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अथर्ववेद के काण्ड - 6 के सूक्त 9 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 9/ मन्त्र 3
    ऋषिः - जमदग्नि देवता - गोसमूहः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - कामात्मा सूक्त
    149

    यासां॒ नाभि॑रा॒रेह॑णं हृ॒दि सं॒वन॑नं कृ॒तम्। गावो॑ घृ॒तस्य॑ मा॒तरो॒ऽमूं सं वा॑नयन्तु मे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यासा॑म् । नाभि॑: । आ॒ऽरेह॑णम् । हृ॒दि। स॒म्ऽवन॑नम् । कृ॒तम् । गाव॑: । घृ॒तस्य॑ । मा॒तर॑: । अ॒भूम् । सम् । व॒न॒य॒न्तु॒ । मे॒ ॥९.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यासां नाभिरारेहणं हृदि संवननं कृतम्। गावो घृतस्य मातरोऽमूं सं वानयन्तु मे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यासाम् । नाभि: । आऽरेहणम् । हृदि। सम्ऽवननम् । कृतम् । गाव: । घृतस्य । मातर: । अभूम् । सम् । वनयन्तु । मे ॥९.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 9; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    गृहस्थ आश्रम का उपदेश।

    पदार्थ

    (यासाम्) जिन [स्त्रियों] के (हृदि) हृदय में (नाभिः) स्नेह, (आरेहणम्) प्रशंसा और (संवननम्) भक्ति (कृतम्) की गयी है, (घृतस्य) घृत की (मातरः) बनानेवाली (गावः) गौएँ (अमूम्) उस [पत्नी] को (मे) मेरे लिये (सम्) यथावत् (वनयन्तु) सेवन करें ॥३॥

    भावार्थ

    जहाँ पर पति-पत्नी प्रीतिपूर्वक रहते हैं, वहाँ घृत दुग्ध आदि पदार्थों की बहुतायत होती है ॥३॥

    टिप्पणी

    ३−(यासाम्) आदरार्थं बहुवचनम्। स्त्रीणाम् (नाभिः) बन्धनम्। स्नेहः (आरेहणम्) रिह कत्थने−ल्युट्। प्रशंसनम् (हृदि) हृदये (संवननम्) संभक्तिः (कृतम्) निष्पादितम् (गावः) धेनवः (घृतस्य) आज्यादिपदार्थस्य (मातरः) निर्मात्र्यः (अमूम्) पत्नीम् (सम्) सम्यक् (वानयन्तु) दीर्घश्छान्दसः। संभजन्ताम्। सेवन्ताम् (मे) मदर्थम् ॥

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    विषय

    नाभिः आरेहणं हदि संवननम्

    पदार्थ

    १. (यासाम्) = जिनका नाभि:-[गह बन्धने] बन्धन भी (आरेहणम्) = आनन्द देनेवाला है, जिसके ह्दि = हृदय में (संवननम्)= प्रेम की सेवा-संभजन (कृतम्) = उत्पन्न की गई है, (अमूम्) = उसे ये (घृतस्य मातर:) = ज्ञानदीप्ति का निर्माण करनेवाली (गावः) = वेदवाणियों में (संवानयन्तु) = मेरे लिए संभक्त करनेवाली हों अथवा घृत का निर्माण करनेवाली ये गौएँ इसे मेरे प्रति प्रीतिवाला बनाएँ। 'ज्ञान की वाणियों में व गौओं की सेवा में लगे रहना' पत्नी को पति के प्रति प्रेमवाला बनाता

    भावार्थ

    पत्नी का सम्बन्ध आनन्द का जनक है। इनके हृदय में सेवा का भाव होता है। यदि ये ज्ञान की वाणियों व गौओं की सेवा में लगी रहें तो पति-प्रेम में न्यूनता नहीं आती।

    विशेष

    पति-पत्नी का पारस्परिक प्रेम घर में शान्ति का विस्तार करता है, अत: अगले सूक्त का ऋषि शन्ताति' है।

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    भाषार्थ

    (यासाम्) जिन स्त्रियों की ( नाभि: ) नाभि अङ्ग (आरेहणम्) कत्थन अर्थात् प्रशंसा योग्य है, और (हृदि) हृदय में (संवननम्) वशीकरण (कृतम्) परमेश्वर ने स्थापित किया है, वे (गावः) गौओं की तरह (घृतस्य) घृत की अर्थात् स्नेहघृत१ की (मातरः) निर्मात्री हैं, (अमूम्) उस मेरी पत्नी को [गृह की अन्य देवियां] (मे ) मेरी (संवानयन्तु) भक्ति में या वशीकरण में करें।

