अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 5/ मन्त्र 6
ऋषिः - भृगुराथर्वणः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - इन्द्रशौर्य सूक्त
57
अह॒न्नहिं॒ पर्व॑ते शिश्रिया॒णं त्वष्टा॑स्मै॒ वज्रं॑ स्व॒र्यं॑ ततक्ष। वा॒श्रा इ॑व धे॒नवः॒ स्यन्द॑माना॒ अञ्जः॑ समु॒द्रमव॑ जग्मु॒रापः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअह॑न् । अहि॑म् । पर्व॑ते । शि॒श्रि॒या॒णम् । त्वष्टा॑ । अ॒स्मै॒ । वज्र॑म् । स्व॒र्य᳡म् । त॒त॒क्ष॒ । वा॒श्रा:ऽइ॑व । धे॒नव॑: । स्यन्द॑माना: । अञ्ज॑: । स॒मु॒द्रम् । अव॑ । ज॒ग्मु॒: । आप॑: ॥५.६॥
स्वर रहित मन्त्र
अहन्नहिं पर्वते शिश्रियाणं त्वष्टास्मै वज्रं स्वर्यं ततक्ष। वाश्रा इव धेनवः स्यन्दमाना अञ्जः समुद्रमव जग्मुरापः ॥
स्वर रहित पद पाठअहन् । अहिम् । पर्वते । शिश्रियाणम् । त्वष्टा । अस्मै । वज्रम् । स्वर्यम् । ततक्ष । वाश्रा:ऽइव । धेनव: । स्यन्दमाना: । अञ्ज: । समुद्रम् । अव । जग्मु: । आप: ॥५.६॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
मनुष्य सदैव उन्नति का उपाय करता रहे।
पदार्थ
(त्वष्टा) सूक्ष्म करनेवाले [सूक्ष्मदर्शी] पुरुष ने (पर्वते) बादल [के समान प्रकाश रोकनेवाले जनसमूह] में, अथवा पहाड़ पर (शिश्रियाणम्) ठहरे हुए (अहिम्) सर्परूप वा मेघरूप [हिंसक वा प्रकाश रोकनेवाले] को (अहन्) वध किया, (अस्मै) इस [प्रयोजन] के लिये (स्वर्यम्) ताप वा पीड़ा देनेवाला (वज्रन्) वज्र (ततक्ष) उसने तीक्ष्ण किया। (वाश्राः) रंभाती हुयी (धेनव इव) गौओं के समान, (स्यन्दमानाः) वेग से बहते हुए, (अञ्जः) प्रकट (आपः) जल [जलरूप प्रजागण] (समुद्रम्) समुद्र में [राजा के पास] (अव) उतरकर (जग्मुः) पहुँच गये ॥६॥
भावार्थ
पूर्वज विवेकी राजाओं ने दण्डव्यवस्था स्थापन करके अपने प्रकट और गुप्त शत्रुओं को मारा, तब प्रजागण प्रसन्न होकर उस हितकारी राजा को अभिनन्दन देने गये, जैसे रंभाती हुयी गौएँ बछड़ों के पास अथवा वृष्टि के जल एकत्र होकर समुद्र में दौड़कर जाते हैं, इसी प्रकार सब राजा और प्रजागण परस्पर रहकर आनन्द मनाते रहें ॥६॥ मनु जी ने कहा है–अ० ७ श्लोक १८। दण्डः शास्ति प्रजाः सर्वा दण्ड एवाभिरक्षति। दण्डः सुप्तेषु जागर्ति दण्डं धर्मं विदुर्बुधाः ॥१॥ दण्ड ही सब प्रजा पर शासन रखता, दण्ड ही सब ओर से रक्षा करता, दण्ड ही सोते हुओं में जागता है, विद्वान् लोग दण्ड को धर्म जानते हैं ॥
टिप्पणी
