अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 25/ मन्त्र 5
सूक्त - मृगारः
देवता - वायुः, सविता
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - पापमोचन सूक्त
र॒यिं मे॒ पोषं॑ सवि॒तोत वा॒युस्त॒नू दक्ष॒मा सु॑वतां सु॒शेव॑म्। अ॑य॒क्ष्मता॑तिं॒ मह॑ इ॒ह ध॑त्तं॒ तौ नो॑ मुञ्चत॒मंह॑सः ॥
स्वर सहित पद पाठर॒यिम् । मे॒ । पोष॑म् । स॒वि॒ता । उ॒त । वा॒यु: । त॒नू इति॑ । दक्ष॑म् । आ । सु॒व॒ता॒म् । सु॒ऽशेव॑म् । अ॒य॒क्ष्मऽता॑तिम् । मह॑: । इ॒ह । ध॒त्त॒म् । तौ । न॒: । मु॒ञ्च॒त॒म् । अंह॑स: ॥२५.५॥
स्वर रहित मन्त्र
रयिं मे पोषं सवितोत वायुस्तनू दक्षमा सुवतां सुशेवम्। अयक्ष्मतातिं मह इह धत्तं तौ नो मुञ्चतमंहसः ॥
स्वर रहित पद पाठरयिम् । मे । पोषम् । सविता । उत । वायु: । तनू इति । दक्षम् । आ । सुवताम् । सुऽशेवम् । अयक्ष्मऽतातिम् । मह: । इह । धत्तम् । तौ । न: । मुञ्चतम् । अंहस: ॥२५.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 25; मन्त्र » 5
विषय - पापमोचन की प्रार्थना।
भावार्थ -
(सविता) सूर्य (उत वायुः) और वायु = जिस प्रकार (मे) मेरे शरीर में (रयिं) वीर्य को और (पोषं) पुष्टि को प्रदान करते हैं और वे दोनों जिस प्रकार (मे तनू) मेरे शरीर में (दक्षं) बल को उत्पन्न करते हैं और (अयक्ष्मतातिं) यक्ष्म=रोग जन्तु से उत्पन्न राजरोगों से मुक्त करने वाले तेज को धारण कराते हैं उसी प्रकार ईश्वर के उक्त दोनों सामर्थ्य (मे तनू रयिं पोषं) मेरे शरीर में वीर्य और पुष्टि का प्रदान करें और (सु-शेवं) उत्तम सुख रूप में सेवन करने योग्य (दक्षं) बल और ज्ञान को (आ सुवतां) उत्पन्न करें। (इह) यहां, इस लोक में (अयक्ष्मतातिम् महः) रोग रहित तेज या कान्ति को प्रदान करें (तौ) वे दोनों ईश्वरीय शक्रियां प्रादुर्भूत होकर (नः) हमें (अंहसः मुञ्चतम्) पाप से भी मुक्त करें।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -
तृतीयं मृगारसूक्तम्। ३ अतिशक्वरगर्भा जगती। ७ पथ्या बृहती। १, २, ४-६ त्रिष्टुभः। सप्तर्चं सूक्तम्॥
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