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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 35 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 35/ मन्त्र 2
    ऋषिः - हिरण्यस्तूप आङ्गिरसः देवता - सविता छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    आ कृ॒ष्णेन॒ रज॑सा॒ वर्त॑मानो निवे॒शय॑न्न॒मृतं॒ मर्त्यं॑ च । हि॒र॒ण्यये॑न सवि॒ता रथे॒ना दे॒वो या॑ति॒ भुव॑नानि॒ पश्य॑न् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । कृ॒ष्णेन॑ । रज॑सा । वर्त॑मानः । नि॒ऽवे॒शय॑न् । अ॒मृत॑म् । मर्त्य॑म् । च॒ । हि॒र॒ण्यये॑न । स॒वि॒ता रथे॒न॑ । आ । दे॒वः । या॒ति॒ । भुव॑नानि । पश्य॑न् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ कृष्णेन रजसा वर्तमानो निवेशयन्नमृतं मर्त्यं च । हिरण्ययेन सविता रथेना देवो याति भुवनानि पश्यन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । कृष्णेन । रजसा । वर्तमानः । निवेशयन् । अमृतम् । मर्त्यम् । च । हिरण्ययेन । सविता रथेन । आ । देवः । याति । भुवनानि । पश्यन्॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 35; मन्त्र » 2
    अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 6; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    (आ) समंतात् (कृष्णेन) कर्षति येन स कृष्णस्तेन। यद्वा कृष्णवर्णेन लोकेन। कृष्णं कृष्यतेर्निकृष्टो वर्णः। निरु० २।२०। यत्कृष्णं तदन्नस्य। छान्दो० ६।५। एताभ्यां प्रमाणाभ्यां पृथिवीलोका अत्र गृह्यन्ते कृषेर्वर्णे। उ० ३।४। इति नक् प्रत्ययः। अत्राङ् पूर्वकत्वादाकर्षणार्थो गृह्यते (रजसा) लोकसमूहेन सह। लोकारजांस्युच्यन्ते। निरु० ४।१९। (वर्त्तमानः) वर्त्ततेऽसौ वर्त्तमानः (निवेशयन्) नितरां स्वस्वसामर्थ्ये स्थापयन् (अमृतम्) अन्तर्यामितया वेदद्वारा च मोक्षसाधकं सत्यं ज्ञानं वृष्टिद्वाराऽमृतात्मकं रसं वा (मर्त्यम्) कर्मप्रलयप्राप्तिव्यवस्थया कालव्यवस्थया वा मरणधर्मयुक्तम् प्राणिनम् (च) समुच्चये (हिरण्ययेन) ज्योतिर्मयेनानन्तेन यशसा तेजोमयेन वा ऋत्व्यावस्त्व्यवास्त्वमाध्वीहिरण्ययानि छन्दसि। अ० ६।४।१७५। इत्ययं निपातितः ज्योतिर्हिहिरण्यम्। श० ४।३।१।२१। (सविता) सर्वेषां प्रसविता प्रकाशवृष्टिरसानां च प्रसविता (रथेन) रंहतिजानाति गच्छति गमयति वा येन तेन। रथो रंहतेर्गतिकर्मणः। निरु० ९।११। (आ) समंतात् (देवः) दीव्यति प्रकाशयतीति (याति) प्राप्नोति प्रापयति वा। अत्र पक्षेऽन्तर्गतो ण्यर्थः। (भुवनानि) भवन्ति भूतानि येषु तानि। भूम्० उ० २।७८#। इत्यधिकरणेक्युन् प्रत्ययः। (पश्यन्) प्रेक्षमाणो दर्शयन् वा। अत्रापि पक्षेऽन्तर्गतो ण्यर्थः ॥२॥वै० य० मुद्रित द्वितीयावृत्तौ ‘२।८०’ एषासुत्रसंवर्तते।सं०

    अन्वयः

    अथ सूर्यलोकगुणा उपदिश्यन्ते।

    पदार्थः

    अयं सविता देवः परमेश्वर आकृष्णेन रजसा सहाभिव्याप्य वर्त्तमानः सर्वस्मिन् जगत्यमृतं मर्त्यं च निवेशयन् सन् हिरण्ययेन यशोमयेन ज्ञानरथेन युक्तो भुवनानि पश्यन्नायाति समन्तात् सर्वान्पदार्थान् प्राप्नोतीति पूर्वोऽन्वयः। अयं सविता देवः सूर्यलोकः कृष्णेन रजसा सह वर्त्तमानोऽस्मिन् जगत्यमृतं मर्त्यं च निवेशयन् हिरण्ययेन रथेन भुवनानि पश्यन् दर्शयन् सन्नायाति समंताद्वष्ट्यादिरूपविभागं च प्रापयतीत्यपरोऽन्वयः ॥२॥

