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अथर्ववेद > काण्ड 4 > सूक्त 18

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  • अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 18/ मन्त्र 3
    सूक्त - शुक्रः देवता - अपामार्गो वनस्पतिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - अपामार्ग सूक्त

    अ॒मा कृ॒त्वा पा॒प्मानं॒ यस्तेना॒न्यं जिघां॑सति। अश्मा॑न॒स्तस्यां॑ द॒ग्धायां॑ बहु॒लाः फट्क॑रिक्रति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒मा । कृ॒त्वा । पा॒प्मान॑म् । य: । तेन॑ । अ॒न्यम् । जिघां॑सति । अश्मा॑न: । तस्या॑म् । द॒ग्धाया॑म् । ब॒हु॒ला: । फट् । क॒रि॒क्र॒ति॒ ॥१८.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अमा कृत्वा पाप्मानं यस्तेनान्यं जिघांसति। अश्मानस्तस्यां दग्धायां बहुलाः फट्करिक्रति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अमा । कृत्वा । पाप्मानम् । य: । तेन । अन्यम् । जिघांसति । अश्मान: । तस्याम् । दग्धायाम् । बहुला: । फट् । करिक्रति ॥१८.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 18; मन्त्र » 3

    भावार्थ -

    (यः) जो कोई पुरुष (पाप्मानं कृत्वा) पाप, घातक या विस्फोटक प्रयोग (अमा) किसी के साथ करके, या कच्चे पात्र में करके (तेन) उससे ही (अन्यं) दूसरे पुरुष को (जिघांसति) मार देना चाहता है (तस्यां) उस घातक प्रयोग के (दग्धायां) नष्ट या ज्वलित हो जाने पर (बहुलाः अश्मानः) बहुत से पत्थर या शस्त्रास्त्र (फट् करिक्रति) फट कर उसका स्वयं विनाश करते हैं। पाप कर्मों के करने वाले को अथवा दूसरों की जान लेने वालों को पत्थरों से मार मार कर प्राणदण्ड हो। अथवा (बहुलाः अश्मानः) बहुत से शिला के समान कठोर जल्लाद उसको बराबर (फट् करिक्रति) ताड़ना किया करें । वेद में ‘संगसार’ करने का दण्ड अपने पाप कर्म से अन्यों के हिंसा करने वालों के लिये विधान किया गया हैं।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -

    शुक्र ऋषिः। अपामार्गो वनस्पतिर्देवता। १-५, ७, ८ अनुष्टुभः। ६ बृहतीगर्भा अनुष्टुप्। अष्टर्चं सूक्तम्॥

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