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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 63/ मन्त्र 1
सूक्त - द्रुह्वण
देवता - निर्ऋतिः
छन्दः - जगती
सूक्तम् - वर्चोबलप्राप्ति सूक्त
यत्ते॑ दे॒वी निरृ॑तिराब॒बन्ध॒ दाम॑ ग्री॒वास्व॑विमो॒क्यं यत्। तत्ते॒ वि ष्या॒म्यायु॑षे॒ वर्च॑से॒ बला॑यादोम॒दमन्न॑मद्धि॒ प्रसू॑तः ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । ते॒ । दे॒वी । नि:ऽऋ॑ति: । आ॒ऽब॒बन्ध॑ । दाम॑ । ग्री॒वासु॑ । अ॒वि॒ऽमो॒क्यम् । यत् । तत् । ते॒ । वि । स्या॒मि॒ । आयु॑षे । वर्च॑से । बला॑य । अ॒दो॒म॒दम् । अन्न॑म् । अ॒ध्दि॒। प्रऽसू॑त: ॥६३.१॥
स्वर रहित मन्त्र
यत्ते देवी निरृतिराबबन्ध दाम ग्रीवास्वविमोक्यं यत्। तत्ते वि ष्याम्यायुषे वर्चसे बलायादोमदमन्नमद्धि प्रसूतः ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । ते । देवी । नि:ऽऋति: । आऽबबन्ध । दाम । ग्रीवासु । अविऽमोक्यम् । यत् । तत् । ते । वि । स्यामि । आयुषे । वर्चसे । बलाय । अदोमदम् । अन्नम् । अध्दि। प्रऽसूत: ॥६३.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 63; मन्त्र » 1
विषय - अविद्या-पाश का छेदन।
भावार्थ -
हे पापी पुरुष ! (ते निर्ऋतिः) निरुद्ध-ऋति अर्थात् सत्यगति या ज्ञानमय आचरण से शून्य, अविद्या ने (देवी) तुझे लुभानेवाली होकर (यत् दाम) जिस बन्धन को (ते) तेरी (ग्रीवासु) गर्दनों में (आ बबन्ध) बांध रक्खा है और (यत्) जो (अ विमोक्यम्) सहज में नहीं छूटता। उसको भी मैं (ते) तेरी (आयुषे) आयु (वर्चसे) तेज और (बलाय) बल वृद्धि के लिये (वि श्यामि) काटकर दूर करता हूं। तू इस प्रकार (प्रसूतः) उत्कृष्ट मार्ग में प्रेरित होकर अथवा उत्कृष्ट विद्यायोनि से उत्पन्न होकर (अदो-मदम्) अमुक-परलोक में हर्षप्रम, सुखदायक (अन्नम्) इस ज्ञानमय अन्न, परम सुख का (अद्धि) उपभोग कर।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - द्रुहण ऋषिः। निर्ऋतिर्देवता। अग्निः। १ अतिजगतीगर्भा जगती, २, ३ जगत्यौ ४ अनुष्टुप्। चतुर्ऋचं सूक्तम्॥
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