    भावार्थः

    अत्र श्लेषालंकारः। यथा पृथिव्यादयो लोकाः सर्वान् मनुष्यादीन् धरन्ति सूर्यलोक आकर्षणेन पृथिव्यादीन् धरति। ईश्वरः स्वसत्तया सूर्यादीन् लोकान् धरति। एवं क्रमेण सर्वलोकधारणं प्रवर्त्तते नैतेन विनान्तरिक्षे कस्यचिद् गुरुत्वयुक्तस्य लोकस्य स्वपरिधौ स्थितेः सम्भवोस्ति। नैव लोकानां भ्रमणेन विना क्षणमुहूर्त्तप्रहराहोरात्रपक्षमासर्तुसंवत्सरादयः कालावयवा उत्पत्तुं शक्नुवन्तीति ॥२॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    अब अगले मन्त्र में सूर्यलोक के गुणों का उपदेश किया है।

    पदार्थ

    यह (सविता) सब जगत् को उत्पन्न करनेवाला (देवः) सबसे अधिक प्रकाशयुक्त परमेश्वर (आकृष्णेन) अपनी आकर्षण शक्ति से (रजसा) सब सूर्य्यादि लोकों के साथ व्यापक (वर्त्तमानः) हुआ (अमृतम्) अंतर्यामिरूप वा वेद द्वारा मोक्षसाधक सत्य ज्ञान (च) और (मर्त्यम्) कर्मों और प्रलय की व्यवस्था से मरण युक्त जीव को (निवेशयन्) अच्छे प्रकार स्थापन करता हुआ (हिरण्ययेन) यशोमय (रथेन) ज्ञानस्वरूप रथ से युक्त (भुवनानि) लोकों को (पश्यन्) देखता हुआ (आयाति) अच्छे प्रकार सब पदार्थों को प्राप्त होता हैं। १। यह (सविता) प्रकाश वृष्टि और रसों का उत्पन्न करनेवाला (कृष्णेन) प्रकाश रहित (रजसा) पृथिवी आदि लोकों के साथ (आवर्त्तमानः) अपनी आकर्षण शक्ति से वर्त्तमान इस जगत् में (अमृतम्) वृष्टि द्वारा अमृत स्वरूपरस (च) तथा (मर्त्यम्) काल व्यवस्था से मरण को (निवेशयन्) अपने-२ सामर्थ्य में स्थापन करता हुआ (हिरण्ययेन) प्रकाशस्वरूप (रथेन) गमन शक्ति से (भुवनानि) लोकों को (पश्यन्) देखता हुआ (आयाति) अच्छे प्रकार वर्षा आदि रूपों को अलग-२ प्राप्ति करता है ॥२॥

    भावार्थ

    इस मंत्र में श्लेषालंकार है। जैसे सब पृथिवी आदि लोक मनुष्यादि प्राणियों वा सूर्यलोक अपने आकर्षण में पृथिवी आदि लोकों वा ईश्वर अपनी सत्ता से सूर्यादि सब लोकों का धारण करता है ऐसे क्रम से सब लोकों का धारण होता है इसके विना अन्तरिक्ष में किसी अत्यन्त भार युक्त लोक का अपनी परिधि में स्थिति होने का संभव नहीं होता और लोकों के घूमने विना क्षण, मुहूर्त्त, प्रहर, दिन, रात, पक्ष, मास, ऋतु, और संवत्सर आदि कालों के अवयव नहीं उत्पन्न हो सकते हैं ॥२॥

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    विषय

    अब इस मन्त्र में सूर्यलोक के गुणों का उपदेश किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    ईश्वरपक्षे (१)-अयं सविता देवः परमेश्वर आ कृष्णेन रजसा सह अभिव्याप्य वर्त्तमानः सर्वस्मिन् जगति अमृतं मर्त्यं च निवेशयन् सन् हिरण्ययेन यशोमयेन ज्ञानरथेन युक्तः भुवनानि पश्यन् आयाति समन्तात् सर्वान् पदार्थान् प्राप्नोति इति पूर्वः अन्वयः। 


