अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 5/ मन्त्र 7
सूक्त - भृगुराथर्वणः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - इन्द्रशौर्य सूक्त
वृ॑षा॒यमा॑णो अवृणीत॒ सोमं॒ त्रिक॑द्रुकेषु अपिबत्सु॒तस्य॑। आ साय॑कं म॒घवा॑दत्त॒ वज्र॒मह॑न्नेनं प्रथम॒जामही॑नाम् ॥
स्वर सहित पद पाठवृ॒ष॒ऽयमा॑न: । अ॒वृ॒णी॒त॒ । सोम॑म् । त्रिऽक॑द्रुकेषु । अ॒पि॒ब॒त् । सु॒तस्य॑ । आ । साय॑कम् । म॒घऽवा॑ । अ॒द॒त्त॒ । वज्र॑म् । अह॑न् । ए॒न॒म् । प्र॒थ॒म॒ऽजाम् । अही॑नाम् ॥५.७॥
स्वर रहित मन्त्र
वृषायमाणो अवृणीत सोमं त्रिकद्रुकेषु अपिबत्सुतस्य। आ सायकं मघवादत्त वज्रमहन्नेनं प्रथमजामहीनाम् ॥
स्वर रहित पद पाठवृषऽयमान: । अवृणीत । सोमम् । त्रिऽकद्रुकेषु । अपिबत् । सुतस्य । आ । सायकम् । मघऽवा । अदत्त । वज्रम् । अहन् । एनम् । प्रथमऽजाम् । अहीनाम् ॥५.७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 5; मन्त्र » 7
विषय - राजा को उपदेश ।
भावार्थ -
जिस प्रकार सूर्य ( वृषायमाणः ) स्वयं मानो वर्षण करने वाले मेघ के समान ( सोमं अवृणीत ) सोम-जल को समुद्रों से उठा लेता है और ( सुतस्य ) वाष्परूप हुए उसको ( त्रिकद्रुकेषु ) ज्योति, गौ, किरण और आयु, जीवन, वायु इन तीनों रूपों में (अपिबत्) उसका पान कर लेता है उसी प्रकार राजा भी (वृषायमाणः ) प्रजाओं में मेघ के समान सुख संपदाओं का वर्षण करनेहारे मेघ पर्जन्य का व्रत धारण करके ( सोमं ) राष्ट्रीय ऐश्वर्य को ( अवृणीत ) स्वीकार करे और उसमें से ( सुतस्य ) प्राप्त हुए कर को ( त्रिकद्रुकेषु ) ज्योति = अपना तेज, सेना, पराक्रम, गौ=पशु-वृद्धि और आयु=प्रजा के स्वास्थ्य और जीवनोपयोगी कार्य तीनों में (अपिबत्) लगादे । और जिस प्रकार (मधवा) विद्युत् (वज्रं आदत्त) वज्र को अपने भीतर धारण करती और (अहीनां) जलों के (प्रथमजां) प्रथम उत्पन्न हुए वाष्परूप मेघ को (अहन्) आघात करता है और वर्षा कर देता है उसी प्रकार (मधवा) समस्त धनों का स्वामी राष्ट्रपति ( सायकं ) शत्रु का अन्त कर देने वाले (वज्रं) वज्र=शत्रु के निवारक शस्त्र को (आदत्त) ग्रहण करता है और (अहीनां) प्रजा के घातक लोगों के (प्रथमजां) सबसे प्रथम आगे प्रकट होने वाले, उनके मुख्य २ पुरुष का ( अहन्) विनाश करता है ।
टिप्पणी -
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - भृगुराथर्वण ऋषिः । इन्द्रो देवता। आद्यया आह्वानमपराभिश्च स्तुतिः । १ निचृदुपरिष्टाद् बृहती, २ विराडुपरिष्टाद् बृहती, ५–७ त्रिष्टुभः । ३ विराट् पथ्याबृहती । ४ जगती पुरो विराट् । सप्तर्चं सूक्तम्॥
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