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अथर्ववेद के काण्ड - 6 के सूक्त 110 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 110/ मन्त्र 3
    ऋषिः - अथर्वा देवता - अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - दीर्घायु सूक्त
    48

    व्या॒घ्रेऽह्न्य॑जनिष्ट वी॒रो न॑क्षत्र॒जा जाय॑मानः सु॒वीरः॑। स मा व॑धीत्पि॒तरं॒ वर्ध॑मानो॒ मा मा॒तरं॒ प्र मि॑नी॒ज्जनि॑त्रीम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    व्या॒घ्रे । अह्नि॑ । अ॒ज॒नि॒ष्ट॒ । वी॒र: । न॒क्ष॒त्र॒ऽजा: । जाय॑मान: । सु॒ऽवी॑र: । स: । मा । व॒धी॒त् । पि॒तर॑म् । वर्ध॑मान: । मा । मा॒तर॑म् । प्र । मि॒नी॒त् । जनि॑त्रीम् ॥११०.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    व्याघ्रेऽह्न्यजनिष्ट वीरो नक्षत्रजा जायमानः सुवीरः। स मा वधीत्पितरं वर्धमानो मा मातरं प्र मिनीज्जनित्रीम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    व्याघ्रे । अह्नि । अजनिष्ट । वीर: । नक्षत्रऽजा: । जायमान: । सुऽवीर: । स: । मा । वधीत् । पितरम् । वर्धमान: । मा । मातरम् । प्र । मिनीत् । जनित्रीम् ॥११०.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 110; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    ऐश्वर्य बढ़ाने के लिये उपदेश।

    पदार्थ

    (वीरः) यह वीर पुरुष (नक्षत्रजाः) नक्षत्र के समान गति, उपाय उत्पन्न करनेवाला (सुवीरः) महावीर (जायमानः) होता हुआ (व्याघ्रे) व्याघ्र के समान बलवान् (अति) दिन में [माता-पिता के बल के समय] (अजनिष्ट) उत्पन्न हुआ है। (सः) वह (वर्धमानः) बढ़ता हुआ (पितरम्) पिता को (मा वधीत्) न मारे और (जनित्रीम्) जन्म देनेवाली (मातरम्) माता को (मा प्र मिनीत्) कभी न सतावे ॥३॥

    भावार्थ

    शूरवीर पुरुष सुशिक्षित बलवान् माता से जन्म पाकर उनको कष्ट से बचा कर सदा सुखी रख कर अपना सौभाग्य बढ़ावे ॥३॥

    टिप्पणी

    ३−(व्याघ्रे) अ० ४।२।१। सिंहो व्याघ्र इति पूजायाम् व्याघ्रो व्याघ्रणाद् व्यादाय हन्तीति वा−निरु० ३।१८। व्याघ्रतुल्ये बलवति (अह्नि) दिने। काले (अजनिष्ट) जातोऽभूत् (वीरः) वीर्योपेतः (नक्षत्रजाः) जनसनखनक्रमगमो विट्। पा० ३।२।६७। इति नक्ष+जन जनने विट्। विड्वनोरनुनासिकस्यात् पा० ६।४।४१। इत्यात्वम्। नक्षत्रसमानां गतिमुपायं जनयति यः सः (जायमानः) उत्पद्यमानः (सुवीरः) अतिशूरः (सः) (मा वधीत्) मा हन्तु (पितरम्) पालकं जनकम् (वर्धमानः) वृद्धिं कुर्वन् (मातरम्) मानकर्त्रीम् (मा प्र मिनीत्) मीञ् हिंसायाम्, लिङि सिपि छान्दसं रूपम्। मा प्र मीनीयात् न दुःखयेत् (जनित्रीम्) जनयित्रीम्। जननीम् ॥

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    विषय

    व्याघ्रे अन्हि

    पदार्थ

    १. व्याघ्रे = [प्रा गन्धोपादाने, गन्ध-सम्बन्ध] विशिष्ट सम्बन्ध का उपादान करनेवाले [त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिम्] (अन्हि) = [न जहाति] कभी भी हमें न छोड़नेवाले उस प्रभु में (वीरः अजनिष्ट) = वीर प्रादुर्भूत होता है। अन्य लोग विपत्ति में हमारा साथ छोड़ जाते हैं, परन्तु उस समय प्रभु के साथ हमारा सम्बन्ध और घनिष्ठ हो जाता है। प्रभु ही वस्तुतः हमारे माता और पिता हैं वे अपने इस सम्बन्ध को कभी छोड़ देंगे' ऐसी बात नहीं। हम ही उन्हें भूले रहते हैं। उस प्रभु में स्थित होनेवाला व्यक्ति बीर बनता है। यह (नक्षत्रजा:) = विज्ञान के नक्षत्रों में विकास प्रास करता हुआ (जायमान:) = उत्तरोत्तर शक्ति के प्रादुर्भाववाला (सुवीरः) = उत्तम वीर बनता है। २. (सः) = वह सुवीर (वर्धमान:) = वृद्धि को प्राप्त होता हुआ (पितरं मा वधीत्) = पिता का हिंसन करनेवाला न हो-पिता की बात को न माननेवाला न हो तथा (जनित्रीम्) = जन्म देनेवाली (मातरं मा प्रमिनीत्) = माता को हिंसित न करे-माता के अनुशासन में चले। 'प्रभु' पिता हैं, 'वेद' माता है। यह सुवीर प्रभु-प्रेरणा के अनुसार और वेद के आदेश के अनुसार आचरण करनेवाला हो।

