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अथर्ववेद > काण्ड 4 > सूक्त 17

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  • अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 17/ मन्त्र 6
    सूक्त - शुक्रः देवता - अपामार्गो वनस्पतिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - अपामार्ग सूक्त

    क्षु॑धामा॒रं तृ॑ष्णामा॒रम॒गोता॑मनप॒त्यता॑म्। अपा॑मार्ग॒ त्वया॑ व॒यं सर्वं॒ तदप॑ मृज्महे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    क्षु॒धा॒ऽमा॒रम् । तृ॒ष्णा॒ऽमा॒रम् । अ॒गोता॑म् । अ॒न॒प॒ऽत्यता॑म् । अपा॑मार्ग: । त्वया॑ । व॒यम् । सर्व॑म् । तत् । अप॑ । मृ॒ज्म॒हे॒ ॥१७.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    क्षुधामारं तृष्णामारमगोतामनपत्यताम्। अपामार्ग त्वया वयं सर्वं तदप मृज्महे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    क्षुधाऽमारम् । तृष्णाऽमारम् । अगोताम् । अनपऽत्यताम् । अपामार्ग: । त्वया । वयम् । सर्वम् । तत् । अप । मृज्महे ॥१७.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 17; मन्त्र » 6

    भावार्थ -
    उक्त प्रकार की महाव्याधिनाशक ओषधियों के गुणों को दर्शाते हैं—(क्षुधामारम्) भूख के कारण मारने वाली मृत्यु=भस्मक-रोग को, (तृष्णा-मारम्) तृष्णा के कारण मारने वाले रोग, पित्तदाह को, (अगोताम्) गौ=इन्द्रियों के भीतर शिथिलता प्राप्त कराने वाले और (अनपत्यताम्) बालक आदि का जन्म न होने देने वाले बन्ध्यात्व नपुंसकत्व आदि (सर्वं तद्) समस्त रोगों को, हे (अपामार्ग) रोगविनाशक ओषधे ! (त्वया) तेरे बल से (वयं अपमृज्महे) हम दूर करते हैं। नाना रोगहारी ओषधियों का ‘अपामार्ग’ यह पारिभाषिक नाम प्रतीत होता है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - शुक्र ऋषिः। अपामार्गो वनस्पतिर्देवता। १-८ अनुष्टुभः। अष्टर्चं सूक्तम्॥

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