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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 92/ मन्त्र 2
ज॒वस्ते॑ अर्व॒न्निहि॑तो॒ गुहा॒ यः श्ये॒ने वात॑ उ॒त योऽच॑र॒त्परी॑त्तः। तेन॒ त्वं वा॑जि॒न्बल॑वा॒न्बले॑ना॒जिं ज॑य॒ सम॑ने पारयि॒ष्णुः ॥
स्वर सहित पद पाठज॒व: । ते॒ । अ॒र्व॒न् । निऽहि॑त: । गुहा॑ । य: । श्ये॒ने । वाते॑ । उ॒त । य: । अच॑रत् । परी॑त्त: । तेन॑ । त्वम् । वा॒जि॒न् । बल॑ऽवान् । बले॑न । आ॒जिम् । ज॒य॒ । सम॑ने । पा॒रि॒यि॒ष्णु: ॥९२.२॥
स्वर रहित मन्त्र
जवस्ते अर्वन्निहितो गुहा यः श्येने वात उत योऽचरत्परीत्तः। तेन त्वं वाजिन्बलवान्बलेनाजिं जय समने पारयिष्णुः ॥
स्वर रहित पद पाठजव: । ते । अर्वन् । निऽहित: । गुहा । य: । श्येने । वाते । उत । य: । अचरत् । परीत्त: । तेन । त्वम् । वाजिन् । बलऽवान् । बलेन । आजिम् । जय । समने । पारियिष्णु: ॥९२.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 92; मन्त्र » 2
विषय - प्राणरूप अश्व का वर्णन।
भावार्थ -
हे (अर्वन्) गतिशील प्राण ! (ते) तेरा (जवः) वेग (यः) जो (गुहा) गुहा, भीतरी अन्तःकरण में (निहितः) रक्खा है और (यः) जो (श्येने) इथेन, ज्ञान के कर्त्ता आत्मा में (परीतः) सुरक्षित है (उत) और (यः) जो वेग (वाते) वायु में, प्राण वायु में (परीत्तः) व्याप्त होकर (अचरत्) शरीर भर में फैल जाता और इन्द्रियों में विचरण करता है, हे (वाजिन्) बलवन् ! प्राण ! (तेन) उस सब (बलेन) बल से (बलवान्) बलवान् होकर (समने) इस जीवनसंग्राम अथवा समन, इन्द्रिय-देहादि संघात में (पारयिष्णुः) सब बन्धनों को पार करता हुआ, सबको वश करता हुआ (आजिम्) चरम पद को (जय) विजय कर, प्राप्त करा।
गौण रूप से अश्व अर्थात् घोड़े की तरफ़ भी लगता है—हे अश्व ! जो वेग हृदय में, बाज़ में और वायु में है उस वेगवाला होकर तू समन=संग्राम में सबको पार करता हुआ राज्यलक्ष्मी को प्राप्त करा।
टिप्पणी -
(प्र०) ‘जवो यस्ते वाजिन्’ (द्वि०) श्येने परीतो अचरश्च वाते (तृ०) ‘तेन नः’ (च०) ‘वाजजिच्च भव समने च परि०’ इति यजु०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अथर्वा ऋषिः। वाजी देवता। १ जगती, २, ३ त्रिष्टुभौ। तृचं सूक्तम्॥
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