    भावार्थ

    हम उस विशिष्ट सम्बन्धवाले, कभी भी हमारा साथ न छोड़नेवाले प्रभु में स्थित होते हुए 'वीर' बनें। विज्ञान के नक्षत्रों में दीस बनकर उत्तम वीर हों। माता-पिता के कहने में चलें-प्रभु की प्रेरणा और वेद के आदेश अनुसार ।

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    भाषार्थ

    (वीरः) वीर-पुत्र (व्याघ्र) व्याघ्र सदृश गर्म स्वभाव वाले (अहनि) दिन में (अजनिष्ट) पैदा हुआ है। (नक्षत्रजाः) अक्षतवीर्य-पिता से उत्पन्न हुआ वह (जायमानः) पैदा होता हुआ (सुवीरः) उत्तम वीर होता है। (स) वह (मा वधोत्) न वध करे (पितरम्) पिता का (वर्धमानः) आयु में बढ़ता हुआ, (मा)(जनित्रीम्) जन्मदात्री (मातरम्) माता की (प्रमिनीत्) हिंसा करे। मिनीत्= मी हिंसायाम् (क्र्यादिः)

    टिप्पणी

    [माता ने ज्येष्ठ अर्थात् देवर की पत्नी के जेठ का हनन किया है। (मन्त्र २), जिस से कि वीर या सुवीर पैदा हुआ है। सम्भवतः निज जन्म दात्री माता का बदला लेने की दृष्टि से वीर पुत्र उस के वध के लिए तय्यार हो जाय, अतः उसे कहा है कि जन्मदात्री माता की तू हिंसा न कर, और न पितृ समान सम्बन्धा किसी पिता का ही वध कर। नक्षत्रजाः= न+क्षतवीर्य + "र" वाले से+जा: (उत्पन्न); यथा "अथो नक्षत्राणामेषामुपस्थे सोम आहितः" (अथर्व० १४।१।२), सोम= उत्पादक वीर्य; semen जायमानः सुवीर:= अक्षतवीर्य पिता से उत्पन्न होता हुआ ही वह सुवीर रूप में पैदा होता है, वर्धमान होता हुआ वह निज सुवीरता को प्रकट करता है।] मन्त्र २ के प्रसिद्धार्थों में: (१) ज्येष्ठ= ज्येष्ठा नक्षत्र जो कि अथर्व० १९।७।३ के अनुसार १५वां नक्षत्र है। अथर्ववेद की नक्षत्र गणना कृत्तिका नक्षत्र से प्रारम्भ होता है। वर्तमान नक्षत्र गणनानुसार ज्येष्ठा १८वा नक्षत्र१ है। (२) विचृतौ= ये दो तारे हैं (काण्ड २।८।१; ३।७।४; ६।१२१।३)। इन की व्याख्याएं भी यथास्थान कर दी जायेंगी। ये दो तारे वृश्चिक राशि में हैं, मूलबर्हणात् (मन्त्र २) में मूलनक्षत्र भी वृश्चिक राशि की पूछ में स्थित है। काण्ड ६।२ में "विचृतो:" का, और "विचृतौ" दो ताराओं का परस्पर अर्थ में भेद है।] [१. अथर्ववेद में २८ नक्षत्र माने है। "अष्टाविंशनि शिवानि शामानि सहयोगं भजन्तु मे" (१९।८।२)। यतः अथर्ववेद में "अभिजित् " नक्षत्र माना है (१९।७।४)। नक्षत्र २७ माने जाते हैं।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    New Born Human

    Meaning

    This heroic brave is born at a time fit for a lion, a noble hero bearing the marks of favourable stars. When it grows up, comes of age and rises, let it not violate its father and founder, nor its mother, she gave it birth.

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    Translation

    This son is born on a tiger-day (vyaghre hnya). He is born at an auspicious moment. He is very brave from the very birth Growing up, may he not slay his father; may he not injure his mother who gave birth to him.

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    Translation

    A man born in the day of battle when the qualities of intrepidity possessed by a tiger are shown, is hero and thus becoming an unshakable brave man enjoys to stand as very strong warrior. Let him not wound his father and let him not disregard his mother who bare him when he grows to strength.

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    Translation

    A son born on a day when warriors display their tiger-like valour, is a hero indeed. He is born of celebate parents and hence becomes brave and courageous. Let him not wound, when grown in strength, his father, nor disregard his mother, who gave him birth.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−(व्याघ्रे) अ० ४।२।१। सिंहो व्याघ्र इति पूजायाम् व्याघ्रो व्याघ्रणाद् व्यादाय हन्तीति वा−निरु० ३।१८। व्याघ्रतुल्ये बलवति (अह्नि) दिने। काले (अजनिष्ट) जातोऽभूत् (वीरः) वीर्योपेतः (नक्षत्रजाः) जनसनखनक्रमगमो विट्। पा० ३।२।६७। इति नक्ष+जन जनने विट्। विड्वनोरनुनासिकस्यात् पा० ६।४।४१। इत्यात्वम्। नक्षत्रसमानां गतिमुपायं जनयति यः सः (जायमानः) उत्पद्यमानः (सुवीरः) अतिशूरः (सः) (मा वधीत्) मा हन्तु (पितरम्) पालकं जनकम् (वर्धमानः) वृद्धिं कुर्वन् (मातरम्) मानकर्त्रीम् (मा प्र मिनीत्) मीञ् हिंसायाम्, लिङि सिपि छान्दसं रूपम्। मा प्र मीनीयात् न दुःखयेत् (जनित्रीम्) जनयित्रीम्। जननीम् ॥

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