    टिप्पणी

    [आरेहणम्= रिफ कत्थनयुद्धनिन्दाहिंसादानेषु । "रिह" इत्येके (तुदादिः); कत्थन = श्लाघा (भ्वादिः), प्रशंसा । स्त्रियों की नाभि श्लाघा सम्पन्न है, यतः यह सन्तानोत्पादिका है। शिशु माता की नाभि से बन्धे उत्पन्न होते हैं। यथा "नाभ्या संनद्धाः पुत्रा जायन्ते" यह प्रसिद्ध उक्ति है। मन्त्र में गाव: पद में उपमावाचक पद विलुप्त है। अभिप्राय है "गावः इव गावः", अर्थात् गोएं जैसे नवजात वत्स के प्रति स्नेहमयी होती हैं उसी प्रकार परस्पर स्नेहमयी पारिवारिक स्त्रियां। यथा "अन्यो अन्यमभिहर्यत वत्सं जातमिवाघ्न्या" (अथर्व० ३।३०।१)। अथर्व० १४।२।५३-५८ मन्त्रों में गोधर्मों का प्रवेश वधू में वर्णित कर वधू को गोरूपता दी है, अर्थात् गृहस्थ जीवन में वधू को गोरूप में वर्णित किया है। अतः धर्म साम्यद्वारा गोपद द्वारा पारिवारिक स्त्रियों का ग्रहण भी वेदानुमोदित है। तथा मन्त्र में गावः पद द्वारा वेदवाक् अभिप्रेत है, "गौ: वाङ्नाम" (निघं० १।११) । अत: "गावः संवानयन्तु मे" का अभिप्राय है "वेदवाणियां मेरे लिये पत्नी को सम्यक् भक्तिपरायणा करें"। वन संभक्तौ (भ्वादिः) । विवाह सम्बन्धी मन्त्रों (अथर्व १४।२) में पति-पत्नी भाव सम्बद्ध हुए वर-वधू को परस्पर प्रेम में बन्धे रहने के उपदेश दिये हैं। रुष्टापत्नी उन उपदेशों को स्मरण कर पति के प्रति स्नेहभावना परायणा हो,-यह विचार भी मन्त्र में प्रकट किया है।] [१. घृतस्य= घृतोपलक्षितस्नेहघृतस्य निर्मात्र्य: गाव इव।]

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    विषय

    स्त्री पुरुषों का परस्पर प्रेम करने का कर्तव्य।

    भावार्थ

    (यासां) जिनका (आ-रेहणं) चुम्बन भी (नाभिः) उनको बांधने वाला है और वही मानो (हृदि) हृदय में एक (संवननम्) परस्पर एक दूसरे को स्वीकार करने का उपाय (कृतम्) किया गया है। (घृतस्य) धृत के समान स्नेहमय प्रेम की (मातरः) उत्पन्न करने वाली (मातरः) माताएं ही, (गावः) जो कि गौवों के समान स्नेहमय चक्षुओं से देखने वाली हैं (अमूं) इस प्रियतमा को (मे) मेरी तरफ़ (सं वानयन्तु) प्रेमपूर्वक प्रेरित करें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    जमदग्निर्ऋषिः। कामात्मा देवता। १-३ अनुष्टुभः। तृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Love

    Meaning

    Whose bond is kissing and caress, and love charm is fascination in the heart, may those vibrations of sense and love, creators of the honey sweets of life, bind her in love with me.

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    Translation

    Kissing is whose relationship (nabhih), and conciliation is in heart, may the cows, mothers of butter, make that maiden inclined towards me. ( They whose navel is a licking -yasyam nabhih arehanam)

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    Translation

    May mother of the butter those cows whose kisses are a bond and a love-charm laid within the heart, incline and inspire into this my wife to love of me.

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    Translation

    May the cows, mothers of butter, incline that maid to love of me, whose heart is filled with love, praise and devotion.

    Footnote

    "Whose' refers to the maid.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−(यासाम्) आदरार्थं बहुवचनम्। स्त्रीणाम् (नाभिः) बन्धनम्। स्नेहः (आरेहणम्) रिह कत्थने−ल्युट्। प्रशंसनम् (हृदि) हृदये (संवननम्) संभक्तिः (कृतम्) निष्पादितम् (गावः) धेनवः (घृतस्य) आज्यादिपदार्थस्य (मातरः) निर्मात्र्यः (अमूम्) पत्नीम् (सम्) सम्यक् (वानयन्तु) दीर्घश्छान्दसः। संभजन्ताम्। सेवन्ताम् (मे) मदर्थम् ॥

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