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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 35 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 35/ मन्त्र 3
    ऋषिः - हिरण्यस्तूप आङ्गिरसः देवता - सविता छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    याति॑ दे॒वः प्र॒वता॒ यात्यु॒द्वता॒ याति॑ शु॒भ्राभ्यां॑ यज॒तो हरि॑भ्याम् । आ दे॒वो या॑ति सवि॒ता प॑रा॒वतोऽप॒ विश्वा॑ दुरि॒ता बाध॑मानः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    याति॑ । दे॒वः । प्र॒ऽवता॑ । याति॑ । उ॒त्ऽवता॑ । याति॑ । शु॒भ्राभ्या॑म् । य॒ज॒तः । हरि॑ऽभ्याम् । आ । दे॒वः । या॒ति॒ । स॒वि॒ता । प॒रा॒ऽवतः॑ । अप॑ । विश्वा॑ । दुःऽइ॒ता । बाध॑मानः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    याति देवः प्रवता यात्युद्वता याति शुभ्राभ्यां यजतो हरिभ्याम् । आ देवो याति सविता परावतोऽप विश्वा दुरिता बाधमानः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    याति । देवः । प्रवता । याति । उत्वता । याति । शुभ्राभ्याम् । यजतः । हरिभ्याम् । आ । देवः । याति । सविता । परावतः । अप । विश्वा । दुःइता । बाधमानः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 35; मन्त्र » 3
    अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 6; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    (याति) गच्छति (देवः) द्योतको वायुः (प्रवता) अधोमार्गेण। अत्र प्रपूर्वकात्संभजनार्थाद्वनधातोः क्विप् (याति) प्राप्नोति (उद्वता) ऊर्द्ध्वमार्गेण (याति) गच्छति (शुभ्राभ्याम्) शुद्धाभ्याम् (यजतः) संगंतुं योग्यः (हरिभ्याम्) कृष्णशुक्लपक्षाभ्याम् (आ) अभ्यर्थे (देवः) प्रकाशकः (याति) प्राप्नोति (सविता) सूर्यलोकः (परावतः) दूरमार्गान्। परावत इति दूरनामसु पठितम्। निघं० ३।२६। (अप) दूरार्थे (विश्वा) विश्वानि सर्वाणि (दुरिता) दुष्टानि दुःखानि। अत्रोभयत्र शेश्छंदसि इति लोपः। (बाधमानः) दुरीकुर्वन् ॥३॥

    अन्वयः

    अथ वायुसूर्य्यदृष्टान्तेन शूरवीरगुणा उपदिश्यन्ते।

    पदार्थः

    हे राजपुरुषा भवन्तो यथा विश्वानि दुरितान्यपबाधमानो यजतो देवो वायुः प्रवता मार्गेण यात्युद्वता मार्गेण यात्यायाति च यथा च विश्वा दुरिता सर्वाणि दुःख प्रदान्यन्धकारादीनि बाधमानो यजतः सविता देवः सूर्यलोकः शुभ्राभ्यां हरिभ्यां हरणसाधनाभ्यामहोरात्राभ्यां कृष्णशुक्लपक्षाभ्यां परावतो दूरस्थान् पदार्थान् स्वकिरणैः प्राप्य पृथिव्यादीन् लोकान् याति प्राप्नोति तथा युद्धाय शूरवीरा गमनागमनाभ्यां प्रजाः सततं सुखयन्तु ॥३॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा ईश्वरोत्पादितायां सृष्टौ वायुरधऊर्ध्वसमगत्या गच्छन्नधस्थानुपर्युपरिस्थानानयति यथायमहोरात्रादिभ्यां हरणशीलाभ्यां स्वकिरणयुक्ताभ्यां युक्तः सविता देवोंऽधकाराद्यपवारणेन दुःखानि विनाश्य सुखानि प्रकटय्य कदाचित् सुखानि निवार्य्य दुःखानि प्रकटयति तथा सभापत्यादिभिरपि सेनादिभिः सह गत्वागत्य व शत्रून् जित्वा प्रजापालनमनुष्ठेयम् ॥३॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    अब वायु और सूर्य्य के दृष्टान्त के साथ अगले मन्त्र में शूरवीर के गुणों का उपदेश किया है।

