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अथर्ववेद > काण्ड 5 > सूक्त 20

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  • अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 20/ मन्त्र 1
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - वानस्पत्यो दुन्दुभिः छन्दः - जगती सूक्तम् - शत्रुसेनात्रासन सूक्त

    उ॒च्चैर्घो॑षो दुन्दु॒भिः स॑त्वना॒यन्वा॑नस्प॒त्यः संभृ॑त उ॒स्रिया॑भिः। वाचं॑ क्षुणुवा॒नो द॒मय॑न्त्स॒पत्ना॑न्त्सिं॒ह इ॑व जे॒ष्यन्न॒भि तं॑स्तनीहि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒च्चै:ऽघो॑ष: । दु॒न्दु॒भि: । स॒त्व॒ना॒ऽयन् । वा॒न॒स्प॒त्य: । सम्ऽभृ॑त: । उ॒स्रिया॑भि: । वाच॑म् । क्षु॒णु॒वा॒न: । द॒मय॑न् । स॒ऽपत्ना॑न् । सिं॒ह:ऽइ॑व । जे॒ष्यन् । अ॒भि । तं॒स्त॒नी॒हि॒ ॥२०.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उच्चैर्घोषो दुन्दुभिः सत्वनायन्वानस्पत्यः संभृत उस्रियाभिः। वाचं क्षुणुवानो दमयन्त्सपत्नान्त्सिंह इव जेष्यन्नभि तंस्तनीहि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उच्चै:ऽघोष: । दुन्दुभि: । सत्वनाऽयन् । वानस्पत्य: । सम्ऽभृत: । उस्रियाभि: । वाचम् । क्षुणुवान: । दमयन् । सऽपत्नान् । सिंह:ऽइव । जेष्यन् । अभि । तंस्तनीहि ॥२०.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 20; मन्त्र » 1

    भावार्थ -
    नगारे के दृष्टान्त से राजा को विजय करने का उपदेश करते हैं। जिस प्रकार (वानस्पत्यः) वनस्पति, काठ का बना हुआ (उच्चैर्घोषः) ऊंचे २ आवाज़ वाला (उस्त्रियाभिः संभृतः) चमड़ों से मढ़ा हुआ (दुन्दुभिः) बड़ा नगारा (सत्वना-यन्) बलवान् शूरवीर के समान गर्जता है और शत्रुओं के दिल दहलाता है, उसी प्रकार हे राजन् ! तू (वानस्पत्यः) वन अर्थात् सेवा करने हारा, उपभोग्य प्रजाओं के पालकों में से सेनापति पद पर प्राप्त होकर (उस्त्रियाभिः) वास करने वाली प्रजाओं से कर आदि द्वारा (संभृतः) परिपुष्ट होकर नगारे के समान (ऊच्चैः घोषः) ऊंचे २ विजय की घोषणा करता हुआ, (सत्वनायन्) बलवान् शूर-वीर के समान, (वाचं क्षुणुवानः) अपनी आज्ञाएं देता हुआ, और (स-पत्नान् दमयन्) शत्रुओं को दमन करता हुआ (सिंह इव) शेर के समान (जेष्यन्) विजय चाहता हुआ (अभि तंस्तनी हि) खूब घोर गर्जना कर।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ब्रह्मा ऋषिः। वानस्पत्यो दुन्दुभिर्देवता। सपत्न सेनापराजयाय देवसेना विजयाय च दुन्दुभिस्तुतिः। १ जगती, २-१२ त्रिष्टुभः। द्वादशर्चं सूक्तम्॥

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