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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 35 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 35/ मन्त्र 2
    ऋषिः - हिरण्यस्तूप आङ्गिरसः देवता - सविता छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    आ कृ॒ष्णेन॒ रज॑सा॒ वर्त॑मानो निवे॒शय॑न्न॒मृतं॒ मर्त्यं॑ च । हि॒र॒ण्यये॑न सवि॒ता रथे॒ना दे॒वो या॑ति॒ भुव॑नानि॒ पश्य॑न् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । कृ॒ष्णेन॑ । रज॑सा । वर्त॑मानः । नि॒ऽवे॒शय॑न् । अ॒मृत॑म् । मर्त्य॑म् । च॒ । हि॒र॒ण्यये॑न । स॒वि॒ता रथे॒न॑ । आ । दे॒वः । या॒ति॒ । भुव॑नानि । पश्य॑न् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ कृष्णेन रजसा वर्तमानो निवेशयन्नमृतं मर्त्यं च । हिरण्ययेन सविता रथेना देवो याति भुवनानि पश्यन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । कृष्णेन । रजसा । वर्तमानः । निवेशयन् । अमृतम् । मर्त्यम् । च । हिरण्ययेन । सविता रथेन । आ । देवः । याति । भुवनानि । पश्यन्॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 35; मन्त्र » 2
    अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 6; मन्त्र » 2

    भावार्थ -
    (सविता) काल रूप से सबका उत्पादक, सूर्य (देवः) सबका प्रकाशक और वृष्टि, ताप आदि का देने वाला सूर्य जिस प्रकार स्वयं (कृष्णेन) आकर्षण बल से युक्त, अथवा कृष्ण, प्रकाश रहित पृथिवी आदि (रजसा) लोक समूह के साथ (आवर्त्तमानः) भ्रमण करता हुआ और (अमृतम्) वृष्टि के द्वारा जल और प्राण, चैतन्य और (मर्त्यम्) मरणधर्मा शरीरधारी प्राणियों को (निवेशयन्) स्थापित करता हुआ (हिरण्येन) सर्व लोक-हितकारी और मनोहर, अथवा तेजोयुक्त (रथेन) अति वेगवान् पिण्डसे (भुवनानि) समस्त उत्पन्न लोकों और प्राणियों को (पश्यन्) देखता हुआ जाता है उसी प्रकार परमेश्वर (कृष्णेन रजसा वर्त्तमानः) सर्वाकर्षक लोकसमूहों के साथ उनमें व्यापक रह कर उनमें (अमृतं मर्त्यं च) अमृत मोक्ष-सुख और सत्य ज्ञान तथा मर्त्य, मरने वाले प्राणियों को व्यवस्थित करता हुआ (हिरण्ययेन रथेन) अति आनन्ददायक, तेजोमय, रस स्वरूप से समस्त लोकों को अन्तर्यामी रूप से साक्षात् करता हुआ, सुवर्ण के रथ पर स्थित राजा के समान (याति) हमें प्राप्त है। राजा सुवर्ण के रथ पर बैठ कर आगे घनी धूली सहित प्रयाण करता है। अमृत, सन्तति या अन्नादि मर्त्य, प्राणिगण सबकी व्यवस्था करता हुआ निरीक्षण करता जाता है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - हिरण्यस्तूप आङ्गिरस ऋषिः ॥ देवताः—१ अग्निर्मित्रावरुणौ रात्रिः सविता । २-११ सविता ॥ छन्दः- १ विराड् जगती । ९ निचृज्जगती । २, ५, १०, ११ विराट् त्रिष्टुप् । ३, ४, ६ त्रिष्टुप् । ७, ८ भुरिक् पंक्तिः । एकादशर्चं सूक्तम् ॥

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