    पदार्थ

    जैसे (विश्वा) सब (दुरिता) दुष्ट दुःखों को (अप) (बाधमानः) दूर करता हुआ (यजतः) संगम करने योग्य (देवः) श्रवण आदि ज्ञान का प्रकाशक वायु (प्रवता) नीचे मार्ग से (याति) जाता आता और (उद्वता) ऊर्ध्व मार्ग से (याति) जाता आता है और जैसे सब दुःख देनेवाले अंधकारादिकों को दूर करता हुआ (यजतः) संगत होने योग्य (सविता) प्रकाशक सूर्यलोक (शुभ्राभ्याम्) शुद्ध (हरिभ्याम्) कृष्ण वा शुक्लपक्षों से (परावतः) दुरस्थ पदार्थों को अपनी किरणों से प्राप्त होकर पृथिव्यादि लोकों को (आयाति) सब प्रकार प्राप्त होता है वैसे शूरवीरादि लोग सेना आदि सामग्री सहित ऊंचे-नीचे मार्ग में जा-आके शत्रुओं को जीतकर प्रजा की रक्षा निरन्तर किया करें ॥३॥

    भावार्थ

    इस मंत्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे ईश्वरकी उत्पन्न की हुई सृष्टि में वायु नीचे ऊपर वा समगति से चलता हुआ नीचे के पदार्थों को ऊपर और ऊपर के पदार्थों को नीचे करता है और जैसे दिन रात वा आकर्षण धारण गुणवाले अपने किरण समूह से युक्त सूर्यलोक अन्धकारादिकों के दूर करने से दुःखों का विनाश कर सुख और सुखों का विनाश कर दुःखों को प्रगट करता है वैसे ही सभापति आदि को भी अनुष्ठान करना चाहिये ॥३॥

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    विषय

    अब वायु और सूर्य्य के दृष्टान्त के साथ इस मन्त्र में शूरवीर के गुणों का उपदेश किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे राजपुरुषा भवन्तः यथा विश्वानि दुरितानि अपबाधमानः यजतः देवः वायुः प्रवता मार्गेण याति उद्वता मार्गेण याति आयाति च यथा च विश्वा दुरिता सर्वाणि दुःखप्रदानि अन्धकारादीनि बाधमानः यजतः सविता देवः सूर्यलोकः शुभ्राभ्यां हरिभ्यां हरणसाधनाभ्याम् अहोरात्राभ्यां कृष्णशुक्लपक्षाभ्यां परावतः दूरस्थान् पदार्थान् स्वकिरणैः प्राप्य पृथिव्यादीन् लोकान् याति प्राप्नोति तथा युद्धाय शूरवीरा गमनागमनाभ्यां प्रजाः सततं सुखयन्तु ॥३॥ 

