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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 15

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 15/ मन्त्र 2
    सूक्त - उद्दालक देवता - वनस्पतिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - शत्रुनिवारण सूक्त

    सब॑न्धु॒श्चास॑बन्धुश्च॒ यो अ॒स्माँ अ॑भि॒दास॑ति। तेषां॒ सा वृ॒क्षाणा॑मिवा॒हं भू॑यासमुत्त॒मः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सऽब॑न्धु: । च॒ । अस॑बन्धु: । च॒ । य: । अ॒स्मान् । अ॒भि॒ऽदास॑ति । तेषा॑म् । सा । वृ॒क्षाणा॑म्ऽइव । अ॒हम् । भू॒या॒स॒म् । उ॒त्ऽत॒म: ॥१५.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सबन्धुश्चासबन्धुश्च यो अस्माँ अभिदासति। तेषां सा वृक्षाणामिवाहं भूयासमुत्तमः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सऽबन्धु: । च । असबन्धु: । च । य: । अस्मान् । अभिऽदासति । तेषाम् । सा । वृक्षाणाम्ऽइव । अहम् । भूयासम् । उत्ऽतम: ॥१५.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 15; मन्त्र » 2

    भावार्थ -
    (स बन्धुः च) हमारा बन्धु और (अबन्धुः च) वह जो हमारा सम्बन्धी नहीं है (यः) जो कोई भी (अस्मान्) हमें (अभिदासति) विनाश करना चाहता है, हमसे द्वेष बुद्धि करता है (वृक्षाणां सा इव) वृक्षों में से जिस प्रकार ओषधि उत्तम है और देहधारियों में जैसे वह ब्रह्मोषधि उत्तम है, उसी प्रकार (तेषां) उन सम्बन्धी और असम्बन्धी लोगों में (अहम्) मैं उत्तम (भूयासम्) हो जाऊं।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - उद्दालक ऋषिः। वनस्पतिर्देवता। अनुष्टुप्। तृचं सूक्तम्॥

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