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अथर्ववेद > काण्ड 5 > सूक्त 19

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  • अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 19/ मन्त्र 15
    सूक्त - मयोभूः देवता - ब्रह्मगवी छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - ब्रह्मगवी सूक्त

    न व॒र्षं मै॑त्रावरु॒णं ब्र॑ह्म॒ज्यम॒भि व॑र्षति। नास्मै॒ समि॑तिः कल्पते॒ न मि॒त्रं न॑यते॒ वश॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    न । व॒र्षम् । मै॒त्रा॒व॒रु॒णम् । ब्र॒ह्म॒ऽज्यम् । अ॒भि । व॒र्ष॒ति॒ । न । अ॒स्मै॒ । सम्ऽइ॑ति: ।क॒ल्प॒ते॒ । न । मि॒त्रम् । न॒य॒ते॒ । वश॑म् ॥१९.१५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    न वर्षं मैत्रावरुणं ब्रह्मज्यमभि वर्षति। नास्मै समितिः कल्पते न मित्रं नयते वशम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    न । वर्षम् । मैत्रावरुणम् । ब्रह्मऽज्यम् । अभि । वर्षति । न । अस्मै । सम्ऽइति: ।कल्पते । न । मित्रम् । नयते । वशम् ॥१९.१५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 19; मन्त्र » 15

    भावार्थ -
    (ब्रह्मज्यं) ब्रह्महत्यारे के राष्ट्र में (मैत्रावरुणं वर्षं) मित्र और वरुण अर्थात् ब्राह्मण और क्षत्रिय के सम्मिलित शासन की सुखवर्षाएं (न अमि वर्षति) नहीं बरसतीं। (अस्मै) इस ब्रह्मद्रोही की (समितिः) राष्ट्र सभा भी (न) नहीं (कल्पते) सामर्थ्यवान् होती और (मित्रं) मित्र राष्ट्र भी (वशं) उसकी इच्छा के अनुकूल (न नयते) कार्य नहीं करते। अर्थात् ब्रह्मघाती के राष्ट्र में सुख नहीं होता, उसकी राष्ट्रसभा टूट जाती है। और मित्र-राष्ट्र फूट जाते हैं।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - मयाभूर्ऋषिः। ब्रह्मगवी देवता। २ विराट् पुरस्ताद् बृहती। ७ उपरिष्टाद् बृहती। १-३-६, ७-१५ अनुष्टुभः। पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥

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