६–अहन्। म० ५। हतवान्। अहिम्। म० ५। सर्वतो हननशीलम्। सर्पसमानहिंसकम्। मेघसमानप्रकाशनिरोधकं पुरुषम्। पर्वते। म० ५। जातावेकवचनम्। पर्वतेषु। मेघसमानान्धकारवर्धकेषु पुरुषेषु। यद्वा, शैलप्रदेशे स्थितम्। शिश्रियाणम्। श्रिञ् सेवायां–लिटः कानच्। चित्त्वाद् अन्तोदात्तः। आश्रितम्। त्वष्टा। त्वष्टा तूर्णमश्नुत इति नैरुक्तास्त्विषेर्वास्याद् दीप्तिकर्मणस्त्वक्षतेर्वा स्याद् करोतिकर्मणः–निरु० ८।१३। नप्तृनेष्टृत्वष्टृक्षतृहोतृपोतृ०। उ० २।९६। इति त्वक्षू तनूकरणे–तृन्। नित्त्वाद् आद्युदात्तः। व्यवहाराणां तनूकर्ता। सूक्ष्मदर्शी। विश्वकर्मा। इन्द्रः पुरुषः। अस्मै। अस्मै प्रयोजनाय। अहेर्हननायेत्यर्थः। वज्रम्। म० ५। कुलिशम्। स्वर्यम्। पुंसि संज्ञायां घः प्रायेण। पा० ३।३।११८। इति स्वृ शब्दोपतापयोः–घ। यद्वा। नन्दिग्रहिपचादि०। पा० ३।१।१३४। इति स्वर आक्षेपे–अच्। ततः। तत्र साधुः। पा० ४।४।११८। इति स्वरे उपतापे पीडने यद्वा, शत्रूणाम् आक्षेपे। तिरस्करणे साधुं योग्यम्। ततक्ष। तक्षू तनूकरणे–लिट्। तनूकृतवान्। तीक्ष्णं चकार। वाश्राः। स्फायितञ्चिवञ्चिशकि०। उ० २।१३। इति वाशृ शब्दे–रक्। शब्दायमानाः। वत्सान् प्रति हंभारवयुक्ताः। धेनवः। धेट इच्च। उ० ३।३४। इति धेट् पाने–नु। नवप्रसूता गावः। स्यन्दमानाः। स्यन्दू प्रस्रवणे–लटः शानच्। प्रस्रवन्त्यः। प्रवहन्त्यः। अञ्जः। अञ्जू व्यक्तिगतिम्रक्षणेषु–क्विप्। व्यक्ताः। गमनशीलाः। समुद्रम्। अ० १।१३।३। इति सम्+उन्दी क्लेदने–रक्। जलाधारम्। सागरम्। अन्तरिक्षम्। अव। नीचैः। अधस्तात्। अनायासेन। जग्मुः। गम्लृ–लिट्। प्रापुः। आपः। अ० १।५।१। जलानि ॥
विषय
समुद्र-गमन
पदार्थ
१. गतमन्त्र में वर्णित इन्द्र (पर्वते शिश्रियाणम्) = अविद्या-पर्वत में निवास करनेवाली (अहिम्) = समन्तात् विनाश करनेवाली वासना को (अहन्) = नष्ट करता है। (त्वष्टा) = ज्ञानदीस प्रभु (अस्मै) = इस इन्द्र के लिए (स्वर्यम्) = उत्तम प्रकाशवाली (वनम्) = क्रियाशीलता को (ततक्ष) = बनाता है, अर्थात् यह इन्द्र गतिशील होता है और इसकी गतिशीलता प्रकाशमय होती है-इसके सब कर्म ज्ञानपूर्वक होते हैं। इन कर्मों में सतत लगे रहने से ही यह वासना को विनष्ट कर पाता है। २. इस वासना के विनष्ट होने पर (धेनवः) = ज्ञान-दुग्ध देनेवाली वेदवाणीरूप (गौएँ वाश्राः इव) = शब्द करती हुई-कर्तव्य का ज्ञान देती हुई (स्यन्दमाना:) = इसकी ओर गतिवाली होती हैं। इन वेदवाणियों से कर्तव्य का ज्ञान प्राप्त करके (आप:) = ये क्रियाशील प्रजाएँ (अज:) = साक्षात् (समुद्रम्) = [स-मुद] आनन्दमय प्रभु की और (अवजग्मुः) = गतिशील होती हैं, अर्थात् ये प्रजाएँ प्रभु को प्राप्त होती हैं।
भावार्थ
इन्द्र अविद्यामूलक वासना को नष्ट करता है। प्रभु इसे प्रकाशमय क्रियाशीलता प्राप्त कराते हैं। इसे वेदवाणी प्राप्त होती है। उसके अनुसार कर्म करता हुआ यह इन्द्र आनन्दमय प्रभु को प्राप्त करता है।
भाषार्थ
