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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 12/ मन्त्र 1
सूक्त - गरुत्मान्
देवता - तक्षकः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - सर्पविषनिवारण सूक्त
परि॒ द्यामि॑व॒ सूर्योऽही॑नां॒ जनि॑मागमम्। रात्री॒ जग॑दिवा॒न्यद्धं॒सात्तेना॑ ते वारये वि॒षम् ॥
स्वर सहित पद पाठपरि॑ । द्याम्ऽइ॑व । सूर्य॑: । अही॑नाम् । जनि॑म । अ॒ग॒म॒म्। रात्री॑ । जग॑त्ऽइव । अ॒न्यत् । हं॒सात् । तेन॑ । ते॒ । वा॒र॒ये॒ । वि॒षम्॥१२.१॥
स्वर रहित मन्त्र
परि द्यामिव सूर्योऽहीनां जनिमागमम्। रात्री जगदिवान्यद्धंसात्तेना ते वारये विषम् ॥
स्वर रहित पद पाठपरि । द्याम्ऽइव । सूर्य: । अहीनाम् । जनिम । अगमम्। रात्री । जगत्ऽइव । अन्यत् । हंसात् । तेन । ते । वारये । विषम्॥१२.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 12; मन्त्र » 1
विषय - सर्पविष चिकित्सा।
भावार्थ -
(रात्रि) प्रलय-कालमय रात्रि जिस प्रकार (जगत् इव) जगत् को व्याप्त कर लेती है परन्तु (अन्यत् हंसात्) उससे भी परे विद्यमान हंस = परब्रह्म को वह व्याप्त नहीं करती, उसी प्रकार विष से उत्पन्न होने वाली रात्रि, तमोमय निद्रा या मूर्छा भी (हंसात् अन्यत्) हंस = आत्मा से अतिरिक्त शरीर को व्याप्त कर लेती है। (तेन) उसी विषनिवारक बल से मैं (ते विषम्) तेरे विष को (वारये) दूर करता हूं। और (द्याम् सूर्यः इव) द्यौलोक आकाश को जिस प्रकार सूर्य व्यापता है और (अहीनाम्) मेघों की (जनिम्) उत्पत्ति करता है उसी प्रकार मैं भी (अहींनां जनिम्) सर्पों की उत्पत्ति और उनके सब स्वरूपों को (आ गमम्) खूब अच्छी प्रकार जानता हूं।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - गरुत्मान् ऋषिः। तक्षको देवता। १-३ अनुष्टुभः। तृचं सूक्तम्।
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