ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 35/ मन्त्र 4
ऋषिः - हिरण्यस्तूप आङ्गिरसः
देवता - सविता
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
अ॒भीवृ॑तं॒ कृश॑नैर्वि॒श्वरू॑पं॒ हिर॑ण्यशम्यं यज॒तो बृ॒हन्त॑म् । आस्था॒द्रथं॑ सवि॒ता चि॒त्रभा॑नुः कृ॒ष्णा रजां॑सि॒ तवि॑षीं॒ दधा॑नः ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒भिऽवृ॑तम् । कृश॑नैः । वि॒श्वऽरू॑प॒म् । हिर॑ण्यऽशम्यम् । य॒ज॒तः । बृ॒हन्त॑म् । आ । अ॒स्था॒त् । रथ॑म् । स॒वि॒ता । चि॒त्रऽभा॑नुः । कृ॒ष्णा । रजां॑सि । तवि॑षीम् । दधा॑नः ॥
स्वर रहित मन्त्र
अभीवृतं कृशनैर्विश्वरूपं हिरण्यशम्यं यजतो बृहन्तम् । आस्थाद्रथं सविता चित्रभानुः कृष्णा रजांसि तविषीं दधानः ॥
स्वर रहित पद पाठअभिवृतम् । कृशनैः । विश्वरूपम् । हिरण्यशम्यम् । यजतः । बृहन्तम् । आ । अस्थात् । रथम् । सविता । चित्रभानुः । कृष्णा । रजांसि । तविषीम् । दधानः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 35; मन्त्र » 4
अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 6; मन्त्र » 4
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अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 6; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
(अभिवृतम्) अभितः सर्वतः साधनैः पूर्णो वर्त्तते सोऽभीवृत्तम्। नहिवृति० अ० ६।३।११६। इति पूर्वस्य दीर्घत्वम् (कृशनैः) तनूकरणैः सूक्ष्मत्वनिष्पादकैः किरणैर्विविधैरूपैर्वा। कृशनमिति रूपनामसु पठितम्। निघं० ३।७। (विश्वरूपम्) विश्वानि बहूनि रूपाणि यस्मिन् प्रकाशे तम् (हिरण्यशम्यम्) हिरण्य सुवर्णान्यन्यानि वा ज्योतींषि शम्यानि शमितुं योग्यानि यस्मिँस्तम् (यजतः) सङ्गतिप्रकाशयोर्दाता (बृहन्तम्) महान्तम् (आ) समंतात् (अस्थात्) तिष्ठति। अत्र लडर्थे लुङ् (रथम्) यस्मिन् रमते तम्। रममाणोऽस्मिँस्तिष्ठतीति वा। निरु० ९।११। (सविता) ऐश्वर्यवाव्राजा सूर्यलोको वायुर्वा। सवितेति पदनामसु पठितम्। निघं० ५।४। अनेन प्राप्तिहेतोर्वायोरपिग्रहणम्। (चित्रभानुः) चित्राभानवो दीप्तयो यस्य यस्माद्वा सः (कृष्णा) कृष्णान्याकर्षणकृष्णवर्णयुक्तानि पृथिव्यादीनि (रजांसि) लोकान् (तविषीम्) बलम्। तविषीति बलनामसु पठितम्। निघं० २।९। (दधानः) धरन् ॥४॥
अन्वयः
पुनस्तयोर्दृष्टान्तेन राजकृत्यमुपदिश्यते।
पदार्थः
हे सभेश राजँस्त्वं यथा यजतश्चित्रभानुः सवितासूर्यो वायुर्वा कृशनैः किरणैरूपैर्वा बृहन्तं हिरण्यशम्यमभीवृतं विश्वरूपं रथं कृष्णानि रजांसि पृथिव्यादिलोकांस्तविषीं बलं च दधानः सन्नास्थात् समंतात् तिष्ठति तथा भूत्वा वर्त्तस्व ॥४॥
