अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 110/ मन्त्र 2
ज्ये॑ष्ठ॒घ्न्यां जा॒तो वि॒चृतो॑र्य॒मस्य॑ मूल॒बर्ह॑णा॒त्परि॑ पाह्येनम्। अत्ये॑नं नेषद्दुरि॒तानि॒ विश्वा॑ दीर्घायु॒त्वाय॑ श॒तशा॑रदाय ॥
स्वर सहित पद पाठज्ये॒ष्ठ॒ऽघ्न्याम् । जा॒त: । वि॒ऽचृतो॑: । य॒मस्य॑ । मू॒ल॒ऽबर्ह॑णात् । परि॑ । पा॒हि॒ । ए॒न॒म् । अति॑ । ए॒न॒म् । ने॒ष॒त् । दु॒:ऽइ॒तानि॑ । विश्वा॑ । दी॒र्घा॒यु॒ऽत्वाय॑ । श॒तऽशा॑रदाय ॥११०.२॥
स्वर रहित मन्त्र
ज्येष्ठघ्न्यां जातो विचृतोर्यमस्य मूलबर्हणात्परि पाह्येनम्। अत्येनं नेषद्दुरितानि विश्वा दीर्घायुत्वाय शतशारदाय ॥
स्वर रहित पद पाठज्येष्ठऽघ्न्याम् । जात: । विऽचृतो: । यमस्य । मूलऽबर्हणात् । परि । पाहि । एनम् । अति । एनम् । नेषत् । दु:ऽइतानि । विश्वा । दीर्घायुऽत्वाय । शतऽशारदाय ॥११०.२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
ऐश्वर्य बढ़ाने के लिये उपदेश।
पदार्थ
(ज्येष्ठघ्न्याम्) ज्येष्ठ अर्थात् अतिवृद्ध वा उत्तम ब्रह्म को प्राप्त करनेवाली क्रिया में (जातः) प्रसिद्ध तू (विचृतोः) अन्धकार से छुड़ानेवाले, सूर्य और चन्द्रमा के (यमस्य) नियम के (मूलबर्हणात्) मूल छेदन से (एनम्) इस जीव को (परि पाहि) सब प्रकार बचा। (विश्वा) सब (दुरितानि) विघ्नों को (अति=अतीत्य) उल्लाँघ कर (शतशारदाय) सौ वर्षवाले (दीर्घायुत्वाय) दीर्घ जीवन के लिये (एनम्) इस [प्राणी] को (नेषत्) आप ले चलें ॥२॥
भावार्थ
मनुष्य श्रेष्ठजनों के अनुकरण से पुरुषार्थ के साथ विघ्नों को हटा कर सूर्य और चन्द्रमा के समान सदा नियम में चलकर यश प्राप्त करे ॥२॥
टिप्पणी
२−(ज्येष्ठघ्न्याम्) बहुलं छन्दसि। पा० ३।२।८८। इति ज्येष्ठ+हन् गतौ−क्विप्। ऋन्नेभ्यो ङीप्। पा० ४।१।५। इति ङीप्। अल्लोपोऽनः। पा० ६।४।१३४। इत्यकारलोपः। ज्येष्ठं वृद्धतमं प्रशस्यतमं वा ब्रह्म हन्ति प्राप्नोति यया तस्यां क्रियायाम् (जातः) प्रसिद्धः (विचृतोः) अ० २।८।१। अन्धकाराद् विमोचयित्रोः सूर्याचन्द्रमसोः (यमस्य) नियमस्य (मूलबर्हणात्) बर्ह हिंसायाम्−ल्युट्। मूलच्छेदनात् (परि) सर्वतः (पाहि) रक्ष (एनम्) जीवम् (अति) अतीत्य (एनम्) प्राणिनम् (नेषत्) नयतु भवान् (दुरितानि) विघ्नान् (विश्वा) सर्वाणि (दीर्घायुत्वाय) चिरकालजीवनाय (शतशारदाय) अ० १।३५।१। शतसम्वत्सरयुक्ताय ॥
विषय
सब दुरितों से दूर
पदार्थ
१. (ज्येष्ठज्याम्) = [हन् गतौ] अत्यन्त प्रशस्त क्रियाओं में (जात:) = प्रादुर्भूत हुए-हुए हे अग्ने! आप (एनम्) = अपने इस उपासक को (विचूतो: यमस्य) = [विमोचयित्रोः] अन्धकार से छुड़ानेवाले सूर्य-चन्द्र के नियम के (मूलबर्हणात्) = मूल छेदन से( परिपाहि) = बचाइए। प्रशस्त क्रियाओं में लगा हुआ उपासक अपने हृदय में आपके प्रकाश को देखता है। आप इस उपासक को सूर्य-चन्द्रमा के नियम को न तोड़ने के लिए प्रेरित कीजिए-'स्वस्तिपन्थामनु चरेम सूर्याचन्द्रमसाविव' सूर्य-चन्द्रमा की भाँति नियमित गति से मार्ग पर चलता हुआ यह उपासक कल्याण प्राप्त करता है। २. आप (एनम्) = इस उपासक को (विश्वा दुरितानि) = सब दुरितों-अशुभाचरणों से (अति) = उलाँधकर (शतशारदाय) = सौ वर्ष के (दीर्घायुत्वाय) = दीर्घ जीवन के लिए (नेषत्) = ले-चलिए।
भावार्थ
हम उत्तम क्रियाओं को करते हुए प्रभु के प्रकाश को देखें। प्रभु हमें सूर्य और चन्द्रमा की भौति नियमित गतिवाला बनाएँ और सब दुरितों को दूर करके हमें सौ वर्ष का दीर्घजीवन प्राप्त कराएँ।
भाषार्थ
(ज्येष्ठघ्न्याम्) जेठ का हनन करने वाली पत्नी में (जातः) पैदा हुआ, है, (एनम्) इसे (यमस्य) मृत्यु के (विचृतो:) विशिष्ट दो हिंसकों सम्बन्धी (मूल ईणात) मूल पुरुष की हिंसा से (परि पाहि) हे परमेश्वर ! [मन्त्र [१] तू सर्वतः सुरक्षित कर। (एनम्) इसे (विश्वा= विश्वानि, दुरितानि) सब दुष्फलों से (अतिनेषत्) वह परमेश्वर अतिक्रान्त करे, छुड़ा दे, (दीर्घायुत्वाय) दीर्घायु के लिये, (शतशारदाय) सौ शरद् ऋतुओं की प्राप्ति के लिये।
टिप्पणी
