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अथर्ववेद > काण्ड 4 > सूक्त 18

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  • अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 18/ मन्त्र 2
    सूक्त - शुक्रः देवता - अपामार्गो वनस्पतिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - अपामार्ग सूक्त

    यो दे॑वाः कृ॒त्यां कृ॒त्वा हरा॒दवि॑दुषो गृ॒हम्। व॒त्सो धा॒रुरि॑व मा॒तरं॒ तं प्र॒त्यगुप॑ पद्यताम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य: । दे॒वा॒: । कृ॒त्याम् । कृ॒त्वा । हरा॑त् । अवि॑दुष: । गृ॒हम् । व॒त्स: । धा॒रु:ऽइ॑व । मा॒तर॑म् । तम् । प्र॒त्यक् । उप॑ । प॒द्य॒ता॒म् ॥१८.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यो देवाः कृत्यां कृत्वा हरादविदुषो गृहम्। वत्सो धारुरिव मातरं तं प्रत्यगुप पद्यताम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    य: । देवा: । कृत्याम् । कृत्वा । हरात् । अविदुष: । गृहम् । वत्स: । धारु:ऽइव । मातरम् । तम् । प्रत्यक् । उप । पद्यताम् ॥१८.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 18; मन्त्र » 2

    भावार्थ -
    वैद्यों के लिये राजनियम का उपदेश करते हैं। हे (देवाः) विद्वान् पुरुषो ! (यः) जो पुरुष (कृत्यां कृत्वा) अपने ओषधि के विषम प्रयोग करके (अविदुषः) अनजान पुरुष के (गृहम्) घर, देह को (हरात्) हर ले, विनाश कर दे तो जिस प्रकार (धारुः वत्सः) दूध पीने वाला बालक (मातरम् इव) अपनी माता के पास पहुंच जाता है उसी प्रकार उस विषम ओषधि का प्रयोग भी (प्रत्यक्) फिर से लौट कर (तं उपपद्यताम्) उसको ही प्राप्त हो। अर्थात् जो भोले लोगों की जान विषैली ओषधियें धोखे से दे देकर लेले उसको राजा उसी तरह के विष खिलाकर मरवावे।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - शुक्र ऋषिः। अपामार्गो वनस्पतिर्देवता। १-५, ७, ८ अनुष्टुभः। ६ बृहतीगर्भा अनुष्टुप्। अष्टर्चं सूक्तम्॥

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