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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 156 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 156/ मन्त्र 2
    ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः देवता - विष्णुः छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    यः पू॒र्व्याय॑ वे॒धसे॒ नवी॑यसे सु॒मज्जा॑नये॒ विष्ण॑वे॒ ददा॑शति। यो जा॒तम॑स्य मह॒तो महि॒ ब्रव॒त्सेदु॒ श्रवो॑भि॒र्युज्यं॑ चिद॒भ्य॑सत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यः । पू॒र्व्याय॑ । वे॒धसे॑ । नवी॑यसे । सु॒मत्ऽजा॑नये । विष्ण॑वे । ददा॑शति । यः । जा॒तम् । अ॒स्य॒ । म॒ह॒तः । महि॑ । ब्रव॑त् । सः । इत् । ऊँ॒ इति॑ । श्रवः॑ऽभिः । युज्य॑म् । चि॒त् । अ॒भि । अ॒स॒त् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यः पूर्व्याय वेधसे नवीयसे सुमज्जानये विष्णवे ददाशति। यो जातमस्य महतो महि ब्रवत्सेदु श्रवोभिर्युज्यं चिदभ्यसत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यः। पूर्व्याय। वेधसे। नवीयसे। सुमत्ऽजानये। विष्णवे। ददाशति। यः। जातम्। अस्य। महतः। महि। ब्रवत्। सः। इत्। ऊँ इति। श्रवःऽभिः। युज्यम्। चित्। अभि। असत् ॥ १.१५६.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 156; मन्त्र » 2
    अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 26; मन्त्र » 2

    भावार्थ -
    ( यः ) जो विद्वान् पुरुष ( वेधसे ) विद्वान् मेधावी, या विशेष रूप से सेवा करने वाले ( पूर्व्याय ) अपने से पूर्व विद्यमान विद्यावयोवृद्ध पुरुषों की उत्तम रीति से सेवा करने वाले, ( नवीयसे ) अति नवीन, सुन्दर एवं सदा सुप्रसन्न, ( सुमत्-जानये ) स्वयं ही स्वभाव से ही ज्ञान सम्पादन करने में संलग्न, (विष्णवे) ज्ञान मार्ग में प्रवेश करने वाले नव विद्यार्थी को ( ददाशति ) ज्ञान और अन्न, धनादि दान करता है और ( यः ) जो पुरुष ( महतः ) व्रतों और गुणों में महान् (अस्य) इस विद्यार्थी को ( महि जातम् ) उत्तम उत्तम ज्ञान का ( ब्रवत् ) सदा उपदेश करता है ( स इत् उ ) वह ही ( श्रवोभिः ) श्रवण योग्य उपदेशों तथा मनन निदिध्यासनादि कर्मों से (युज्यं चिद्) युज्य अर्थात् प्राप्त करने योग्य ब्रह्म ज्ञान का ही स्वयं ( अभि असत् ) अभ्यास करता है । ( २ ) परमेश्वर पक्ष में—वह परमेश्वर सबसे पूर्व विद्यमान, पूर्व के विद्वानों से उपास्य, सदा स्तुत्य, स्वयंभू, सर्व व्यापक है । उसके निभित्त जो दान करता है जो इस महान् परमेश्वर के ज्ञान का उपदेश करता है, वह ज्ञानों और गुरूपदेशों से उस परम सखा, योग द्वारा गम्य परमेश्वर को ही (अभि असत्) साक्षात् करता हुआ उसी की उपासना करता है ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - दीर्घतमा ऋषिः । विष्णुर्देवता ॥ छन्दः- निचृत् त्रिष्टुप् । २ विराट् त्रिष्टुप् । ५ स्वराट् त्रिष्टुप् । निचृज्जगती । ४ जगती ॥ पञ्चर्चं सूक्तम् ॥

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