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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 23

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 23/ मन्त्र 1
    सूक्त - शन्ताति देवता - आपः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - अपांभैषज्य सूक्त

    स॒स्रुषी॒स्तद॒पसो॒ दिवा॒ नक्तं॑ च स॒स्रुषीः॑। वरे॑ण्यक्रतुर॒हम॒पो दे॒वीरुप॑ ह्वये ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒स्रुषी॑: । तत् । अ॒पस॑: । दिवा॑ । नक्त॑म्। च॒ । स॒स्रुषी॑: । वरे॑ण्यऽक्रतु । अ॒हम् । अ॒प: । दे॒वी: । उप॑ । ह्व॒ये॒ ॥२३.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सस्रुषीस्तदपसो दिवा नक्तं च सस्रुषीः। वरेण्यक्रतुरहमपो देवीरुप ह्वये ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सस्रुषी: । तत् । अपस: । दिवा । नक्तम्। च । सस्रुषी: । वरेण्यऽक्रतु । अहम् । अप: । देवी: । उप । ह्वये ॥२३.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 23; मन्त्र » 1

    भावार्थ -
    (तत्) उस अनादि अनन्त जीवन-रस को (सखुषीः) निरन्तर बहानेवाली (अपसः) ब्रह्माण्ड निर्मापक शक्तिधाराएं या जलधाराएं (दिवा नक्तं च) रात और दिन (सखुषीः) बहनेवाली जलधाराओं के समान बराबर चलती ही रहती हैं। (वरेण्य क्रतुः) सब से वरण करने योग्य क्रतु = ज्ञान और कर्म से युक्त (अपः) व्यापक प्रकृति शक्तियों को (उप-ह्वये) अपने समीप ही अपनी हुकूमत में रखता हूँ। अथवा—मैं (वरेण्य-क्रतुः) उत्तम ज्ञान और कर्मवाला पुरुष उन दिव्य शक्तिसम्पन्न (अपः) जलों को (उप-ह्वये) अपने कलायन्त्रादि द्वारा अधीन रखता हूं।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - शन्तातिर्ऋषिः। आपो देवताः। १ अनुष्टुप्। २ त्रिपदा गायत्री। ३ परोष्णिक्। तृचं सूक्तम्॥

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