    पदार्थ

    हे (राजपुरुषा)= राजपुरुषों, (भवन्तः)=आप, (यथा)=जैसे, (विश्वानि)=समस्त,  (दुरितानि)= दुष्ट दुःखों को, (अप) दूरार्थे=दूर, (बाधमानः) दुरीकुर्वन्=करते हुए, (यजतः) संगंतुं योग्यः=संगति करने योग्य, (देवः) द्योतको वायुः=वायु को, (प्रवता) अधोमार्गेण=नीचे के मार्ग से, (याति) प्राप्नोति=जाते हैं, (उद्वता)=ऊर्ध्व, (मार्गेण)=मार्ग से, (याति) प्राप्नोति=जाते हैं,  (च)=और, (आ) अभ्यर्थे=हर ओर से, (याति) प्राप्नोति=जाते हैं,  (च)=और, (यथा)=जैसे, (विश्वा) विश्वानि सर्वाणि=समस्त, (दुरिता) दुष्टानि दुःखानि=दुष्ट दुःखों को, और, (सर्वाणि)=समस्त, (दुःखप्रदानि)=दुःखप्रदान करने वालों और (अन्धकारादीनि)=अन्धकार आदि को, (बाधमानः) दुरीकुर्वन्=दूर करते हुए, (यजतः) संगंतुं योग्यः=संगति करने योग्य, (देवः) प्रकाशकः सूर्यलोकः=प्रकाशक सूर्यलोक, (शुभ्राभ्याम्) शुद्धाभ्याम्=शुद्धि करने के लिये, (हरिभ्याम्) कृष्णशुक्लपक्षाभ्याम्=कृष्ण और शुक्लपक्ष के लिये और (हरणसाधनाभ्याम्)=दूर करने के साधनों के लिये, (अहोरात्राभ्याम्)=दिन और रात्रि के लिये, (परावतः) दूरमार्गान्=दूरस्थ मार्गों के द्वारा, (दूरस्थान्)= दूर स्थित स्थानों और (पदार्थान्)=पदार्थों को, (स्वकिरणैः)=अपनी किरणों से, (प्राप्य)=प्राप्त करके, (पृथिव्यादीन्)=पृथिवी आदि, (लोकान्)=लोकों को, (याति) गच्छति=जाता है, (तथा)=वैसे ही, (युद्धाय)=युद्ध के लिये, (शूरवीरा)=शूरवीरों के लिये, (गमनागमनाभ्याम्)=जाने और आने के लिये, (प्रजाः)=सन्तानें, (सततम्)=निरन्तर, (सुखयन्तु)=सुखी हों ॥३॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    इस मंत्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे ईश्वरकी उत्पन्न की हुई सृष्टि में वायु नीचे ऊपर वा समगति से चलता हुआ नीचे के पदार्थों को ऊपर और ऊपर के पदार्थों को नीचे करता है और जैसे दिन रात वा आकर्षण धारण गुणवाले अपने किरण समूह से युक्त सूर्यलोक अन्धकार आदि को दूर करने से दुःखों का विनाश कर सुख और सम्भवतः सुखों का विनाश कर दुःखों को प्रगट करता है वैसे ही सभापति और सेनापति आदि को भी अनुष्ठान करना चाहिये ॥३॥

    विशेष

    अनुवादक की टिप्पणी- भारतीय वैदिक कैलेंडर के अनुसार कृष्णपक्ष और शुक्लपक्ष एक महीने के दो भाग हैं जिनकी गणना चंद्रमा चक्र के चौदह दिनों के लिए की जाती है, जिन्हें आधा काला महीना (कृष्णपक्ष) और आधा उज्ज्वल महीना (शुक्लपक्ष) के रूप में जाना जाता है।

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (राजपुरुषा) राजपुरुषों! (भवन्तः) आप (यथा) जैसे (विश्वानि) समस्त  (दुरितानि) दुष्ट दुःखों को (अप+बाधमानः) दूर करते हुए (यजतः) संगति करने योग्य (देवः) वायु को (प्रवता) नीचे के मार्ग से (याति) जाते हैं (च) और  (उद्वता) ऊर्ध्व (मार्गेण) मार्ग से (याति) जाते हैं।   (च) और (आ) हर ओर से (याति) जाते हैं। (यथा)  जैसे (विश्वा) समस्त (दुरिता) दुष्ट दुःखों को और (सर्वाणि) समस्त (दुःखप्रदानि) दुःखप्रदान करने वालों को और (अन्धकारादीनि) अन्धकार आदि को (बाधमानः) दूर करते हुए (यजतः) संगति करने योग्य (देवः) प्रकाशक सूर्यलोक (शुभ्राभ्याम्) शुद्धि करने के लिये, (हरिभ्याम्) कृष्ण और शुक्लपक्ष के लिये और (हरणसाधनाभ्याम्) दूर करने के साधनों के लिये (अहोरात्राभ्याम्) दिन और रात्रि के लिये (परावतः) दूरस्थ मार्गों के द्वारा (दूरस्थान्) दूर स्थित स्थानों और (पदार्थान्) पदार्थों को (स्वकिरणैः) अपनी किरणों से (प्राप्य) प्राप्त करके (पृथिव्यादीन्) पृथिवी आदि (लोकान्) लोकों को (याति) जाता है। (तथा) वैसे ही (युद्धाय) युद्ध के लिये (शूरवीरा) शूरवीरों के लिये (गमनागमनाभ्याम्) जाने और आने में (प्रजाः) प्रजा (सततम्) निरन्तर (सुखयन्तु) सुखी हों॥३॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (याति) गच्छति (देवः) द्योतको वायुः (प्रवता) अधोमार्गेण। अत्र प्रपूर्वकात्संभजनार्थाद्वनधातोः क्विप् (याति) प्राप्नोति (उद्वता) ऊर्द्ध्वमार्गेण (याति) गच्छति (शुभ्राभ्याम्) शुद्धाभ्याम् (यजतः) संगंतुं योग्यः (हरिभ्याम्) कृष्णशुक्लपक्षाभ्याम् (आ) अभ्यर्थे (देवः) प्रकाशकः (याति) प्राप्नोति (सविता) सूर्यलोकः (परावतः) दूरमार्गान्। परावत इति दूरनामसु पठितम्। निघं० ३।२६। (अप) दूरार्थे (विश्वा) विश्वानि सर्वाणि (दुरिता) दुष्टानि दुःखानि। अत्रोभयत्र शेश्छंदसि इति लोपः। (बाधमानः) दुरीकुर्वन् ॥३॥ 
    विषयः- अथ वायुसूर्य्यदृष्टान्तेन शूरवीरगुणा उपदिश्यन्ते।