    सूर्यपक्षे (२)-अयं सविता देवः सूर्यलोकः कृष्णेन रजसा सह वर्त्तमानः अस्मिन् जगति अमृतं मर्त्यं च निवेशयन् हिरण्ययेन रथेन भुवनानि पश्यन् दर्शयन् सन् आयाति समंतात् वृष्ट्यादिरूपविभागं च प्रापयति इति अपरः अन्वयः ॥२॥

    पदार्थ

    ईश्वरपक्षे- (१)- (अयम्)=यह, (सविता) सर्वेषां प्रसविता प्रकाशवृष्टिरसानां च प्रसविता=सब जगत् को उत्पन्न करनेवाला और प्रकाश की वृष्टि करने वाला, (परमेश्वरः)=परमेश्वर, (आ) समन्तात्=हर ओर से, (कृष्णेन) कर्षति येन स कृष्णस्तेन। यद्वा कृष्णवर्णेन लोकेन= अपनी आकर्षण शक्ति से खींचता है अथवा कृष्ण वर्ण से लोक को आकर्षित करता है, और (रजसा) लोकसमूहेन सह=लोकसमूह के साथ, (अभिव्याप्य)=समावेशी, (वर्त्तमानः) वर्त्ततेऽसौ वर्त्तमानः=वर्त्तमान है, (सर्वस्मिन्)=समस्त, (जगति)=जगत् में, (अमृतम्) अन्तर्यामितया वेदद्वारा च मोक्षसाधकं सत्यं ज्ञानं वृष्टिद्वाराऽमृतात्मकं रसं वा=अन्तर्यामी परमेश्वर  द्वारा, वेद के द्वारा और मोक्षसाधक सत्य ज्ञान द्वारा, अथवा  वृष्टि के अमृतस्वरूप रस द्वारा, (च)=और, (मर्त्यम्)=मरणधर्मा प्राणियों को, (निवेशयन्) नितरां स्वस्वसामर्थ्ये स्थापयन्=अपनी सामर्थ्य से अच्छी तरह से स्थापित करते हुए, (सन्)=हैं, (हिरण्ययेन) ज्योतिर्मयेनानन्तेन यशसा तेजोमयेन वा यशोमयेन= अनन्त ज्योतिर्मय यश से, (ज्ञानम्)=ज्ञान, (रथेन) रंहतिजानाति गच्छति गमयति वा येन तेन=जिससे जाता है, उससे (युक्तः)=युक्त, (भुवनानि) भवन्ति भूतानि येषु तानि=जिसमें उपस्थित होते हैं, उसे (पश्यन्) प्रेक्षमाणो दर्शयन् वा=देखते हुए, (समन्तात्)= हर ओर से, (सर्वान्)=समस्त, (पदार्थान्)=पदार्थों को, (प्राप्नोति)=प्राप्त होता है ॥२॥

