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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 68/ मन्त्र 3
सूक्त - अथर्वा
देवता - सविता, सोमः, वरुणः
छन्दः - अतिजगतीगर्भा त्रिष्टुप्
सूक्तम् - वपन सूक्त
येनाव॑पत्सवि॒ता क्षु॒रेण॒ सोम॑स्य॒ राज्ञो॒ वरु॑णस्य वि॒द्वान्। तेन॑ ब्रह्माणो वपते॒दम॒स्य गोमा॒नश्व॑वान॒यम॑स्तु प्र॒जावा॑न् ॥
स्वर सहित पद पाठयेन॑ । अव॑पत् । स॒वि॒ता । क्षु॒रेण॑ । सोम॑स्य । राज्ञ॑: । वरु॑णस्य । वि॒द्वान् । तेन॑ । ब्र॒ह्मा॒ण॒: । व॒प॒त॒ । इ॒दम् । अ॒स्य । गोऽमा॑न् । अश्व॑ऽवान् । अ॒यम् । अ॒स्तु॒ । प्र॒जाऽवा॑न् ॥६८.३॥
स्वर रहित मन्त्र
येनावपत्सविता क्षुरेण सोमस्य राज्ञो वरुणस्य विद्वान्। तेन ब्रह्माणो वपतेदमस्य गोमानश्ववानयमस्तु प्रजावान् ॥
स्वर रहित पद पाठयेन । अवपत् । सविता । क्षुरेण । सोमस्य । राज्ञ: । वरुणस्य । विद्वान् । तेन । ब्रह्माण: । वपत । इदम् । अस्य । गोऽमान् । अश्वऽवान् । अयम् । अस्तु । प्रजाऽवान् ॥६८.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 68; मन्त्र » 3
विषय - केश-मुण्डन और नापितकर्म का उपदेश।
भावार्थ -
(सविता) सूर्य (येन) जिस प्रकार के (क्षुरेण) ज्योतिर्मय छुरे से (राज्ञः सोमस्य) राजा अर्थात् प्रकाशमान सोम अर्थात् चन्द्र के अन्धकार को (अवपत्) छिन्न भिन्न करता है और (विद्वान्) विद्यावान् आचार्य (येन क्षुरेण) जिस उपदेशमय क्षुर = उपदेश से और सञ्चय के उपाय से (वरुणस्य) राजा के अज्ञान को (अवपत्) छिन्न भिन्न करता है (तेन) उसी ज्ञान और ज्योतिर्मय उपदेश और प्रकाश के छुरे से, हे (ब्रह्माणः) ब्राह्मण, विद्वान् पुरुषो ! (अस्य) इस अपने शिष्य के (इदम्) इस अज्ञान अन्धकार को भी (वपत) छिन्न भिन्न करो। उसी के साथ साथ छूरे से आरोग्य और दीर्घ जीवन के लिये बालों को भी काटा करो, जिससे (अयम्) यह राजा और शिष्य (गोमान्) गो = ज्ञानेन्द्रियों से युक्त और (अश्ववान्) अश्व = कर्मेन्द्रियों से युक्त और (प्रजावान्) उत्तम सन्तान से भी युक्त हो।
जिस प्रकार सूर्य चन्द्र अन्धकार को दूर करता है और उसमें ज्योतिर्मय धन का वितरण करता है या जिस प्रकार विद्वान् मन्त्री राजा के ऊपर के संकटों को दूर करता है और विशेष उपाय से सावधान होकर के उसकी समृद्धि बढ़ाता है उसी प्रकार आचार्य ज्ञानद्वारा शिष्य के अज्ञान को हटावे, छुरे से बालों को दूर करे, उसके ज्ञान आरोग्य और दीर्घ जीवन की वृद्धि करे।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अथर्वा ऋषिः। मन्त्रोक्ता देवता। १ पुरोविराडतिशक्करीगर्भा चतुष्पदा जगती,२ अनुष्टुप्, ३ अति जगतीगर्भा त्रिष्टुप्। तृचं सूक्तम्॥
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