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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 12

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 12/ मन्त्र 3
    सूक्त - गरुत्मान् देवता - तक्षकः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - सर्पविषनिवारण सूक्त

    मध्वा॑ पृञ्चे न॒द्यः पर्व॑ता गि॒रयो॒ मधु॑। मधु॒ परु॑ष्णी॒ शीपा॑ला॒ शमा॒स्ने अ॑स्तु॒ शं हृ॒दे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मध्वा॑ । पृ॒ञ्चे॒ । न॒द्य᳡: । पर्व॑ता: । गि॒रय॑: । मधु॑ । मधु॑ । परु॑ष्णी । शीपा॑ला । शम् । आ॒स्ने । अ॒स्तु॒ । शम् । हृ॒दे ॥१२.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मध्वा पृञ्चे नद्यः पर्वता गिरयो मधु। मधु परुष्णी शीपाला शमास्ने अस्तु शं हृदे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मध्वा । पृञ्चे । नद्य: । पर्वता: । गिरय: । मधु । मधु । परुष्णी । शीपाला । शम् । आस्ने । अस्तु । शम् । हृदे ॥१२.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 12; मन्त्र » 3

    भावार्थ -
    (मध्वा) मधु से मैं (पृञ्चे) रोगी को जोड़ता हूं। (नद्यः) नदियां (पर्वताः) पर्वत और (गिरयः) छोटे छोटे टीले ये सब (मधु) मधु हैं। इनमें सर्प-विषों को दूर करने की औषधियां प्राप्त होती हैं। और (शीपाला) शैवालवाली, शान्त, गम्भीर और (परुष्णी) झुकाव झुकाव पर बहती हुई जलधारा भी (मधु) उत्तम मधु = अमृत है। इन उपायों से (आस्ने) मुख के लिए (शम्) शान्ति हो और (हृदे शम्) हृदय में भी कल्याण और शान्ति उत्पन्न (अस्तु) हो।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - गरुत्मान् ऋषिः। तक्षको देवता। १-३ अनुष्टुभः। तृचं सूक्तम्।

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