    सूर्यपक्षे(२)- (अयम्)=यह, (सविता) सर्वेषां प्रसविता प्रकाशवृष्टिरसानां च प्रसविता=सब जगत् को उत्पन्न करनेवाला और प्रकाश की वृष्टि करने वाला, (सूर्यलोकः)= सूर्यलोक, (देवः)=देव,   (कृष्णेन) कर्षति येन स कृष्णस्तेन। यद्वा कृष्णवर्णेन लोकेन=अपनी आकर्षण शक्ति से खींचता है अथवा कृष्ण वर्ण से लोक को आकर्षित करता है, और (रजसा) लोकसमूहेन सह=लोकसमूह के साथ, (वर्त्तमानः) वर्त्ततेऽसौ वर्त्तमानः=वर्त्तमान है, (अस्मिन्)=इस, (जगति)=जगत् में, (अमृतम्) अन्तर्यामितया वेदद्वारा च मोक्षसाधकं सत्यं ज्ञानं वृष्टिद्वाराऽमृतात्मकं रसं वा=अन्तर्यामी परनेश्वर  द्वारा, वेदद्वारा और मोक्षसाधक सत्य ज्ञान द्वारा, अथवा  वृष्टि के अमृतस्वरूप रस द्वारा, (च)=और, (मर्त्यम्)=मरणधर्मा प्राणियों को, (निवेशयन्) नितरां स्वस्वसामर्थ्ये स्थापयन्=अपनी सामर्त्य से अच्छी तरह से स्थापित करते हुए, (हिरण्ययेन) ज्योतिर्मयेनानन्तेन यशसा तेजोमयेन वा यशोमयेन=अनन्त ज्योतिर्मय यश से, (रथेन) रंहतिजानाति गच्छति गमयति वा येन तेन=जिससे जाता है, (भुवनानि) भवन्ति भूतानि येषु तानि=जिसमें उपस्थित होते हैं, उसे (पश्यन्) प्रेक्षमाणो दर्शयन् वा=देखते हुए, (आयाति)=आती है और, (समंतात्)=हर ओर से,  (वृष्ट्यादि)=वर्षा आदि के (रूप)=रूप, (च)=और,  (विभागम्)=प्रकार को,      (प्रापयति)=प्राप्त कराता है ॥२॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    इस मंत्र में श्लेषालंकार है। जैसे सब पृथिवी आदि लोक मनुष्यादि प्राणियों वा सूर्यलोक अपने आकर्षण में पृथिवी आदि लोकों वा ईश्वर अपनी सत्ता से सूर्यादि सब लोकों का धारण करता है ऐसे क्रम से सब लोकों का धारण होता है इसके विना अन्तरिक्ष में किसी अत्यन्त भार युक्त लोक का अपनी परिधि में स्थिति होने का संभव नहीं होता और लोकों के घूमने विना क्षण, मुहूर्त्त, प्रहर, दिन, रात, पक्ष, मास, ऋतु, और संवत्सर आदि कालों के अवयव नहीं उत्पन्न हो सकते हैं ॥२॥

    विशेष

    अनुवादक की टिप्पणी- मुहूर्त्त, प्रहर, दिन, रात, पक्ष, मास, ऋतु, और संवत्सर शब्दों को ऋग्वेद के मन्त्र संख्या 01.15.01 में परिभाषित किया गया है। प्रहर-एक दिन में आठ प्रहर होते हैं। एक प्रहर तीन घण्टे का होता है ॥२॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    ईश्वरपक्षे- (१)- (अयम्) यह (सविता) सब जगत् को उत्पन्न करनेवाला और प्रकाश की वृष्टि करने वाला (परमेश्वरः) परमेश्वर (आ) हर ओर से (कृष्णेन) अपनी आकर्षण शक्ति से खींचता है अथवा कृष्ण-वर्ण से लोक को आकर्षित करता है और (रजसा) लोकसमूह के साथ (अभिव्याप्य) समावेशी रूप से (वर्त्तमानः) वर्त्तमान है। (सर्वस्मिन्) समस्त (जगति) जगत् में (अमृतम्) अन्तर्यामी परमेश्वर,  वेद और मोक्षसाधक सत्य ज्ञान द्वारा  अथवा  वृष्टि के अमृतस्वरूप रस द्वारा (च) और (मर्त्यम्) मरणधर्मा प्राणियों को (निवेशयन+सन्) अपनी सामर्थ्य से अच्छी तरह से स्थापित किए हुए है । (हिरण्ययेन) अनन्त ज्योतिर्मय यश से, (ज्ञानम्) ज्ञान के (रथेन) जिस रथ से जाता है, उससे (युक्तः) युक्त (भुवनानि) समस्त संसार जिनमें उपस्थित  होते हैं, उन्हें (पश्यन्) देखते हुए (समन्तात्) हर ओर से (सर्वान्) समस्त (पदार्थान्) पदार्थों को (प्राप्नोति) प्राप्त होता है ॥१॥ 

