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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 68

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 68/ मन्त्र 2
    सूक्त - अथर्वा देवता - अदितिः, आपः, प्रजापतिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - वपन सूक्त

    अदि॑तिः॒ श्मश्रु॑ वप॒त्वाप॑ उन्दन्तु॒ वर्च॑सा। चिकि॑त्सतु प्र॒जाप॑तिर्दीर्घायु॒त्वाय॒ चक्ष॑से ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अदि॑ति: । श्मश्रु॑। व॒प॒तु॒ । आप॑: । उ॒न्द॒न्तु॒ । वर्च॑सा । चिकि॑त्सतु । प्र॒जाऽप॑ति: । दी॒र्घा॒यु॒ऽत्वाय॑ । चक्ष॑से ॥६८.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अदितिः श्मश्रु वपत्वाप उन्दन्तु वर्चसा। चिकित्सतु प्रजापतिर्दीर्घायुत्वाय चक्षसे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अदिति: । श्मश्रु। वपतु । आप: । उन्दन्तु । वर्चसा । चिकित्सतु । प्रजाऽपति: । दीर्घायुऽत्वाय । चक्षसे ॥६८.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 68; मन्त्र » 2

    भावार्थ -
    (अदितिः) आदित्य = सूर्य जिस प्रकार अन्धकार को काट डालता है उसी प्रकार अदिति = अखण्ड, तीक्ष्ण छुरे की धार (श्मश्रु) सिर के बालों को (वपतु) काट दे। और ज्ञानी (आपः) आप्त पुरुष जिस प्रकार (वर्चसा) तेज से हृदय को आर्द्र कर देते हैं उसी प्रकार (आपः) ये जल केशों को गीला कर दें। (प्रजापतिः) प्रजा का स्वामी परमात्मा जिस प्रकार सबको चक्षु देता और दीर्घ-जीवन देता है उसी प्रकार (प्रजापतिः) नाई भी वैद्य के समान जरीही द्वारा, अथवा फोड़ा फुंसी के रोग से बचाये रखने के लिये (चक्षसे) चक्षु की दर्शनशक्ति की वृद्धि और (दीर्घायुत्वाय) दीर्घजीवन के लिये (चिकित्सतु) रोग से बचाये रक्खे।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अथर्वा ऋषिः। मन्त्रोक्ता देवता। १ पुरोविराडतिशक्करीगर्भा चतुष्पदा जगती,२ अनुष्टुप्, ३ अति जगतीगर्भा त्रिष्टुप्। तृचं सूक्तम्॥

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