(पर्वते) पर्वत अर्थात् मेघ में (शिश्रियाणम्) आश्रय पाए हुए (अहिम्) मेघ की ( अहन् ) इन्द्र ने हत्या की। (त्वष्टा) प्रदीप्त विद्युत् ने या वायु ने (अस्मै) इस इन्द्र के लिए (स्वर्यम् ) उपतापकारी तथा शब्दायमान (वज्रम्) वज्र को ( ततक्ष) घड़ा, निर्मित किया। (वाश्रा:) शब्द करती हुईं (धेनवः इव) दुधार गौओं के सदृश, (स्यन्दमानाः) प्रवाहित होती हुईं, (अञ्जः) तथा शब्दायमान (आप:) नदियों के जल (समुद्रम्) समुद्र की ओर (अवजग्मु:) गतिमान् हुए।
टिप्पणी
[त्वष्टा=त्विषेर्वा स्यात् दीप्तिकर्मणः। त्वक्षतेर्वा स्यात् करोति कर्मणः (निरुक्त ८।२।१३) । त्वष्टा अन्तरिक्षस्थानी है, अतः विद्युत् है, या वायु। अहिः= मेघः (मन्त्र ५)। स्वर्यम्= स्वृ शब्दोपतापयोः (भ्वादिः)। मेघगर्जना में शब्द भी होता है और प्रतप्त विद्युत् भी चमकती है। प्रतप्त विद्युत् प्रपात वज्र है। धनवः= धेट् पाने (भ्वादिः)। गोएँ दूध पिलाने के लिए हम्भा-रव करती हुई बछड़े की ओर जाती हैं। अञ्जः=अजि शब्दार्थ: (चुरादिः)। अव=अवस्तात्, नीचे की ओर। नदी-जल समुद्र की ओर गति करते हैं, यतः उनका मार्ग क्रमशः समुद्र की ओर झुकता हुआ होता है।
विषय
राजा को उपदेश ।
भावार्थ
( इन्द्रस्य ) ऐश्वर्यशाली राजा के (वीर्याणि) उन बलयुक्त कार्यों का मैं (प्रावोचं नु) उपदेश करता हूं, (यानि) जिन (प्रथमानि) श्रेष्ठ, कीर्तिजनक कामों को (वज्जी) वज्र, राजदण्ड को धारण करने वाला राजा ( चकार ) अवश्य करे। जिस प्रकार विद्युत् मेघ को ताड़ित करके जलों को बहाती है और पर्वतों के चट्टान तोड़ फोड़ देती है उसी प्रकार राजा ( अहिम् ) प्रजा के घातक को ( अहन् ) नाश करे और ( अपः ) नाना जलधारा या नलों को ( अनु ततर्द ) काट कर राष्ट्र में बहावे और ( पर्वतानां ) पर्वतों के ( वक्षणा ) वक्षस्थलों को (अभिनत्) काट २ कर साफ करे जिससे प्रजाएं सुख से से बसें और वृद्धि करें। प्रजा के घातकों का नाश, कृषि के लिये जलविभाग और निवास के लिये पर्वतादि का सम करना ये बड़े २ कार्य राजा को प्रथम हाथ में लेने चाहिएं।
टिप्पणी
इन्द्रस्यनुवीर्याणि प्रवोचं इति ऋ० ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भृगुराथर्वण ऋषिः । इन्द्रो देवता। आद्यया आह्वानमपराभिश्च स्तुतिः । १ निचृदुपरिष्टाद् बृहती, २ विराडुपरिष्टाद् बृहती, ५–७ त्रिष्टुभः । ३ विराट् पथ्याबृहती । ४ जगती पुरो विराट् । सप्तर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
The Ruler
Meaning
Indra, lord of the shooting rays of glory, breaks the clouds of life resting in the firmament and the mountain. Tvashta, divine creative power making fine forms and subtle energies, creates the whizzing catalytic power for him as his shooting rays against the cloud. And like mother cows eager for the calves rushing to the stalls, creative, life-giving waters instantly rush over the land to the sea.