    सूर्यपक्षे(२)- (अयम्) यह (सविता) सब जगत् में प्रकाश की वृष्टि करने वाला (देवः) देव (सूर्यलोकः) सूर्यलोक  (कृष्णेन) अपनी आकर्षण शक्ति से खींचता है अथवा कृष्ण वर्ण से लोक को आकर्षित करता है और (रजसा) लोकसमूह के साथ (वर्त्तमानः)  वर्त्तमान है। (अस्मिन्) इस (जगति) जगत् में (अमृतम्) अन्तर्यामी परमेश्वर  द्वारा, वेदद्वारा और मोक्षसाधक सत्य ज्ञान द्वारा, अथवा  वृष्टि के अमृतस्वरूप रस द्वारा, (च) और (मर्त्यम्) मरणधर्मा प्राणियों को (निवेशयन्) अपनी सामर्थ्य से अच्छी तरह से स्थापित करते हुए (हिरण्ययेन) अनन्त ज्योतिर्मय यश से (रथेन) जिससे जाता है, (भुवनानि) जिसमें उपस्थित होते हैं, उसे (पश्यन्) देखते हुए (आयाति) आती है और (वृष्ट्यादि) बरसा आदि के (रूप) रूप (च) और  (विभागम्) प्रकार को (प्रापयति) प्राप्त कराता है ॥२॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (आ) समंतात् (कृष्णेन) कर्षति येन स कृष्णस्तेन। यद्वा कृष्णवर्णेन लोकेन। कृष्णं कृष्यतेर्निकृष्टो वर्णः। निरु० २।२०। यत्कृष्णं तदन्नस्य। छान्दो० ६।५। एताभ्यां प्रमाणाभ्यां पृथिवीलोका अत्र गृह्यन्ते कृषेर्वर्णे। उ० ३।४। इति नक् प्रत्ययः। अत्राङ् पूर्वकत्वादाकर्षणार्थो गृह्यते (रजसा) लोकसमूहेन सह। लोकारजांस्युच्यन्ते। निरु० ४।१९। (वर्त्तमानः) वर्त्ततेऽसौ वर्त्तमानः (निवेशयन्) नितरां स्वस्वसामर्थ्ये स्थापयन् (अमृतम्) अन्तर्यामितया वेदद्वारा च मोक्षसाधकं सत्यं ज्ञानं वृष्टिद्वाराऽमृतात्मकं रसं वा (मर्त्यम्) कर्मप्रलयप्राप्तिव्यवस्थया कालव्यवस्थया वा मरणधर्मयुक्तम् प्राणिनम् (च) समुच्चये (हिरण्ययेन) ज्योतिर्मयेनानन्तेन यशसा तेजोमयेन वा ऋत्व्यावस्त्व्यवास्त्वमाध्वीहिरण्ययानि छन्दसि। अ० ६।४।१७५। इत्ययं निपातितः ज्योतिर्हिहिरण्यम्। श० ४।३।१।२१। (सविता) सर्वेषां प्रसविता प्रकाशवृष्टिरसानां च प्रसविता (रथेन) रंहतिजानाति गच्छति गमयति वा येन तेन। रथो रंहतेर्गतिकर्मणः। निरु० ९।११। (आ) समंतात् (देवः) दीव्यति प्रकाशयतीति (याति) प्राप्नोति प्रापयति वा। अत्र पक्षेऽन्तर्गतो ण्यर्थः। (भुवनानि) भवन्ति भूतानि येषु तानि। भूम्० उ० २।७८#। इत्यधिकरणेक्युन् प्रत्ययः। (पश्यन्) प्रेक्षमाणो दर्शयन् वा। अत्रापि पक्षेऽन्तर्गतो ण्यर्थः ॥२॥वै० य० मुद्रित द्वितीयावृत्तौ '२।८०' एषासुत्रसंवर्तते।सं० 
    विषयः- अथ सूर्यलोकगुणा उपदिश्यन्ते।

    अन्वयः- ईश्वरपक्षे (१)-अयं सविता देवः परमेश्वर आकृष्णेन रजसा सहाभिव्याप्य वर्त्तमानः सर्वस्मिन् जगत्यमृतं मर्त्यं च निवेशयन् सन् हिरण्ययेन यशोमयेन ज्ञानरथेन युक्तो भुवनानि पश्यन्नायाति समन्तात् सर्वान्पदार्थान् प्राप्नोतीति पूर्वोऽन्वयः। 

    अन्वयः- सूर्यपक्षे (२)-अयं सविता देवः सूर्यलोकः कृष्णेन रजसा सह वर्त्तमानोऽस्मिन् जगत्यमृतं मर्त्यं च निवेशयन् हिरण्ययेन रथेन भुवनानि पश्यन् दर्शयन् सन्नायाति समंताद् वृष्ट्यादिरूपविभागं च प्रापयतीत्यपरोऽन्वयः ॥२॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र श्लेषालंकारः। यथा पृथिव्यादयो लोकाः सर्वान् मनुष्यादीन् धरन्ति सूर्यलोक आकर्षणेन पृथिव्यादीन् धरति। ईश्वरः स्वसत्तया सूर्यादीन् लोकान् धरति। एवं क्रमेण सर्वलोकधारणं प्रवर्त्तते नैतेन विनान्तरिक्षे कस्यचिद् गुरुत्वयुक्तस्य लोकस्य स्वपरिधौ स्थितेः सम्भवोस्ति। नैव लोकानां भ्रमणेन विना क्षणमुहूर्त्तप्रहराहोरात्रपक्षमासर्तुसंवत्सरादयः कालावयवा उत्पत्तुं शक्नुवन्तीति ॥२॥ 

