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अथर्ववेद > काण्ड 4 > सूक्त 7

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  • अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 7/ मन्त्र 2
    सूक्त - गरुत्मान् देवता - वनस्पतिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - विषनाशन सूक्त

    अ॑र॒सं प्रा॒च्यं॑ वि॒षम॑र॒सं यदु॑दी॒च्य॑म्। अथे॒दम॑धरा॒च्यं॑ कर॒म्भेण॒ वि क॑ल्पते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒र॒सम् । प्रा॒च्य᳡म् । वि॒षम् । अ॒र॒सम् । यत् । उ॒दी॒च्य᳡म् । अथ॑ । इ॒दम् । अ॒ध॒रा॒च्य᳡म् । क॒र॒म्भेण॑ । वि । क॒ल्प॒ते॒ ॥७.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अरसं प्राच्यं विषमरसं यदुदीच्यम्। अथेदमधराच्यं करम्भेण वि कल्पते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अरसम् । प्राच्यम् । विषम् । अरसम् । यत् । उदीच्यम् । अथ । इदम् । अधराच्यम् । करम्भेण । वि । कल्पते ॥७.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 7; मन्त्र » 2

    भावार्थ -
    (प्राच्यं विषम्) प्राची दिशा के देशों के जन्तु और ओषधियों के नाना प्रकार के विष और (यद् उदीच्यं) जो उत्तर दिशा के विष हैं वे भी (अरसं) निर्बल हो जाते हैं (अथ) और (इदम्) यह (अधराच्यम्) नीचे भूमि में सरकने वाले कीट पतंगों का विष भी (अरसं) निर्बल हो जाता है परन्तु यह सब (करम्भेण विकल्पते) उस विष को शान्त करने के लिये जो ओषधि का लेप और मश्रण और पान करने योग्य द्रव्य बनाया जाता है उसकी मात्रा और बलाबल के भेद से भिन्न २ बल का विष शान्त होता है ऐसा समझना उचित है। अथवा शरीर में आड़ा फैलने वाला विष जो उसी स्थान पर सूजन कर दे ‘प्राच्य’ है और ऊपर सिर की ओर फैलने वाला विष ‘उदीच्य’ और पैरों की ओर नीचे जाने जाने वाला विप ‘अधराज्य’ है। अथवा ‘प्राच्य’ बहुत तीव्र, ‘उदीच्य’ मध्यम ओर ‘अधराज्य’ न्यून बल है। अथवा वातोल्वण विष ‘प्राच्य’ और पित्तोल्वण ‘उदीच्य’ तथा कफोल्वण ‘अधराच्य’ है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - गरुत्मान् ऋषिः। वनस्पतिर्देवता। १-३, ५-७ अनुष्टुभः, ४ स्वराट्। सप्तर्चं सूक्तम्॥

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