Translation
He has sent asunder the cloud of blind impulses seeking refuge in the obstacles. The supreme architect has conquered with his all-encompassing bolt of will-power. The cloud of passions have been broken; the water of animated evil thoughts has rapidly rushed to the heart, like cows hastening to the calves. (also Rg. 1.32.2).
Translation
Tvasta, this electricity slays the cloud lying in the atmospheric region and it aims at it its blazing thunder-bolt. The rainy waters flowing violently go to the ocean like the lowing cows.
Translation
Just as air forcibly attacks the cloud lying on the mountain, and the Sun intensifies the thundering lightning for the air, so should the king destroy his subjects’ enemy, abiding in his well-knit state. Mechanics should prepare deadly instruments for the king. Just as lowing kine yield milk in rapid flow, so should the gliding streams of water flow downward to the ocean.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
६–अहन्। म० ५। हतवान्। अहिम्। म० ५। सर्वतो हननशीलम्। सर्पसमानहिंसकम्। मेघसमानप्रकाशनिरोधकं पुरुषम्। पर्वते। म० ५। जातावेकवचनम्। पर्वतेषु। मेघसमानान्धकारवर्धकेषु पुरुषेषु। यद्वा, शैलप्रदेशे स्थितम्। शिश्रियाणम्। श्रिञ् सेवायां–लिटः कानच्। चित्त्वाद् अन्तोदात्तः। आश्रितम्। त्वष्टा। त्वष्टा तूर्णमश्नुत इति नैरुक्तास्त्विषेर्वास्याद् दीप्तिकर्मणस्त्वक्षतेर्वा स्याद् करोतिकर्मणः–निरु० ८।१३। नप्तृनेष्टृत्वष्टृक्षतृहोतृपोतृ०। उ० २।९६। इति त्वक्षू तनूकरणे–तृन्। नित्त्वाद् आद्युदात्तः। व्यवहाराणां तनूकर्ता। सूक्ष्मदर्शी। विश्वकर्मा। इन्द्रः पुरुषः। अस्मै। अस्मै प्रयोजनाय। अहेर्हननायेत्यर्थः। वज्रम्। म० ५। कुलिशम्। स्वर्यम्। पुंसि संज्ञायां घः प्रायेण। पा० ३।३।११८। इति स्वृ शब्दोपतापयोः–घ। यद्वा। नन्दिग्रहिपचादि०। पा० ३।१।१३४। इति स्वर आक्षेपे–अच्। ततः। तत्र साधुः। पा० ४।४।