Sidebar
अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 84/ मन्त्र 2
सूक्त - अङ्गिरा
देवता - निर्ऋतिः
छन्दः - त्रिपदार्षी बृहती
सूक्तम् - निर्ऋतिमोचन सूक्त
भूते॑ ह॒विष्म॑ती भवै॒ष ते॑ भा॒गो यो अ॒स्मासु॑। मु॒ञ्चेमान॒मूनेन॑सः॒ स्वाहा॑ ॥
स्वर सहित पद पाठभूते॑ । ह॒विष्म॑ती । भ॒व॒ । ए॒ष: । ते॒ । भा॒ग: । य: । अ॒स्मासु॑ । मु॒ञ्च । इ॒मान् । अ॒मून् । एन॑स: । स्वाहा॑ ॥८४.२॥
स्वर रहित मन्त्र
भूते हविष्मती भवैष ते भागो यो अस्मासु। मुञ्चेमानमूनेनसः स्वाहा ॥
स्वर रहित पद पाठभूते । हविष्मती । भव । एष: । ते । भाग: । य: । अस्मासु । मुञ्च । इमान् । अमून् । एनस: । स्वाहा ॥८४.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 84; मन्त्र » 2
विषय - आपत्ति और कष्टों के पापों से मुक्त होने की प्रार्थना।
भावार्थ -
हे भूते ! संभूते ! आत्मा के देह में उत्पन्न होने के कारणरूप ! तू (हविष्मती) हवि अर्थात् अन्न, व भोग्य पदार्थों से सम्पन्न (भव) हो। (एषः) यही (ते) तेरा (भागः) भाग = सेवन करने योग्य यथार्थ है (यः) जो (अस्मासु) हम प्राणियों में विद्यमान है (इमान्) इन इहलोक के वासी और (अमून्) उन; उस लोक में शरीर छोड़कर जाने वाले सब जीवों को (एनसः) पाप से (मुञ्च) मुक्त कर, (स्वाहा) हमारी यही उत्तम प्रार्थना है। प्राणी उत्पन्न हों तो उनकों उत्तम अन्न आदि भोग्य पदार्थ प्राप्त हों। और वे सब जीव कुप्रवृत्ति से मुक्त होकर पाप से दूर रहें।
टिप्पणी -
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अङ्गिरा ऋषिः। निर्ऋतिर्देवता। १ भुरिक् जगती। २ त्रिपदा आर्ची बृहती। ३ जगती। ४ भुरिक् त्रिष्टुप्। चतृऋचं सूक्तम्॥
इस भाष्य को एडिट करें