    अन्वयः- हे राजपुरुषा भवन्तो यथा विश्वानि दुरितान्यपबाधमानो यजतो देवो वायुः प्रवता मार्गेण यात्युद्वता मार्गेण यात्यायाति च यथा च विश्वा दुरिता सर्वाणि दुःख प्रदान्यन्धकारादीनि बाधमानो यजतः सविता देवः सूर्यलोकः शुभ्राभ्यां हरिभ्यां हरणसाधनाभ्यामहोरात्राभ्यां कृष्णशुक्लपक्षाभ्यां परावतो दूरस्थान् पदार्थान् स्वकिरणैः प्राप्य पृथिव्यादीन् लोकान् याति प्राप्नोति तथा युद्धाय शूरवीरा गमनागमनाभ्यां प्रजाः सततं सुखयन्तु ॥३॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा ईश्वरोत्पादितायां सृष्टौ वायुरधऊर्ध्वसमगत्या गच्छन्नधस्थानुपर्युपरिस्थानानयति यथायमहोरात्रादिभ्यां हरणशीलाभ्यां स्वकिरणयुक्ताभ्यां युक्तः सविता देवोंऽधकाराद्यपवारणेन दुःखानि विनाश्य सुखानि प्रकटय्य कदाचित् सुखानि निवार्य्य दुःखानि प्रकटयति तथा सभापत्यादिभिरपि सेनादिभिः सह गत्वागत्य व शत्रून् जित्वा प्रजापालन मनुष्ठेयम् ॥३॥

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    विषय

    रोगकृमि - नाश

    पदार्थ

    १. (देवः) - यह देदीप्यमान, लोकों को प्रकाशित करनेवाला व प्रकाश और प्राणशक्ति को देनेवाला सूर्य (प्रवता) - निम्नमार्ग से (याति) - जाता है ; यह निम्न मार्ग ही दक्षिणायन कहलाता है [दक्षिणअयन] । (उद्वता) - उत्कृष्ट मार्ग से, उत्तरायण से (याति) - जाता है । भूमि का अपनी कोली पर २३ - का झुकाव इस उत्तरायण व दक्षिणायन का कारण बनता है । 
    २. यह (यजतः) - संगतिकरण - योग्य सूर्य (शभ्राभ्यां हरिभ्याम्) - अपने उज्ज्वल किरणरूप अश्वों से (याति) - गति कर रहा है । यद्यपि सूर्य 'सप्ताश्व' है, इसकी किरणें सात प्रकार की हैं, वे ही इन्द्रधनुष में सात रंगों में प्रकट हुआ करती हैं, तथापि 'कृष्णपक्ष व शुक्लपक्ष' के दृष्टिकोण से यहाँ द्विवचन का प्रयोग है । चन्द्रमा से प्रतिक्षिप्त होकर सूर्य - किरणें ही पृथिवी पर पड़ती हैं । यह (सविता देवः) - सबको कार्य में प्रेरित करनेवाला, सब व्यवहारों का साधक सूर्य (परावतः) - सुदूर देश से (आयाति) - किरणों के द्वारा यहाँ आता है और (विश्वा दुरिता) - सब बुराइयों को (अपबाधमानः) - दूर रोकनेवाला होता है । 'उद्यन् आदित्यः क्रमीन् हन्तु' यह उदय होता हुआ सूर्य रोगकृमियों को नष्ट करता है, एवं यह सूर्य अपनी किरणों से मानो स्वर्ण के इञ्जैक्शन्स लगाता हुआ रोगों को दूर भगानेवाला होता है । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - सूर्य सब दुरितों को दूर करता है, यह रोग - कृमियों का नाश करनेवाला है, इसलिए यह 'यजतः' - संगति करने योग्य है । 

