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अथर्ववेद > काण्ड 5 > सूक्त 7

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  • अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 7/ मन्त्र 2
    सूक्त - अथर्वा देवता - अरातिसमूहः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - अरातिनाशन सूक्त

    यम॑राते पुरोध॒त्से पुरु॑षं परिरा॒पिण॑म्। नम॑स्ते॒ तस्मै॑ कृण्मो॒ मा व॒निं व्य॑थयी॒र्मम॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यम् । अ॒रा॒ते॒ । पु॒र॒:ऽध॒त्से । पुरु॑षम् । प॒रि॒ऽरा॒पिण॑म् । नम॑: । ते॒ । तस्मै॑ । कृ॒ण्म॒: । मा । व॒निम् । व्य॒थ॒यी॒: । मम॑ ॥७.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यमराते पुरोधत्से पुरुषं परिरापिणम्। नमस्ते तस्मै कृण्मो मा वनिं व्यथयीर्मम ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यम् । अराते । पुर:ऽधत्से । पुरुषम् । परिऽरापिणम् । नम: । ते । तस्मै । कृण्म: । मा । वनिम् । व्यथयी: । मम ॥७.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 7; मन्त्र » 2

    भावार्थ -
    हे (अराते) श्रमी पुरुषों और विद्वान् कार्यकर्त्ताओं को उन का पुरस्कार न देने हारे पुरुष ! तू (यम्) जिस (पुरुषं) पुरुष को (परि-रापिणं) नाना प्रकार से अपने आगे बुरा भला कहते हुए, अपने आगे अपने वेतन के लिये बड़बड़ाते हुए को (पुरः धत्से) आगे खड़ा रखता है (ते) ऐसे तुझ और (तस्मै) ऐसे तेरे उस पुरुष को भी (नमः कृण्मः) वज्र अर्थात् दण्ड करें। अर्थात् ऐसी दशा कभी समाज में नहीं आने देना चाहते, क्योंकि प्रत्येक पुरुष यह चाहता है कि (मम) मेरी (वनिं) वृत्ति को (मा व्यथयीः) हे मेरे मालिक ! तू मत मार मुझे हानि मत पहुंचा, नहीं तो तेरे सेवक तेरे सामने तुझे बुरा भला सुनायेंगे और गिड़गिड़ावेंगे।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अथर्वा ऋषिः। बहवो देवताः। १-३, ६-१० आदित्या देवताः। ४, ५ सरस्वती । २ विराड् गर्भा प्रस्तारपंक्तिः। ४ पथ्या बृहती। ६ प्रस्तारपंक्तिः। २, ३, ५, ७-१० अनुष्टुभः। दशर्चं सूक्तम्॥

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