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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 17

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 17/ मन्त्र 4
    सूक्त - अथर्वा देवता - गर्भदृंहणम्, पृथिवी छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - गर्भदृंहण सूक्त

    यथे॒यं पृ॑थि॒वी म॒ही दा॒धार॒ विष्ठि॑तं॒ जग॑त्। ए॒वा ते॑ ध्रियतां॒ गर्भो॒ अनु॒ सूतुं॒ सवि॑तवे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यथा॑ । इ॒यम् । पृ॒थि॒वी । म॒ही । दा॒धार॑ । विऽस्थि॑तम् । जग॑त् । ए॒व । ते॒ । ध्रि॒य॒ता॒म् । गर्भ॑: । अनु॑ । सूतु॑म् । सवि॑तवे ॥१७.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यथेयं पृथिवी मही दाधार विष्ठितं जगत्। एवा ते ध्रियतां गर्भो अनु सूतुं सवितवे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यथा । इयम् । पृथिवी । मही । दाधार । विऽस्थितम् । जगत् । एव । ते । ध्रियताम् । गर्भ: । अनु । सूतुम् । सवितवे ॥१७.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 17; मन्त्र » 4

    भावार्थ -
    (यथा इयम् मही पृथिवी) जिस प्रकार यह विशाल पृथिवी (विष्ठितम् जगत्) नाना प्रकार से विभक्त, व्यवस्थित चर अचर जीवित संसार को (दाधार) पालन पोषण करती है, सब को अन्न देती और पालती है (एवा ते ध्रियताम् गर्भः) इसी प्रकार हे स्त्रि ! तेरा गर्भ पालित पोषित रहे, मरे न, जिससे (अनु सूतुं सवितचे) बाद में पुत्र सन्तति उत्पन्न हो।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अथर्वा ऋषिः। गर्भगृहणं देवता। अनुष्टुप्। चतुर्ऋचं सूक्तम्॥

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