११८। इति स्वरे उपतापे पीडने यद्वा, शत्रूणाम् आक्षेपे। तिरस्करणे साधुं योग्यम्। ततक्ष। तक्षू तनूकरणे–लिट्। तनूकृतवान्। तीक्ष्णं चकार। वाश्राः। स्फायितञ्चिवञ्चिशकि०। उ० २।१३। इति वाशृ शब्दे–रक्। शब्दायमानाः। वत्सान् प्रति हंभारवयुक्ताः। धेनवः। धेट इच्च। उ० ३।३४। इति धेट् पाने–नु। नवप्रसूता गावः। स्यन्दमानाः। स्यन्दू प्रस्रवणे–लटः शानच्। प्रस्रवन्त्यः। प्रवहन्त्यः। अञ्जः। अञ्जू व्यक्तिगतिम्रक्षणेषु–क्विप्। व्यक्ताः। गमनशीलाः। समुद्रम्। अ० १।१३।३। इति सम्+उन्दी क्लेदने–रक्। जलाधारम्। सागरम्। अन्तरिक्षम्। अव। नीचैः। अधस्तात्। अनायासेन। जग्मुः। गम्लृ–लिट्। प्रापुः। आपः। अ० १।५।१। जलानि ॥
बंगाली (3)
पदार्थ
(ত্বষ্টা) সূক্ষ্মদর্শী পুরুষ (পর্বতে) পর্বত তুল্য দৃড় জন সমূহ (শিশ্রিয়াণং) অবস্থিত থাকিয়া (অহিম্) সৰ্পতুল্য শত্রকে (অহন্) বধ করিয়াছেন । (অস্মৈ) এই প্রয়োজনের জন্য (স্বয়ম্) পীড়াদায়ক (বজ্রং) বজ্রকে (ততক্ষ) তিনি তীক্ষ্ণ করিয়াছেন (বাশ্রাঃ) শব্দয়মান (ধেনবঃ ইব) ধেনুর ন্যায় (সান্দমানঃ) বেগবান (অজঃ) গমনশীল (আপঃ) জল (সমূদ্রঃ) সমূদ্রে (অব) অবতরণ করিয়া (জগ্ম) পৌছাইছে।। ৬।। অনুবাদঃ সূক্ষ্মদর্শী পুরুষ পর্বত তুল্য দৃঢ় জন সমূহের অবস্থিত তাকিয়া সর্পতুল্য হিংস্র শত্রুকে বধ করেন। এই প্রয়োজনের জন্য তিনি পীড়াদায়ক বজ্রকে তীক্ষ্ণ করিয়াছেন। শব্দায়মান ধেনুর ন্যায় বেগবান ও উগ্রগতি সম্পন্ন জলের ন্যায় প্রজা রাজাও সমূদ্রে মিলিত হইয়াছে।।
भावार्थ
मन्त्र (बांग्ला)
অহন্নহিং পর্বতে শিশ্রিয়াণং তৃষ্টাস্মৈ বজ্রং স্বয়ং ততক্ষ। বাশ্রা ইব ধেনবঃ স্যন্দমানা অঞ্জঃ সমুদ্রমব জগুরাপঃ
ऋषि | देवता | छन्द
ভৃগুরাথর্বণঃ। ইন্দ্ৰঃ। ত্রিষ্টুপ্
भाषार्थ
(পর্বতে) পর্বত অর্থাৎ মেঘে (শিশ্রিয়াণম্) আশ্রিত (অহিম্) মেঘের (অহন্) ইন্দ্র হত্যা করেছে। (ত্বষ্টা) প্রদীপ্ত বিদ্যুৎ বা বায়ু (অস্মৈ) এই ইন্দ্রের জন্য (স্বর্যম্) উপতাপকারী ও শব্দায়মান (বজ্রম্) বজ্রকে (ততক্ষ) ঘড়া [মাটির পাত্র], নির্মিত করেছে। (বাশ্রাঃ) শব্দ করে/নর্দনকারী (ধেনবঃ ইব) দুগ্ধবতী গাভীর সদৃশ, (স্যন্দমানাঃ) প্রবাহিত হয়ে, (অঞ্জঃ) এবং শব্দায়মান (আপঃ) নদীর জল (সমুদ্রম্) সমুদ্রের দিকে (অবজগ্মুঃ) গতিমান্ হয়েছে।