भावार्थः
अत्र श्लेषवाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। यथा सूर्यादिजनननिमित्तः सूर्यादिलोकधारको बलवान् सर्वान् लोकानाकर्षणाख्यां बलं च धरन् वायुर्वर्त्तते यथा च सूर्यलोकः स्वसन्निहितान् लोकान् धरन् सर्वं रूपं प्रकटयन् बलाकर्षणाभ्यां सर्वं धरति नैताभ्यां विना कस्यचित् परमाणोरपि धारणं संभवति। तथैव राजा शुभगुणाढ्यो भूत्वा राज्यं धरेत् ॥४॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर भी अगले मन्त्र में उन दोनों के दृष्टान्त से राजकार्य्य का उपदेश किया है।
पदार्थ
हे सभा के स्वामी राजन् ! आप जैसे (यजतः) संगति करने वा प्रकाश का देनेवाला (चित्रभानुः) चित्र विचित्र दीप्ति युक्त (सविता) सूर्यलोक वा वायु (कृशनैः) तीक्ष्ण करनेवाले किरण वा विविध रूपों से (बृहंतम्) बड़े (हिरण्यशम्यम्) जिसमें सुवर्ण वा ज्योति शांत करने योग्य हो (अभीवृतम्) चारों ओर से वर्त्तमान (विश्वरूपम्) जिसके प्रकाश वा चाल में बहुत रूप हैं उस (रथम्) रमणीय रथ (कृष्णा) आकर्षण वा कृष्णवर्ण युक्त (रजांसि) पृथिव्यादि लोकों और (तविषीम्) बल को (दधानः) धारण करता हुआ (आस्थात्) अच्छे प्रकार स्थित होता है वैसे अपना वर्त्ताव कीजिये ॥४॥
भावार्थ
इस मंत्र में श्लेष और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जैसे सूर्य आदि की उत्पत्ति का निमित्त सूर्य आदि लोक का धारण करनेवाला बलवान् सब लोकों और आकर्षणरूपी बल को धारण करता हुआ वायु विचरता है और जैसे सूर्य्यलोक अपने समीप स्थलोंको धारण और सब रूप विषय को प्रकट करता हुआ बल वा आकर्षण शक्ति से सबको धारण करता है और इन दोनों के विना किसी स्थूल वा सूक्ष्म वस्तु के धारण का संभव नहीं होता वैसे ही राजा को होना चाहिये कि उत्तम गुणों से युक्त होकर राज्य का धारण किया करे ॥४॥
विषय
फिर भी इस मन्त्र में उन दोनों के दृष्टान्त से राजकार्य्य का उपदेश किया है।
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे सभेश राजन् त्वं यथा यजतः चित्रभानुः सविता सूर्यः वायुः वा कृशनैः किरणरूपैः वा बृहन्तंहिरण्यशम्यं अभीवृतं विश्वरूपं रथं कृष्णानि रजांसि पृथिव्यादिलोकान् तविषीं बलं च दधानः सन् आ स्थात् समन्तात् तिष्ठति तथा भूत्वा वर्त्तस्व ॥४॥
पदार्थ