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    विषय

    सूर्य, वायु और वीर के, दृष्टान्त से ईश्वर का वर्णन ।

    भावार्थ

    (देवः) सुखप्रद वायु के समान राजा या शूर पुरुष (प्रवता) नीचे के मार्गों से भी (याति) जाता है। वह (उद्वता याति) ऊपर के मार्ग से भी जाता है। वह (यजतः) सत्संग करने योग्य चन्द्र सूर्य के समान (शुभ्राभ्याम् हरिभ्याम्) वेगवान् गतिशील काल के अवयव दिन और रात्रि तथा उत्तरायण, दक्षिणायन के समान (शुभ्राभ्याम्) अतिदीप्तियुक्त, श्वेत, सुन्दर (हरिभ्याम्) घोड़ों से (याति) प्रयाण करता है। (सविता देवः) सूर्य के समान तेजस्वी (देवः) राजा (विश्वा दुरिता) सब दुःखों और दुष्ट पुरुषों को (अप बाधमानः) दूर करता हुआ (परावतः)दूर और पास भी सर्वत्र (आ याति) प्राप्त हो। इसी प्रकार परमेश्वर नीचे ऊपर, दूर समीप, सर्वत्र प्रकाशस्वरूप होकर अपने आप गुणों से युक्त ज्ञानी और कर्म दो प्रकार के निष्ठ साधकों द्वारा (यजतः) उपास्य है। और वह सब दुष्ट कार्यों को दूर करता हुआ हमें साक्षात् हो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    हिरण्यस्तूप आङ्गिरस ऋषिः ॥ देवताः—१ अग्निर्मित्रावरुणौ रात्रिः सविता । २-११ सविता ॥ छन्दः- १ विराड् जगती । ९ निचृज्जगती । २, ५, १०, ११ विराट् त्रिष्टुप् । ३, ४, ६ त्रिष्टुप् । ७, ८ भुरिक् पंक्तिः । एकादशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. ईश्वराने उत्पन्न केलेल्या सृष्टीत वायू खाली-वर किंवा समगतीने चालतो. खालील पदार्थांना वर व वरील पदार्थांना खाली नेतो व जसे दिवस रात्र किंवा आकर्षण, धारण गुण असलेल्या किरणसमूहाने युक्त असलेला सूर्यलोक अंधःकार इत्यादींना दूर करून दुःखांचा नाश करून सुख व सुखाचा विनाश करून दुःख प्रकट करतो तसे सभापती इत्यादींनीही सेनेसह कूच करून शत्रूंना जिंकून प्रजोपालनाचे अनुष्ठान केले पाहिजे. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    The lord of light, adorable and in company, goes on by lower and higher paths, descending and ascending, by beautiful horses, white and glossy (i.e., day and night, bright and dark fortnights). Savita, lord effulgent, goes on travelling hitherward and far off away dispelling the darkness and evil of the world.