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    विषय

    सविता देव

    पदार्थ

    १. सूर्याभिमुख होकर प्रार्थना करनेवाला 'हिरण्यस्तूप' ऋषि प्रार्थना करता हुआ कहता है कि यह (आकृष्णेन) - अपनी ओर आकृष्ट किये हुए (रजसा) - लोकसमूह के साथ (वर्तमानः) - वर्तमान (सविता) - सबका प्रेरक सूर्य हम सबको कर्मों में प्रेरित करता है और सब ऐश्वर्यों का उत्पादक होता है । 
    २. यह सविता देव (अमृतम्) - न मरने देनेवाली प्राणशक्ति को (च) - तथा (मर्त्यम्) - मरणधर्मा शरीर को (निवेशयन्) - अपने - अपने स्थान में स्थापित करता हुआ, अर्थात् 'स्व - स्थ' स्वस्थ करता है । जितना अधिक हम सूर्य - किरणों में रहते हैं उतना ही स्वस्थ बनते हैं । 
    ३. यह (सविता देवः) - कर्मों में प्रेरक प्राणशक्ति को देनेवाला सूर्य (हिरण्ययेन रथेन) - अपने ज्योतिर्मय अथवा हितरमणीय रथ से (भुवनानि पश्यन्) - सब प्राणियों का ध्यान करता हुआ [looking at all] (याति) - गति कर रहा है । सूर्य का यह रथ सबका हितकारी है । [प्राणः प्रजानामुदयत्येष सूर्यः] यह सूर्य तो प्रजाओं का प्राण ही है । यह सबका हित करता हुआ अपने मार्ग पर चल रहा है । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - यह सूर्य ही सब लोकों का केन्द्र है । यह हमारे प्राणों व शरीर को स्वस्थ रखता है । सभी का पालन करता हुआ अपने मार्ग का आक्रमण कर रहा है । 
     

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    विषय

    सूर्य के दृष्टान्त से सर्व साक्षी ईश्वर का वर्णन ।

    भावार्थ

    (सविता) काल रूप से सबका उत्पादक, सूर्य (देवः) सबका प्रकाशक और वृष्टि, ताप आदि का देने वाला सूर्य जिस प्रकार स्वयं (कृष्णेन) आकर्षण बल से युक्त, अथवा कृष्ण, प्रकाश रहित पृथिवी आदि (रजसा) लोक समूह के साथ (आवर्त्तमानः) भ्रमण करता हुआ और (अमृतम्) वृष्टि के द्वारा जल और प्राण, चैतन्य और (मर्त्यम्) मरणधर्मा शरीरधारी प्राणियों को (निवेशयन्) स्थापित करता हुआ (हिरण्येन) सर्व लोक-हितकारी और मनोहर, अथवा तेजोयुक्त (रथेन) अति वेगवान् पिण्डसे (भुवनानि) समस्त उत्पन्न लोकों और प्राणियों को (पश्यन्) देखता हुआ जाता है उसी प्रकार परमेश्वर (कृष्णेन रजसा वर्त्तमानः) सर्वाकर्षक लोकसमूहों के साथ उनमें व्यापक रह कर उनमें (अमृतं मर्त्यं च) अमृत मोक्ष-सुख और सत्य ज्ञान तथा मर्त्य, मरने वाले प्राणियों को व्यवस्थित करता हुआ (हिरण्ययेन रथेन) अति आनन्ददायक, तेजोमय, रस स्वरूप से समस्त लोकों को अन्तर्यामी रूप से साक्षात् करता हुआ, सुवर्ण के रथ पर स्थित राजा के समान (याति) हमें प्राप्त है। राजा सुवर्ण के रथ पर बैठ कर आगे घनी धूली सहित प्रयाण करता है। अमृत, सन्तति या अन्नादि मर्त्य, प्राणिगण सबकी व्यवस्था करता हुआ निरीक्षण करता जाता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    हिरण्यस्तूप आङ्गिरस ऋषिः ॥ देवताः—१ अग्निर्मित्रावरुणौ रात्रिः सविता । २-११ सविता ॥ छन्दः- १ विराड् जगती । ९ निचृज्जगती । २, ५, १०, ११ विराट् त्रिष्टुप् । ३, ४, ६ त्रिष्टुप् । ७, ८ भुरिक् पंक्तिः । एकादशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात श्लेषालंकार आहे. जसे पृथ्वी मनुष्य प्राण्यांना धारण करते, सूर्य आपल्या आकर्षणाने पृथ्वीला धारण करतो व ईश्वर आपल्या सत्तेने सूर्याला धारण करतो. अशा क्रमाने सर्व गोलांचे धारण होते. त्याशिवाय अंतरिक्षात भारयुक्त गोल आपल्या परिधीत राहणे शक्य नाही व गोल फिरल्याखेरीज क्षण, मुहूर्त, प्रहर, दिवस, रात्र, पक्ष, मास, ऋतू व संवत्सर इत्यादी काळाचे अवयव उत्पन्न होऊ शकत नाहीत. ॥ २ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Savita, lord of life and light, existing and abiding with the regions of the universe, sustaining them with his centripetal force of gravitation, enveloping the mortals and the immortals, goes on and on in self- refulgent glory in his golden chariot, watching and illuminating the worlds of existence.$(The mantra is applicable to both Ishvara, Lord creator, and the sun, sustainer and illuminator of the solar world.)