हे (सभेश)=सभा के स्वामी, (राजन्)=राजन् ! (त्वम्)=तुम, (यथा)=जैसे, (यजतः) सङ्गतिप्रकाशयोर्दाता=संगति करने वा प्रकाश का देनेवाले, (चित्रभानुः) चित्राभानवो दीप्तयो यस्य यस्माद्वा सः=चित्र विचित्र दीप्ति युक्त, (सविता) ऐश्वर्यवान् राजा सूर्यलोको वायुर्वा=ऐश्वर्यवान् राजा अथवा सूर्यलोक के वायु, (कृशनैः) तनूकरणैः सूक्ष्मत्वनिष्पादकैः किरणैर्विविधैरूपैर्वा=क्षीण करने से सूक्ष्म किये गये अथवा किरणों के विविध रूपों से, (बृहन्तम्) महान्तम्=लम्बे समय तक, (हिरण्यशम्यम्) हिरण्य सुवर्णान्यन्यानि वा ज्योतींषि शम्यानि शमितुं योग्यानि यस्मिँस्तम्=जिसमें सुवर्ण वा ज्योति शांत करने योग्य हो, (अभिवृतम्) अभितः सर्वतः साधनैः पूर्णो वर्त्ततेऽ भीवृत्तम्=जिसके साधन हर ओर से विद्यमान हैं, (विश्वरूपम्) विश्वानि बहूनि रूपाणि यस्मिन् प्रकाशे तम्=जिसके प्रकाश में बहुत से रूप हैं, उसको, (रथम्) यस्मिन् रमते तम्=जिसमें प्रसन्न होते हैं, (कृष्णानि) कृष्णान्याकर्षणकृष्णवर्णयुक्तानि पृथिव्यादीनि= आकर्षण वा कृष्णवर्ण युक्त, (च)=और, (रजांसि) पृथिव्यादिलोकान्=पृथिवी आदि लोकों के, (तविषीम्)=बल को, (दधानः+सन्)=धारण करते हुए, (आ)=हर ओर से, (तिष्ठति)=स्थित रहता है, (तथा)=वैसे ही, (भूत्वा)=होकर, (वर्त्तस्व)=व्यवहार कीजिये॥४॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
इस मंत्र में श्लेष और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जैसे सूर्य आदि की उत्पत्ति का निमित्त सूर्य आदि लोक का धारण करनेवाला बलवान् सब लोकों और आकर्षण रूपी बल को धारण करता हुआ वायु विचरता है और जैसे सूर्य्यलोक अपने समीप स्थलोंको धारण और सब रूप विषय को प्रकट करता हुआ बल वा आकर्षण शक्ति से सबको धारण करता है और इन दोनों के विना किसी स्थूल वा सूक्ष्म वस्तु के धारण का संभव नहीं होता वैसे ही राजा को होना चाहिये कि उत्तम गुणों से युक्त होकर राज्य का धारण किया करे ॥४॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (सभेश) सभा के स्वामी (राजन्) राजन् ! (त्वम्) तुम (यथा) जैसे (यजतः) संगति करने वा प्रकाश के देनेवाले (चित्रभानुः) चित्र-विचित्र दीप्ति युक्त (सविता) ऐश्वर्यवान् राजा अथवा सूर्यलोक के वायु को (कृशनैः) क्षीण करने से सूक्ष्म किये गये अथवा किरणों के विविध रूपों से (बृहन्तम्) लम्बे समय तक (हिरण्यशम्यम्) जिसमें सुवर्ण वा ज्योति शांत करने योग्य हो (अभिवृतम्) जिसके साधन हर ओर से विद्यमान हैं (विश्वरूपम्) जिसके प्रकाश में बहुत से रूप हैं, उसको (रथम्) जिसमें प्रसन्न होते हैं (कृष्णानि) आकर्षण वा कृष्णवर्ण युक्त (च) और (रजांसि) पृथिवी आदि लोकों के (तविषीम्) बल को (दधानः+सन्) धारण करते हुए, (आ) हर ओर से (तिष्ठति) स्थित रहता है। (तथा) वैसे ही (भूत्वा) होकर (वर्त्तस्व) व्यवहार कीजिये ॥४॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (अभिवृतम्) अभितः सर्वतः साधनैः पूर्णो वर्त्तते सोऽभीवृत्तम्। नहिवृति० अ० ६।