Loading...
अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 81

काण्ड के आधार पर मन्त्र चुनें

  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 81/ मन्त्र 2
    सूक्त - अथर्वा देवता - आदित्यः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - गर्भाधान सूक्त

    परि॑हस्त॒ वि धा॑रय॒ योनिं॒ गर्भा॑य॒ धात॑वे। मर्या॑दे पु॒त्रमा धे॑हि॒ तं त्वमा ग॑मयागमे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    परि॑ऽहस्त । वि । धा॒र॒य॒ । योनि॑म् । गर्भा॑य । धात॑वे । मर्या॑दे । पु॒त्रम् । आ । धे॒हि॒ । तम् । त्वम् । आ । ग॒म॒य॒ । आ॒ऽग॒मे॒ ॥८१.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    परिहस्त वि धारय योनिं गर्भाय धातवे। मर्यादे पुत्रमा धेहि तं त्वमा गमयागमे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    परिऽहस्त । वि । धारय । योनिम् । गर्भाय । धातवे । मर्यादे । पुत्रम् । आ । धेहि । तम् । त्वम् । आ । गमय । आऽगमे ॥८१.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 81; मन्त्र » 2

    भावार्थ -
    (परि-हस्त) जाया या पत्नी का हस्त ग्रहण करने वाले हे पते ! तू (योनिम्) पुत्रों को उत्पन्न करने वाली स्त्री का (गर्भाय) गर्भगत सन्तान के (धातवे) धारण कराने और पोषण करने के लिये (वि धारय) विशेष रूप से पालन कर। पति अपनी पत्नी को आज्ञा देता है कि हे (मर्यादे) मर्यादा में रहने वाली वा ‘मर्य’ पुरुष को अपनाने वाली पत्नि ! तू (पुत्रम्) पुत्र को (आधेहि) धारण कर। (तम्) और उस पुत्र को (आगमे) मेरे सहवास में (आगमय) उत्पन्न कर अथवा (तम् आगमे आगमय) उस पुत्र को आगम अर्थात् उत्पन्न होने के उचित अवसर पर जब शरीर की स्वाभाविक प्रवृत्ति उत्पन्न करने की आज्ञा दे तब उत्पन्न कर।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - त्वष्टा ऋषिः। मन्त्रोक्ता उत आदित्यो देवता। अनुष्टुभः। तृचं सूक्तम्।

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top