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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 110/ मन्त्र 2
ज्ये॑ष्ठ॒घ्न्यां जा॒तो वि॒चृतो॑र्य॒मस्य॑ मूल॒बर्ह॑णा॒त्परि॑ पाह्येनम्। अत्ये॑नं नेषद्दुरि॒तानि॒ विश्वा॑ दीर्घायु॒त्वाय॑ श॒तशा॑रदाय ॥
स्वर सहित पद पाठज्ये॒ष्ठ॒ऽघ्न्याम् । जा॒त: । वि॒ऽचृतो॑: । य॒मस्य॑ । मू॒ल॒ऽबर्ह॑णात् । परि॑ । पा॒हि॒ । ए॒न॒म् । अति॑ । ए॒न॒म् । ने॒ष॒त् । दु॒:ऽइ॒तानि॑ । विश्वा॑ । दी॒र्घा॒यु॒ऽत्वाय॑ । श॒तऽशा॑रदाय ॥११०.२॥
स्वर रहित मन्त्र
ज्येष्ठघ्न्यां जातो विचृतोर्यमस्य मूलबर्हणात्परि पाह्येनम्। अत्येनं नेषद्दुरितानि विश्वा दीर्घायुत्वाय शतशारदाय ॥
स्वर रहित पद पाठज्येष्ठऽघ्न्याम् । जात: । विऽचृतो: । यमस्य । मूलऽबर्हणात् । परि । पाहि । एनम् । अति । एनम् । नेषत् । दु:ऽइतानि । विश्वा । दीर्घायुऽत्वाय । शतऽशारदाय ॥११०.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 110; मन्त्र » 2
विषय - सन्तान की रक्षा और सुशिक्षा।
भावार्थ -
जिस स्त्री के प्रथम बालक उत्पन्न होकर मर जाय उसकी अन्य सन्तति की रक्षा करने का उपदेश करते हैं। (ज्येष्ठघ्न्यां) ज्येष्ठ = प्रथम बालक को खो चुकनेवाली मृतवत्सा स्त्री में यह बालक (जातः) उत्पन्न हुआ है, अथवा (विचृतोः) विशेष रूप से परस्पर मिले हुए दोनों बालकों में से या (यमस्य) युगल रूप से उत्पन्न हुए (एनम्) इस बालक को (मूल-बर्हणात्) नाभि में लगी नाड़ी के काटने के समय से ही (परि पाहि) रक्षा करो। (विश्वा दुरितानि) सब प्रकार के दुरित, दुष्ट उपचार, जो मां बाप या धाई की ओर से किये गये हों, उनको बालक से (अति नेषत्) दूर कर दो। जिससे वह (शतशारदाय दीर्घायुत्वाय) सौ बरस की लम्बी आयु जीवे।
टिप्पणी -
सायण ने ‘ज्येष्ठघ्नी’ शब्द से ज्येष्ठा नक्षत्र ‘विचृत्’ से मूल नक्षत्र या जयेष्ठानक्षत्र का ग्रहण किया है, और मूल नक्षत्र या ज्येष्ठानक्षत्र में उत्पन्न बालक की रक्षा करने परक अर्थ किया है। सो असंगत है। वेद में फलित आदि असत्य बातों का होना सम्भव नहीं है।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अथर्वा ऋषिः। अग्निर्देवता। १ पंक्तिः। २-३ त्रिष्टुभौ। तृचं सूक्तम्॥
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