किस देश में (प्रातर्यावाणं विभ्वं वहमानम्) गृहस्थ के प्रथम अवसर पर प्राप्त होनेवाले प्रापणशील विभूतिमान् रथ को (विशे-विशे वस्तोः-वस्तोः) मनुष्यमात्र के निमित्त प्रतिदिन (धिया शमि) बुद्धि से क्रियावाले (कः-ह) कौन-कोई ही प्रजाजन (सुविताय प्रति भूषति) सुखविशेष के लिए प्रशंसित करता है अर्थात् सब कोई प्रशंसा करता है ॥१॥
भावार्थ - सुशिक्षित स्त्री-पुरुषों को विशेष सुख के लिए अपने गृहस्थ रथ को, जो प्रथम अवस्था में प्राप्त होता है, उसे प्रजामात्र के लिए उत्तमरूप से चलाकर दूसरों के लिए आदर्श प्रस्तुत करना चाहिए ॥१॥
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