अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 5/ मन्त्र 6
सूक्त - भृगुराथर्वणः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - इन्द्रशौर्य सूक्त
अह॒न्नहिं॒ पर्व॑ते शिश्रिया॒णं त्वष्टा॑स्मै॒ वज्रं॑ स्व॒र्यं॑ ततक्ष। वा॒श्रा इ॑व धे॒नवः॒ स्यन्द॑माना॒ अञ्जः॑ समु॒द्रमव॑ जग्मु॒रापः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअह॑न् । अहि॑म् । पर्व॑ते । शि॒श्रि॒या॒णम् । त्वष्टा॑ । अ॒स्मै॒ । वज्र॑म् । स्व॒र्य᳡म् । त॒त॒क्ष॒ । वा॒श्रा:ऽइ॑व । धे॒नव॑: । स्यन्द॑माना: । अञ्ज॑: । स॒मु॒द्रम् । अव॑ । ज॒ग्मु॒: । आप॑: ॥५.६॥
स्वर रहित मन्त्र
अहन्नहिं पर्वते शिश्रियाणं त्वष्टास्मै वज्रं स्वर्यं ततक्ष। वाश्रा इव धेनवः स्यन्दमाना अञ्जः समुद्रमव जग्मुरापः ॥
स्वर रहित पद पाठअहन् । अहिम् । पर्वते । शिश्रियाणम् । त्वष्टा । अस्मै । वज्रम् । स्वर्यम् । ततक्ष । वाश्रा:ऽइव । धेनव: । स्यन्दमाना: । अञ्ज: । समुद्रम् । अव । जग्मु: । आप: ॥५.६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 5; मन्त्र » 6
विषय - राजा को उपदेश ।
भावार्थ -
( इन्द्रस्य ) ऐश्वर्यशाली राजा के (वीर्याणि) उन बलयुक्त कार्यों का मैं (प्रावोचं नु) उपदेश करता हूं, (यानि) जिन (प्रथमानि) श्रेष्ठ, कीर्तिजनक कामों को (वज्जी) वज्र, राजदण्ड को धारण करने वाला राजा ( चकार ) अवश्य करे। जिस प्रकार विद्युत् मेघ को ताड़ित करके जलों को बहाती है और पर्वतों के चट्टान तोड़ फोड़ देती है उसी प्रकार राजा ( अहिम् ) प्रजा के घातक को ( अहन् ) नाश करे और ( अपः ) नाना जलधारा या नलों को ( अनु ततर्द ) काट कर राष्ट्र में बहावे और ( पर्वतानां ) पर्वतों के ( वक्षणा ) वक्षस्थलों को (अभिनत्) काट २ कर साफ करे जिससे प्रजाएं सुख से से बसें और वृद्धि करें। प्रजा के घातकों का नाश, कृषि के लिये जलविभाग और निवास के लिये पर्वतादि का सम करना ये बड़े २ कार्य राजा को प्रथम हाथ में लेने चाहिएं।
टिप्पणी -
इन्द्रस्यनुवीर्याणि प्रवोचं इति ऋ० ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - भृगुराथर्वण ऋषिः । इन्द्रो देवता। आद्यया आह्वानमपराभिश्च स्तुतिः । १ निचृदुपरिष्टाद् बृहती, २ विराडुपरिष्टाद् बृहती, ५–७ त्रिष्टुभः । ३ विराट् पथ्याबृहती । ४ जगती पुरो विराट् । सप्तर्चं सूक्तम्॥
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