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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 81/ मन्त्र 1
य॒न्तासि॒ यच्छ॑से॒ हस्ता॒वप॒ रक्षां॑सि सेधसि। प्र॒जां धनं॑ च गृह्णा॒नः प॑रिह॒स्तो अ॑भूद॒यम् ॥
स्वर सहित पद पाठय॒न्ता । अ॒सि॒ । यच्छ॑से । हस्तौ॑ । अप॑ ।रक्षां॑सि । से॒ध॒सि॒ । प्र॒ऽजाम् । धन॑म् । च॒ । गृ॒ह्णा॒न: । प॒रि॒ऽह॒स्त: । अ॒भू॒त् । अ॒यम् ॥८१.१॥
स्वर रहित मन्त्र
यन्तासि यच्छसे हस्तावप रक्षांसि सेधसि। प्रजां धनं च गृह्णानः परिहस्तो अभूदयम् ॥
स्वर रहित पद पाठयन्ता । असि । यच्छसे । हस्तौ । अप ।रक्षांसि । सेधसि । प्रऽजाम् । धनम् । च । गृह्णान: । परिऽहस्त: । अभूत् । अयम् ॥८१.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 81; मन्त्र » 1
विषय - पति पत्नी का पाणि-ग्रहण, सन्तानोत्पादन कर्त्तव्यों का उपदेश।
भावार्थ -
पत्नी कहती है—हे पते ! (यन्ता असि) तू यन्ता, नियामक अर्थात् अपने आपको नियमों में रखने वाला है। (हस्तौ) तू अपने हाथों का सहारा (यच्छ से) मुझे देता है। (रक्षांसि) हमारे गृहस्थ के विघ्नकारी पुरुषों को (अप सेधसि) दूर करता है। इसी कार्य से (अयम्) यह मेरा पति (परिहस्तः) मुझे अपने हाथ का सहारा देने वाला होकर (प्रजाम्) मेरी भावी सन्तान और (धनं च) धन को (गृह्णानः) स्वीकार करने का अधिकारी (अभूत्) हो।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - त्वष्टा ऋषिः। मन्त्रोक्ता उत आदित्यो देवता। अनुष्टुभः। तृचं सूक्तम्।
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