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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 9/ मन्त्र 3
यासां॒ नाभि॑रा॒रेह॑णं हृ॒दि सं॒वन॑नं कृ॒तम्। गावो॑ घृ॒तस्य॑ मा॒तरो॒ऽमूं सं वा॑नयन्तु मे ॥
स्वर सहित पद पाठयासा॑म् । नाभि॑: । आ॒ऽरेह॑णम् । हृ॒दि। स॒म्ऽवन॑नम् । कृ॒तम् । गाव॑: । घृ॒तस्य॑ । मा॒तर॑: । अ॒भूम् । सम् । व॒न॒य॒न्तु॒ । मे॒ ॥९.३॥
स्वर रहित मन्त्र
यासां नाभिरारेहणं हृदि संवननं कृतम्। गावो घृतस्य मातरोऽमूं सं वानयन्तु मे ॥
स्वर रहित पद पाठयासाम् । नाभि: । आऽरेहणम् । हृदि। सम्ऽवननम् । कृतम् । गाव: । घृतस्य । मातर: । अभूम् । सम् । वनयन्तु । मे ॥९.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 9; मन्त्र » 3
विषय - स्त्री पुरुषों का परस्पर प्रेम करने का कर्तव्य।
भावार्थ -
(यासां) जिनका (आ-रेहणं) चुम्बन भी (नाभिः) उनको बांधने वाला है और वही मानो (हृदि) हृदय में एक (संवननम्) परस्पर एक दूसरे को स्वीकार करने का उपाय (कृतम्) किया गया है। (घृतस्य) धृत के समान स्नेहमय प्रेम की (मातरः) उत्पन्न करने वाली (मातरः) माताएं ही, (गावः) जो कि गौवों के समान स्नेहमय चक्षुओं से देखने वाली हैं (अमूं) इस प्रियतमा को (मे) मेरी तरफ़ (सं वानयन्तु) प्रेमपूर्वक प्रेरित करें।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - जमदग्निर्ऋषिः। कामात्मा देवता। १-३ अनुष्टुभः। तृचं सूक्तम्॥
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