टिप्पणी
[ত্বষ্টা =ত্বিষের্বা স্যাৎ দীপ্তিকর্মণঃ। ত্বক্ষতের্বা স্যাৎ করোতি কর্মণঃ (নিরুক্ত ৮।২।১৩)। ত্বষ্টা অন্তরিক্ষস্থানী, অতঃ বিদ্যুত, বা বায়ু। অহিঃ= মেঘঃ (মন্ত্র ৫)। স্বর্যম্ = স্বৃ শব্দোপতাপয়োঃ (ভ্বাদিঃ)। মেঘগর্জনে শব্দও হয় এবং প্রতপ্ত বিদ্যুৎ ও চমকিত হয়। প্রতপ্ত বিদ্যুৎ প্রপাত হল বজ্র। ধনবঃ= ধেট্ পানে (ভ্বাদিঃ)। গাভী দুধ পান করানোর জন্য হাম্ভা-রব করে বাছুরের দিকে যায়। অঞ্জঃ=অজি শব্দার্থঃ (চুরাদিঃ)। অব=অবস্তাৎ, নীচের দিকে। নদী-জল সমুদ্রের দিকে প্রবাহিত হয়, যতঃ তার মার্গ ক্রমশঃ সমুদ্রের দিকে ঝুঁকে পড়ে।]
मन्त्र विषय
মনুষ্যঃ সদৈবোন্নতিপ্রয়ত্নং কুর্য্যাৎ
भाषार्थ
(ত্বষ্টা) সূক্ষ্মকারী [সূক্ষ্মদর্শী] পুরুষ (পর্বতে) মেঘের [সমান আলো প্রতিরোধক জনসমূহে], অথবা পাহাড়ে (শিশ্রিয়াণম্) আশ্রিত (অহিম্) সর্পরূপ বা মেঘরূপ [হিংসুক বা প্রকাশ রোধক] কে (অহন্) বধ করেছে, (অস্মৈ) এই [প্রয়োজনের] জন্য (স্বর্যম্) তাপ বা পীড়াদায়ক (বজ্রন্) বজ্র (ততক্ষ) সে তীক্ষ্ণ করেছে। (বাশ্রাঃ) শব্দায়মান (ধেনব ইব) গাভীদের সমান, (স্যন্দমানাঃ) বেগপূর্বক বাহিত হয়ে/প্রবাহিত, (অঞ্জঃ) প্রকট (আপঃ) জল [জলরূপ প্রজাগণ] (সমুদ্রম্) সমুদ্রে [রাজার কাছে] (অব) নেমে/অবনমিত হয়ে (জগ্মুঃ) পৌঁছেছে ॥৬॥
भावार्थ
পূর্ব বিবেকশীল রাজারা দণ্ডব্যবস্থা স্থাপন করে নিজের প্রকট ও গুপ্ত শত্রুদের হনন করেছে, তখন প্রজাগণ প্রসন্ন হয়ে সেই হিতকারী রাজাকে অভিনন্দন দিতে গিয়েছে, যেভাবে শব্দায়মান গাভীরা নিজের শিশুর কাছে অথবা বৃষ্টির জল একত্র হয়ে সমুদ্রে দৌড়ে যায়, এইভাবে সব রাজা ও প্রজাগণ পরস্পর একসাথে অবস্থান করে, আনন্দ করে ॥৬॥ মনু জী বলেছেন–অ০ ৭ শ্লোক ১৮। দণ্ডঃ শাস্তি প্রজাঃ সর্বা দণ্ড এবাভিরক্ষতি। দণ্ডঃ সুপ্তেষু জাগর্তি দণ্ডং ধর্মং বিদুর্বুধাঃ ॥১॥ দণ্ডই সকল প্রজাদের ওপর শাসন রাখে, দণ্ডই সব দিক থেকে রক্ষা করে, দণ্ডই শায়িতকে জাগ্রত করে, বিদ্বানগণ দণ্ডকে ধর্ম জানে ॥
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