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    Subject of the mantra

    In this mantra qualities of the Sun-world have been preached.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    First in favour of God- (ayam)=This (savitā)=The creator of all the worlds and showering light, (parameśvaraḥ)=God, (ā)=frim all sides, (kṛṣṇena)=attracts with its power in other words attracts people with its black colour, [aura]=and, (rajasā)=with the crowd (abhivyāpya)=inclusively, (varttamānaḥ)=is present, (sarvasmin)=all, (jagati)=in the world,(amṛtam)=by inner dweller God, Vedas, and by true knowledge of salvation seekers, in other words by the nectar of rain, (ca)=and (martyam)=to mortal beings, (niveśayan+san)=well establishing by his strength, (hiraṇyayena)=with eternal glory, (jñānam)=of the knowledge, (rathena)=the chariot by which it goes, by that, (yuktaḥ)=containing, (bhuvanāni) =all the worlds in which are present, in them, (paśyan)=Seeing it, (samantāt)=from all sides, (sarvān)=all, (padārthān)=to substances, (prāpnoti)=gets obtained. Second in favour of Sun- (ayam)=This, (savitā)=one who showers rain of light in all the worlds, (devaḥ)=deity, (sūryalokaḥ)=Sun world, (kṛṣṇena)=attracts with its power in other words attracts people with its black colour, [aura]=and, (rajasā)=with the crowd, (varttamānaḥ) =is present, (asmin)=this, (jagati)=in the world, (amṛtam) =by inner dweller God, Vedas, and by true knowledge of salvation seekers, in other words by the nectar of rain, (ca)=and, (martyam)=to mortal beings, (niveśayan)=well established by his strength, (hiraṇyayena)=with eternal glory, (rathena)=the chariot by which it goes, (bhuvanāni)=in which are present, [use]=to that, (paśyan)=seeing, (san)=are, (āyāti)=comes and, (vṛṣṭyādi)=of showering rain etc., (rūpa)=form, (ca)=and, (vibhāgam)=to shape, ( prāpayatati)=gets obtained.

    English Translation (K.K.V.)

    First in favour of God- This God, the creator of all the worlds and the one who showers the light, pulls or attracts the worlds with black color from all sides and is present inclusively with the group of worlds. In the whole world, the God, by the knowledge of the Vedas and the seekers of salvation, or by the juice of the nectar of rain and by his power, the creatures of the nature of death are well established. The chariot of knowledge, in which He travels with infinite effulgent glory, seeing all the worlds, in which He is present, gets obtained all things from every side. (Rigveda 01/35/02) English Translation (K.K.V.) Second in favour of Sun All this is attracted by the deity Sun-world, who showers light in the world or attracts the world with black colour and is present with the group of worlds. In this world by the inner dweller God, by the Vedas and by the true knowledge of salvation, or by the juice of the nectar of rain and by his power to establish well the mortals, by the fame of the eternal light, which leads, in which the seers are present. It comes looking at him and gets the form and type of rain etcetera.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There is paronomasia as figure of speech in this mantra. Just like all the earth and other human beings or the Sun-world in its attraction, the earth, etc., or God with his power holds all the Sun and all the worlds, in such a sequence, all the worlds are held, without this cannot be the position of a very heavy weighted world in space in its periphery. It is not possible to exist and without the rotation of the worlds, the components of the moments like moment, muhūrtta, prahara, dina, rāta, pakṣa, māsa, ṛtu, and saṃvatsara et cetera cannot arise.

