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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 35 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 35/ मन्त्र 3
    ऋषिः - हिरण्यस्तूप आङ्गिरसः देवता - सविता छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    याति॑ दे॒वः प्र॒वता॒ यात्यु॒द्वता॒ याति॑ शु॒भ्राभ्यां॑ यज॒तो हरि॑भ्याम् । आ दे॒वो या॑ति सवि॒ता प॑रा॒वतोऽप॒ विश्वा॑ दुरि॒ता बाध॑मानः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    याति॑ । दे॒वः । प्र॒ऽवता॑ । याति॑ । उ॒त्ऽवता॑ । याति॑ । शु॒भ्राभ्या॑म् । य॒ज॒तः । हरि॑ऽभ्याम् । आ । दे॒वः । या॒ति॒ । स॒वि॒ता । प॒रा॒ऽवतः॑ । अप॑ । विश्वा॑ । दुःऽइ॒ता । बाध॑मानः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    याति देवः प्रवता यात्युद्वता याति शुभ्राभ्यां यजतो हरिभ्याम् । आ देवो याति सविता परावतोऽप विश्वा दुरिता बाधमानः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    याति । देवः । प्रवता । याति । उत्वता । याति । शुभ्राभ्याम् । यजतः । हरिभ्याम् । आ । देवः । याति । सविता । परावतः । अप । विश्वा । दुःइता । बाधमानः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 35; मन्त्र » 3
    अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 6; मन्त्र » 3

    भावार्थ -
    (देवः) सुखप्रद वायु के समान राजा या शूर पुरुष (प्रवता) नीचे के मार्गों से भी (याति) जाता है। वह (उद्वता याति) ऊपर के मार्ग से भी जाता है। वह (यजतः) सत्संग करने योग्य चन्द्र सूर्य के समान (शुभ्राभ्याम् हरिभ्याम्) वेगवान् गतिशील काल के अवयव दिन और रात्रि तथा उत्तरायण, दक्षिणायन के समान (शुभ्राभ्याम्) अतिदीप्तियुक्त, श्वेत, सुन्दर (हरिभ्याम्) घोड़ों से (याति) प्रयाण करता है। (सविता देवः) सूर्य के समान तेजस्वी (देवः) राजा (विश्वा दुरिता) सब दुःखों और दुष्ट पुरुषों को (अप बाधमानः) दूर करता हुआ (परावतः)दूर और पास भी सर्वत्र (आ याति) प्राप्त हो। इसी प्रकार परमेश्वर नीचे ऊपर, दूर समीप, सर्वत्र प्रकाशस्वरूप होकर अपने आप गुणों से युक्त ज्ञानी और कर्म दो प्रकार के निष्ठ साधकों द्वारा (यजतः) उपास्य है। और वह सब दुष्ट कार्यों को दूर करता हुआ हमें साक्षात् हो ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - हिरण्यस्तूप आङ्गिरस ऋषिः ॥ देवताः—१ अग्निर्मित्रावरुणौ रात्रिः सविता । २-११ सविता ॥ छन्दः- १ विराड् जगती । ९ निचृज्जगती । २, ५, १०, ११ विराट् त्रिष्टुप् । ३, ४, ६ त्रिष्टुप् । ७, ८ भुरिक् पंक्तिः । एकादशर्चं सूक्तम् ॥

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