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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 10

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 10/ मन्त्र 3
    सूक्त - शन्ताति देवता - सूर्यः छन्दः - साम्नी बृहती सूक्तम् - संप्रोक्षण सूक्त

    दि॒वे चक्षु॑षे॒ नक्ष॑त्रेभ्यः॒ सूर्या॒याधि॑पतये॒ स्वाहा॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दि॒वे । चक्षु॑षे । नक्ष॑त्रेभ्य: । सूर्या॑य । अधि॑ऽपतये । स्वाहा॑ ॥१०.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    दिवे चक्षुषे नक्षत्रेभ्यः सूर्यायाधिपतये स्वाहा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    दिवे । चक्षुषे । नक्षत्रेभ्य: । सूर्याय । अधिऽपतये । स्वाहा ॥१०.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 10; मन्त्र » 3

    भावार्थ -
    (दिवे) द्यौः या प्रकाश या तेज के लिये, (चक्षुषे) उसके ग्रहण करने वाली इन्द्रिय चक्षु के लिये (नक्षत्रेभ्यः) उस तेज से चमकने वाले नक्षत्रों और (अधिपतये सूर्याय) उनके स्वामी सूर्य के लिये (स्वाहा) उत्तम आहुति का प्रदान करो। अध्यात्म में—पृथिवी, अन्तरिक्ष और द्यौः तीन लोक हैं। श्रोत्र, प्राण=घ्राण और चक्षु तीन इन्द्रिय हैं। वनस्पति, पक्षि और नक्षत्र तीनों लोकों की तीन प्रकार की प्रजाएं हैं। अग्नि, वायु और सूर्य ये तीन उनके अधिपति इस त्रिक का परस्पर घनिष्ट लेनदेन है। यही इनकी उत्तम आहुति है। पृथिवी से वनस्पति उत्पन्न होती है और अग्नि उसे खा जाती है जोकि पुनः श्रोत्र रूप दिशाओं में फैलती है। अन्तरिक्ष में पक्षिगण विहार करते हैं, उनका रक्षक वायु है। उसका एकांश प्राण वायु नासिका में विचरता है। द्यौः लोक या तेजोलोक की प्रजाएं ये नक्षत्र हैं उनका अधिपति सूर्य है। जिसका प्रत्यक्ष नमूना यह सूर्य है। उसके तेजका ग्राहक चक्षु है। ईश्वर की सृष्टि में ये एक दूसरे के धारक और सामर्थ्यदायक हैं। यही इनकी उत्तम आहुति है॥ इति प्रथमोऽनुवाकः॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - शंतातिऋषिः। १ अग्निः। २ वायुः। ३ सूर्यः १ साम्नी त्रिष्टुप्। २ प्राजापत्या बृहती। साम्नी बृहती। तृचं सूक्तम्॥

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