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    Subject of the mantra

    With the illustration of air and Sun, brave knight’s virtues have been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (rājapuruṣā)=Royal gentlemen, (bhavantaḥ)=you,(yathā)=like, (viśvāni)=all,(duritāni)=to evil sorrows (apa+bādhamānaḥ)=removing, (yajataḥ)=is compatible with, (devaḥ)=to air, (pravatā)=through the down road, (yāti)=go, (ca)=and, (udvatā)=upwards, (mārgeṇa)=by the road, (yāti)=go, (ca)=and, (ā) =from all sides, (yāti)=go, (yathā) =like, (viśvā)=all, (duritā)=to evil sorrows [aura]=and, (sarvāṇi)=all,(duḥkhapradāni) to the afflicted and, (andhakārādīni)=to darkness etc. (bādhamānaḥ)=taking away, (yajataḥ)=capable of association, (devaḥ)=illuminator Sun-world, (śubhrābhyām)=to purify, (haribhyām)= for Krishna and Shuklapaksha, [ura]=and, (haraṇasādhanābhyām)=for means of removal, (ahorātrābhyām)=for day and night, (parāvataḥ)=by remote routes, (dūrasthān) distant places, [aura]=and, (padārthān)=to substances, (svakiraṇaiḥ)=by its rays, (prāpya)=by obtaining, (pṛthivyādīn) =earth etc., (lokān)=to worlds, (yāti)=goes, (tathā)=in the same way, (yuddhāya)=for war, (śūravīrā)=for the knights, (gamanāgamanābhyām)=in going and coming, (prajāḥ)=prople, (satatam)=always,(sukhayantu)=be happy.

    English Translation (K.K.V.)

    O royal gentlemen! You, like removing all the sorrows, the air that is compatible with, they go down the road and go up the way and go everywhere. Like removing all evil sorrows and removing darkness etc., the Sun-world to be associated with, for purification, for Krishna Paksha (half dark month) and Shukla Paksha (half bright month) and for the means of removal, for day and night, going by distant routes to the distant places and substances with its rays, the earth goes to other worlds. In the same way, the people should always be happy in the going and coming of the warriors for the war.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There is vocal latent simile as a figurative in this mantra. Just as in the creation of God, the wind, moving down, up or down, brings down the objects above and below, and like the Sun, the world of darkness, etc., with its rays having the qualities of day, night or attraction, removes sorrows. By destroying happiness, and probably by destroying happiness, it manifests sorrows, in the same way the chairman of assembly and commander etc. should also commence.

    TRANSLATOR’S NOTES-

    According to Indian Vedic calender kṛṣṇapakṣa aura śuklapakṣa are two part of a month which is calculated for furteen days of moon cycle, known as half black month(kṛṣṇapakṣa) and half bright month (śuklapakṣa).

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Now by the illustration of the air and the Sun, the attributes of a hero are taught.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    As chasing away all miseries and diseases, the air that displays and is to be united with, moves upward and downward and as the sun driving away all darkness approaches distant objects with his rays and with days and nights and with bright and dark fortnights, so brave men should go for the battle with unrighteous persons and make all people happy.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    [यजतः] संगन्तुं योग्यः = Worthy of being united with. [हरिभ्याम् ) कृष्णशुक्लपक्षाभ्याम् = With dark and bright fortnights. [ परावतः ] दूरमार्गान् परावत इति दूरनामसु पठितम् [निघ० ३.२६] = Distant. [दुरितानि] दुष्टानि दुःखानि = Miseries.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    There is implied simile here. As in this universe, created by God, the air moving upward and downward, brings below those things that are above and takes upwards them that are below and as the sun with his rays dispels all darkness, sometimes casts aside miseries and manifests happiness and at other times drives away happiness and manifests distress, in the same way, the President of the Assembly and others with their armies should move here and there and having conquered their enemies, should safeguard the interests of the people.

    Translator's Notes

    In his commentary on this Mantra, Rishi Dayananda has taken सविता (Savita) to mean वायु air and सूर्य (sun). Though he has not quoted an authority to show how सविता (Savita) stands for the air, the following passages from the Brahmanas are clear. अयं वै सविता योऽयं वायुः पवते [शतपथे १४.२.२.९] वायुरेव सविता [ गोपथ पू० १.१३ जैमिनीयोपनिषद् ब्राह्मणे ४.२७.५] He has interpreted हरिभ्याम् here as कृष्णशुवलपक्षाभ्याम् without quoting an authority which is clearly available in the following passage of the Shadvinsha Brahmana. पूर्वपक्षापरपक्षौ वा इन्द्रस्य हरी ताभ्यां हीद सर्व हरति । [षड्विंश ब्राह्मणे १.१] So his interpretation is well-authenticated.

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