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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 62/ मन्त्र 3
वै॑श्वान॒रीं वर्च॑स॒ आ र॑भध्वं शु॒द्धा भव॑न्तः॒ शुच॑यः पाव॒काः। इ॒हेड॑या सध॒मादं॒ मद॑न्तो॒ ज्योक्प॑श्येम॒ सूर्य॑मु॒च्चर॑न्तम् ॥
स्वर सहित पद पाठवै॒श्वा॒न॒रीम् । वर्च॑से । आ । र॒भ॒ध्व॒म् । शु॒ध्दा: । भव॑न्त: । शुच॑य: । पा॒व॒का: । इ॒ह । इड॑या । स॒ध॒ऽमाद॑म् । मद॑न्त: । ज्योक् । प॒श्ये॒म॒ । सूर्य॑म् । उ॒त्ऽचर॑न्तम् ॥६२.३॥
स्वर रहित मन्त्र
वैश्वानरीं वर्चस आ रभध्वं शुद्धा भवन्तः शुचयः पावकाः। इहेडया सधमादं मदन्तो ज्योक्पश्येम सूर्यमुच्चरन्तम् ॥
स्वर रहित पद पाठवैश्वानरीम् । वर्चसे । आ । रभध्वम् । शुध्दा: । भवन्त: । शुचय: । पावका: । इह । इडया । सधऽमादम् । मदन्त: । ज्योक् । पश्येम । सूर्यम् । उत्ऽचरन्तम् ॥६२.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 62; मन्त्र » 3
विषय - आभ्यन्तर शुद्धि का उपदेश।
भावार्थ -
(वैश्वानरीम्) उस परमात्मा सम्बन्धी वेदवाणी को हे विद्वान् पुरुषो ! (शुचयः) मन और शरीर से = शुचि पवित्र और (पावकाः) औरों को भी पवित्र करने में समर्थ, (शुद्धाः भवन्तः) और शुद्ध होकर (वर्चसे आ रभध्वम्) बल वीर्य प्राप्त करने के लिये अभ्यास किया करो। और (इह) इस संसार में (इडया) अन्न से (सधमादं मदन्तः) एक ही साथ हर्ष उत्सव का आनन्द लेते हुए हम सब (ज्योक्) चिरकाल तक (उत्-चरन्तम्) ऊपर उठते हुए (सूर्यम्) सूर्य को (पश्येम) देखा करें। शुद्ध पवित्र होकर वेद का अभ्यास करें परस्पर मिलकर अन्न का भोग करें और दीर्घजीवन निभावें।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अथर्वा ऋषिः। रुद्र उत मन्त्रोक्ता देवता। त्रिष्टुभः। तृचं सूक्तम्॥
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