ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 157/ मन्त्र 2
यद्यु॒ञ्जाथे॒ वृष॑णमश्विना॒ रथं॑ घृ॒तेन॑ नो॒ मधु॑ना क्ष॒त्रमु॑क्षतम्। अ॒स्माकं॒ ब्रह्म॒ पृत॑नासु जिन्वतं व॒यं धना॒ शूर॑साता भजेमहि ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । यु॒ञ्जाथे॒ इति॑ । वृष॑णम् । अ॒श्वि॒ना॒ । रथ॑म् । घृ॒तेन॑ । नः॒ । मधु॑ना । क्ष॒त्रम् । उ॒क्ष॒त॒म् । अ॒स्माक॑म् । ब्रह्म॑ । पृत॑नासु । जि॒न्व॒त॒म् । व॒यम् । धना॑ । शूर॑ऽसाता । भ॒जे॒म॒हि॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यद्युञ्जाथे वृषणमश्विना रथं घृतेन नो मधुना क्षत्रमुक्षतम्। अस्माकं ब्रह्म पृतनासु जिन्वतं वयं धना शूरसाता भजेमहि ॥
स्वर रहित पद पाठयत्। युञ्जाथे इति। वृषणम्। अश्विना। रथम्। घृतेन। नः। मधुना। क्षत्रम्। उक्षतम्। अस्माकम्। ब्रह्म। पृतनासु। जिन्वतम्। वयम्। धना। शूरऽसाता। भजेमहि ॥ १.१५७.२
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 157; मन्त्र » 2
अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 27; मन्त्र » 2
अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 27; मन्त्र » 2
विषय - स्त्री पुरुषों के गृहस्थसम्बन्धी कर्त्तव्य ।
भावार्थ -
हे (अश्विना ) ऐश्वर्य और गृहस्थ सुखों के भोगने और एक दूसरे के हृदय में व्यापने वाले, रथ सारथिवत् गृहस्थ स्त्री पुरुषो ! ( यत् ) जब आप दोनों (वृषणं) सुख का और वीर्य का सेवन करने वाले (रथं) रमण करने के साधन रूप अंग को (युंजाथे) संयुक्त करो इससे पूर्व आप दोनों अपने ( क्षत्रम् ) वीर्य को ( घृतेन ) घृत आदि पुष्टकारक पदार्थ से और (मधुना) मधुर अन्न से ( उक्षतम् ) सींचो अर्थात् जिस प्रकार जल से सींचकर वृक्ष को पुष्ट किया जाता है उसी प्रकार स्त्री-पुरुष सन्तानार्थ मिलने के पूर्व पुष्टिप्रद घृत दुग्ध तथा अन्न से वीर्य को पुष्ट करें । इसी प्रकार (अस्माकं ) हमारे ( पृतनासु ) मनुष्यों में ( ब्रह्म ) उत्तम अन्न और बल को पूर्ण करो। जिससे ( वयं ) हम लोग सदा ( शूरसाता ) शूरवीर पुरुषों को प्राप्त करने के लिए ( धना ) नाना ऐश्वर्यो को ( भजेमहि ) प्राप्त करें और सेवें । उसी प्रकार राष्ट्र में—हे ( अश्विना ) सभासेनापतियो ! सुखवर्षक और शत्रु पर शरों के वर्षक रथ को जोड़कर ले जाओ, ( क्षत्रं ) अपने सैन्य बल को ( घृतेन मधुना ) तेज और अन्न या दीप्ति और शत्रु को धुन देने वाले बल से पुष्ट करो । हमारे ( ब्रह्म ) बड़े भारी बल को सेनाओं और संग्रामों में बढ़ाओ, जिससे ( शूरसाता ) संग्राम में हम ऐश्वर्यों को प्राप्त करें ।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - दीर्घतमाः ऋषिः ॥ अश्विनौ देवते ॥ छन्दः– १ त्रिष्टुप् । ५ निचृत् त्रिष्टुप् । ६ विराट् त्रिष्टुप् । २, ४ जगती। ३ निचृज्जगती ॥ षडृचं सूक्तम् ॥
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