३।११६। इति पूर्वस्य दीर्घत्वम् (कृशनैः) तनूकरणैः सूक्ष्मत्वनिष्पादकैः किरणैर्विविधैरूपैर्वा। कृशनमिति रूपनामसु पठितम्। निघं० ३।७। (विश्वरूपम्) विश्वानि बहूनि रूपाणि यस्मिन् प्रकाशे तम् (हिरण्यशम्यम्) हिरण्य सुवर्णान्यन्यानि वा ज्योतींषि शम्यानि शमितुं योग्यानि यस्मिँस्तम् (यजतः) सङ्गतिप्रकाशयोर्दाता (बृहन्तम्) महान्तम् (आ) समंतात् (अस्थात्) तिष्ठति। अत्र लडर्थे लुङ् (रथम्) यस्मिन् रमते तम्। रममाणोऽस्मिँस्तिष्ठतीति वा। निरु० ९।११। (सविता) ऐश्वर्यवाव्राजा सूर्यलोको वायुर्वा। सवितेति पदनामसु पठितम्। निघं० ५।४। अनेन प्राप्तिहेतोर्वायोरपिग्रहणम्। (चित्रभानुः) चित्राभानवो दीप्तयो यस्य यस्माद्वा सः (कृष्णा) कृष्णान्याकर्षणकृष्णवर्णयुक्तानि पृथिव्यादीनि (रजांसि) लोकान् (तविषीम्) बलम्। तविषीति बलनामसु पठितम्। निघं० २।९। (दधानः) धरन् ॥४॥
विषयः- पुनस्तयोर्दृष्टान्तेन राजकृत्यमुपदिश्यते।
अन्वयः- हे सभेश राजँस्त्वं यथा यजतश्चित्रभानुः सवितासूर्यो वायुर्वा कृशनैः किरणैरूपैर्वा बृहन्तं हिरण्यशम्यमभीवृतं विश्वरूपं रथं कृष्णानि रजांसि पृथिव्यादिलोकांस्तविषीं बलं च दधानः सन्नास्थात् समंतात् तिष्ठति तथा भूत्वा वर्त्तस्व ॥४॥
भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्रोपमालङ्कारः। यथासूर्यो दिनं पृथिव्यादिकं प्रकाशं च धृत्वा वृत्रान्धकारं निवार्य वृष्ट्या सर्वान् प्राणिनः सुखयति तथैव मनुष्यैः सद्गुणान् धृत्वाऽसद्गुणाँस्त्यक्त्वाऽधार्मिकान् दण्डयित्वा विद्यासुशिक्षाधर्मोपदेशवर्षणेन सर्वान् प्राणिनः सुखयित्वा सत्यराज्यं प्रचारणीयमिति ॥४॥
विषय
शक्ति व प्रकाश का केन्द्र
पदार्थ
१. (यजतः) - संगति करने योग्य (सविता) - सबका कार्यों में प्रवर्तक सूर्य (रथम्) - अपने रथ पर (आस्थात्) - स्थित होता है जो रथ [क] (अभीवृतम्) - [अभितो वर्तते] सब दिशाओं में वर्तमान होनेवाला व जानेवाला है ; सूर्य अपने प्रकाश के द्वारा सर्वत्र पहुँचता है, सम्भवतः यहाँ 'अभि' शब्द का भाव 'दोनों ओर' लेना अधिक संगत है, सूर्य का प्रकाश पृथिवी के दोनों ओर पहुँचता है - पृथिवी का जो भाग सूर्याभिमुख होता है वहाँ सूर्य की किरणें सीधी पहुँच रही होती हैं, और दूसरे भाग पर चन्द्रमा से प्रतिक्षिप्त होकर सूर्यकिरणें भू - भाग को प्रकाशित करती हैं । [ख] (कृशनैः) - जलों को सूक्ष्म करनेवाली किरणों से [सूक्ष्मत्वनिष्पादकैः, द०] (विश्वरूपम्) - इस संसार को सुन्दरता प्राप्त करानेवाले । यदि सूर्यकिरणों से जलों का वाष्पीकरण न होता तो वृष्टि के अभाव में इस संसार का स्वरूप एक मृत - पुरुष के समान