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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 55/ मन्त्र 2
ग्री॒ष्मो हे॑म॒न्तः शिशि॑रो वस॒न्तः श॒रद्व॒र्षाः स्वि॒ते नो॑ दधात। आ नो॒ गोषु॒ भज॒ता प्र॒जायां॑ निवा॒त इद्वः॑ शर॒णे स्या॑म ॥
स्वर सहित पद पाठग्री॒ष्म: । हे॒म॒न्त: । शिशि॑र: । व॒स॒न्त: । श॒रत् । व॒र्षा: । सु॒ऽइ॒ते । न॒: । द॒धा॒त॒ । आ । न॒: । गोषु॑ । भज॑त । आ । प्र॒ऽजाया॑म् । नि॒ऽवा॒ते । इत् । व॒: । श॒र॒णे । स्या॒म॒ ॥५५.२॥
स्वर रहित मन्त्र
ग्रीष्मो हेमन्तः शिशिरो वसन्तः शरद्वर्षाः स्विते नो दधात। आ नो गोषु भजता प्रजायां निवात इद्वः शरणे स्याम ॥
स्वर रहित पद पाठग्रीष्म: । हेमन्त: । शिशिर: । वसन्त: । शरत् । वर्षा: । सुऽइते । न: । दधात । आ । न: । गोषु । भजत । आ । प्रऽजायाम् । निऽवाते । इत् । व: । शरणे । स्याम ॥५५.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 55; मन्त्र » 2
विषय - उत्तम मार्गों से जाने और सुख से जीवन व्यतीत करने का उपदेश।
भावार्थ -
काल पर विचार करके उससे उपस्थित विपत्तियों से बच कर सुखपूर्वक जीवन निर्वाह करने का उपदेश करते हैं। (ग्रीष्मः हेमन्तः शिशिरः वसन्तः शरद् वर्षा) ग्रीष्म, हेमन्त, शिशिर, वसन्त शरद और वर्षाकाल ये छः ऋतु हैं। हे छहों ऋतुझो ! तुम (नः) हमें (स्विते) सुख से गुजरने वाले जीवन में ही (दधातु) रखो। कभी कष्ट में न डालो। (नः) और हमारे (गोषु) गवादि पशुओं और (प्रजायाम्) प्रजा-पुत्र आदि में भी (आ भजत) सुख का वितरण करो। हम सदा (व: निवाते) प्रबल वायु के झकोरों या उपद्रवों से रहित आप (शरणे) छहों ऋतुओं के अनुकूल घर में (स्याम) रहें, निवास करें।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ब्रह्मा ऋषिः। १ विश्वेदेवा देवताः, २, ३ रुद्रः। १, ३ जगत्यौ, २ त्रिष्टुप्॥
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