    TRANSLATOR’S NOTES-

    The terms-muhūrtta, prahara, dina, rāta, pakṣa, māsa, ṛtu, and saṃvatsara have been defined in translaters notes of the mantra.

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    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    (1) In the case of God, the meaning of the Mantra is- The Supreme Lord is upholding all spheres with His Glorious power of attraction and with the gift of knowledge which makes the joy producing activities possible. He vouchsafes true knowledge to mortal men. He bestows immortality on the dwellers of the earth. The Self-effulgent Lord upholds all the worlds and makes everything and the form and color of all objects clear and distinct. (2) In the case of the Sun the meaning of the Mantra is— The Lustrous Sun is upholding all spheres with his brilliant Power of attraction and with the gift of light which makes the happiness-producing activities possible. He vouchsafes the band of rays to the abode of mortal man or fixes his place for it. He bestows rain which produces vegetation and hence is a source of life on the earth. The brilliant sun upholds all the worlds and makes everything visible and the form and color of all objects clear and distinct.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    ( कृष्णेन ) कर्षति येन. स कृष्णः तेन कृषेर्वर्णे ( उणा० ३.४) इति नक् प्रत्ययः । अत्राङ् पूर्वकत्वात् आकर्षणार्थो गृह्यते ॥ = gravitating. (रजसा) लोकसमूहेन सह लोका रजांस्युच्यन्ते ( निरु० ४.१९) = Worlds or spheres. ( अमृतम् ) अन्तर्यामितया वेदद्वारा च मोक्षसाधकं सत्यं ज्ञानं दृष्टिद्वाराऽमृतात्मकं रसं वा । = True knowledge which leads to immortality or sap through the rain. (हिरण्ययेन) ज्योतिर्मयेन अनन्तेन यशसा तेजोमयेन वा ज्योतिर्हिरण्यम् (शत० ४.३.१.२१) । = Full of light, glorious or brilliant. [सविता] सर्वेषां प्रसविता = God as Creator of all. [२] प्रकाशवृष्टिरसानां च प्रसविता = The Sun source of light, rain and sap. [रथेन] रहति-जानाति गच्छति गमयति वा येन तेन रथो रहतेर्गतिकर्मण: [निरु० ९.११] = Chariot in the form of knowledge in the case of God and Chariot metaphorically in the case of the Sun. [पश्यन्] [१] प्रेक्षमाणः = Seeing-in case of God. [२]दर्शयन् = Causing or enabling to see, in the case of the Sun. [देव:] दीव्यति प्रकाशयतीति = Giver of Light, Refulgent.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    There is Shleshalankara or double meaning here. As the earth and other worlds uphold men and other creatures, in the same way, the solar world upholds the earth and other spheres by its attracting power or gravitation. God upholds the sun and other worlds by His power. In this way, all worlds are upheld in proper order. Without this, it is not possible for any world with weight and velocity to stay in its axis. Without the rotation of the worlds it is not possible to have the parts of time like the seconds, hours, days and nights, fortnights, months, seasons and years etc.

    Translator's Notes

    Rishi Dayananda gives double meaning of the Mantra taking the word ( सविता ) in the sense of God and the sun, for which he has quoted from the Brahmanas. The following quotations from the Shatapath, Kaushitaki and other Brahmahas can be aptly given. सविता वै देवानां प्रसविता [शतपथ १.१.२.१७] [जैमिनीयोपनिषद् ब्राह्मणे ३.१८.३] सविता वै प्रसविता [कौषीतकी ब्रा० ६.१४] यो ह्येव सविता स प्रजापतिः । [शत० १२.३.५.१ - गोपथ ब्रा० पू० ५.२२] प्रजापतिर्वै सविता [ताण्ड्य महाब्राह्मणे १६.५.१७] असावादित्यो देवः सविता [ शत० ६.३.१.१८]॥ These quotations clearly show that the word Savita) stands both for God and the sun.

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