[मन्त्रोक्ति देवर की पत्नी की है। पत्नी है जेठ की पत्नी जिस ने कि जेठ का हनन किया है। उससे पुत्र पैदा हुआ है। उसकी सुरक्षा अभीष्ट है, क्योंकि वह मूलपुरुष है भावी वंश परम्परा का। विचृतौ हैं दो तत्त्व, जो कि उत्पन्न पुत्र के हिंसक हैं। वे हैं रजोगुण और तमोगुण। यथा 'रजस्तमो मोप गा मा प्रमेष्ठाः" (अथर्व० ८।२।१)। मन्त्र में ज्येष्ठ शब्द है, जिसे कि "जेठ" कहते हैं, "ज्येष्ठा" शब्द नहीं, जिस का अर्थ "ज्येष्ठा नक्षत्र" किया जा सके।]
विषय
सन्तान की रक्षा और सुशिक्षा।
भावार्थ
जिस स्त्री के प्रथम बालक उत्पन्न होकर मर जाय उसकी अन्य सन्तति की रक्षा करने का उपदेश करते हैं। (ज्येष्ठघ्न्यां) ज्येष्ठ = प्रथम बालक को खो चुकनेवाली मृतवत्सा स्त्री में यह बालक (जातः) उत्पन्न हुआ है, अथवा (विचृतोः) विशेष रूप से परस्पर मिले हुए दोनों बालकों में से या (यमस्य) युगल रूप से उत्पन्न हुए (एनम्) इस बालक को (मूल-बर्हणात्) नाभि में लगी नाड़ी के काटने के समय से ही (परि पाहि) रक्षा करो। (विश्वा दुरितानि) सब प्रकार के दुरित, दुष्ट उपचार, जो मां बाप या धाई की ओर से किये गये हों, उनको बालक से (अति नेषत्) दूर कर दो। जिससे वह (शतशारदाय दीर्घायुत्वाय) सौ बरस की लम्बी आयु जीवे।
टिप्पणी
सायण ने ‘ज्येष्ठघ्नी’ शब्द से ज्येष्ठा नक्षत्र ‘विचृत्’ से मूल नक्षत्र या जयेष्ठानक्षत्र का ग्रहण किया है, और मूल नक्षत्र या ज्येष्ठानक्षत्र में उत्पन्न बालक की रक्षा करने परक अर्थ किया है। सो असंगत है। वेद में फलित आदि असत्य बातों का होना सम्भव नहीं है।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। अग्निर्देवता। १ पंक्तिः। २-३ त्रिष्टुभौ। तृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
New Born Human
Meaning
Born in fulfilment of desire and prayer for achieving the best and highest is this child, this social order. Pray protect it against basic violation of the laws of yama and of the motions of refulgent sun and moon, taking it safely through all evils of the world to live a full life of hundred years.
Translation
He is born in the killer of the eldest (jyesthah ghanyam) to the two slayers (vicrtoh) of the controller (death); may protect him well from the uprooter. May you conduct him past all the calamities to the long life of a hundred autumns.
Translation
O learned teacher! you are well-accomplished in the knowledge of the eternal universal Soul, you are also well-versed in knowing the law of the solar and lunar operations, protect this man from his eradication, drive away from him all the evils and make him live long life lasting hundred autumns.
Translation
This child is born to a woman, whose first child has died. Preserve him from the uprooting effect of extremely terrible Death. He shall conduct him safe past all misfortunes to lengthened life that lasts a hundred autumns.
Footnote
He may refer to father.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२−(ज्येष्ठघ्न्याम्) बहुलं छन्दसि। पा० ३।२।८८। इति ज्येष्ठ+हन् गतौ−क्विप्। ऋन्नेभ्यो ङीप्। पा० ४।१।५। इति ङीप्। अल्लोपोऽनः। पा० ६।४।१३४। इत्यकारलोपः। ज्येष्ठं वृद्धतमं प्रशस्यतमं वा ब्रह्म हन्ति प्राप्नोति यया तस्यां क्रियायाम् (जातः) प्रसिद्धः (विचृतोः) अ० २।८।१। अन्धकाराद् विमोचयित्रोः सूर्याचन्द्रमसोः (यमस्य) नियमस्य (मूलबर्हणात्) बर्ह हिंसायाम्−ल्युट्। मूलच्छेदनात् (परि) सर्वतः (पाहि) रक्ष (एनम्) जीवम् (अति) अतीत्य (एनम्) प्राणिनम् (नेषत्) नयतु भवान् (दुरितानि) विघ्नान् (विश्वा) सर्वाणि (दीर्घायुत्वाय) चिरकालजीवनाय (शतशारदाय) अ० १।३५।१। शतसम्वत्सरयुक्ताय ॥
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