Sidebar
अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 100/ मन्त्र 3
सूक्त - गरुत्मान ऋषि
देवता - वनस्पतिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - विषनिवारण का उपाय
असु॑राणां दुहि॒तासि॒ सा दे॒वाना॑मसि॒ स्वसा॑। दि॒वस्पृ॑थि॒व्याः संभू॑ता॒ सा च॑कर्थार॒सं वि॒षम् ॥
स्वर सहित पद पाठअसु॑राणाम् । दु॒हि॒ता । अ॒सि॒ । सा । दे॒वाना॑म् । अ॒सि॒ । स्वसा॑ । दि॒व: । पृ॒थि॒व्या: । सम्ऽभू॑ता । सा । च॒क॒र्थ॒ । अ॒र॒सम् । वि॒षम् ॥१००.३॥
स्वर रहित मन्त्र
असुराणां दुहितासि सा देवानामसि स्वसा। दिवस्पृथिव्याः संभूता सा चकर्थारसं विषम् ॥
स्वर रहित पद पाठअसुराणाम् । दुहिता । असि । सा । देवानाम् । असि । स्वसा । दिव: । पृथिव्या: । सम्ऽभूता । सा । चकर्थ । अरसम् । विषम् ॥१००.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 100; मन्त्र » 3
विषय - विष चिकित्सा।
भावार्थ -
हे ओषधे ! तू (असुराणाम्) बलशाली प्राणवान् पुरुषों के के लिये (दुहिता) बल, रस का दोहन करने वाली है, (सा) वह तू (देवानाम्) देव, विद्वान् पुरुषों की (स्वसा) उत्तम रूप से प्रकाश करने वाली है। तू (दिवः) द्युलोक के प्रकाश और (पृथिव्याः) पृथिवी से (सं-भूता) उत्पन्न हुई है (सा) वह तू (विषम्) विषको (अरसं चकर्थ) निर्बल करती है।
टिप्पणी -
ग्रीफिथ के मत से यह सिलाची नाम औषधि है। सायण के मत से यह वल्मीक की मिट्टी है। (अथर्व—५। ५। १) में “सिलाची नाम वा असि सा देवानामसि स्वसा।” इसी ओषधि के इस सूक्त में स्परणी, अरुन्धती, निष्कृति, कानीना, कन्यला आदि नाम दिये हैं। उस प्रसंग में कोशिक ने लाख को दूध में पकाकर शस्त्र-व्रण आदि की चिकित्सार्थ पान करने की विधि लिखी है।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - गरुत्मान् ऋषिः। वनस्पतिर्देवता। अनुष्टुभः। तृचं सूक्तम्॥
इस भाष्य को एडिट करें