होता [ग] (हिरण्यशम्यम्) - यह रथ स्वर्ण के शंकुओंवाला है, इसकी एक - एक किरण की सूई [Golden needle] के समान है [हिरण्यानि शम्यानि यस्मिन्, द०] । अथवा सब अन्य ज्योतियों को शान्त करनेवाला है, इसके उदित होने पर अन्य ज्योतियों का प्रकाश मन्द पड़ जाता है । [घ] (बृहन्तम्) - इसका यह रथ वृद्धि का कारणभूत है [बृहि वृद्धौ] । सब उपज इसी के कारण होती है । सूर्यकिरणों के अभाव में पृथिवी में भी उपजाऊ शक्ति का अभाव हो जाता है ।
२. यह सूर्य (चित्रभानुः) - अद्भुत किरणों व प्रकाशवाला है । इसकी विविध किरणें भिन्न - भिन्न रोगों को शान्त करनेवाली होती हैं, सर्वत्र प्राणशक्ति का संचार करती हैं । इसकी किरणें केवल प्रकाश देने का कार्य नहीं करतीं ।
३. यह सूर्य (कृष्णा रजांसि) - आकृष्ट लोकसमूहों को लक्ष्य करके (तविषीम्) - बल को (दधानः) - धारण कर रहा है । एक सौरलोक में सूर्य के चारों ओर जितने भी पिण्ड घूमते हैं, उनमें शक्ति का संचार सूर्य द्वारा ही हो रहा होता है ।
भावार्थ
भावार्थ - सम्पूर्ण शक्ति व वृद्धि का स्रोत यह सूर्य ही है । इसकी किरणें प्रकाश व शक्ति दोनों को प्राप्त कराती हैं ।
विषय
विश्वरूप प्रभु
भावार्थ
(यजतः) प्रकाशों का देने हारा (सविता) सूर्य जिस प्रकार (कृशनैः) जलों को अति सूक्ष्म करने में समर्थ किरणों से (अभी वृतम्) व्याप्त (विश्वरूपम्) सब तेजों, कान्तियों को धारण करने वाले (हिरण्यशम्यम्) सुवर्ण आदि धातुओं तथा उच्च ज्योतियों को भी शान्त कर देने वाली प्रखर शक्तियों से युक्त (वृहन्तम् रथम्) बड़े भारी गतिशील पिण्ड में (आ अस्थात्) स्थित है। वह (चित्रभानुः) विचित्र तेजों से युक्त होकर (कृष्णा) प्रकाश से रहित और आकर्षण गुण वाले (रजांसि) लोकों को और स्वयं भी (तविषी) बड़ी भारी शक्ति को धारण किये रहता है। उसी प्रकार (यजतः सविता) दानशील, पूजनीय, सूर्य के समान तेजस्वी राजा (कृशनैः अभीवृतम्) शत्रुओं को पीड़न करने वाले एवं लोहमय शस्त्रधारियों से घिरे हुए (विश्वरूपम्) सब प्रकार के गज, अश्व, पदाति आदि को अपने वश करने वाले (हिरण्यशम्यम्) सुवर्ण या लोह की बनी शङ्कु या कीलों से जड़े (वृहन्तं रथं) बड़े विशाल रथ पर (आ अस्थात्) चढ़े। और (चित्रभानुः) विविध कान्तियों से युक्त होकर (कृष्णा रजांसि) अन्धकार करने वाले धूलि पटलों या कर्षणशील अन्नोत्पादक प्रजा जनों को और (तविषीम्) बलवती सेना को (दधानः) धारण पोषण करने वाला हो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
हिरण्यस्तूप आङ्गिरस ऋषिः ॥ देवताः—१ अग्निर्मित्रावरुणौ रात्रिः सविता । २-११ सविता ॥ छन्दः- १ विराड् जगती । ९ निचृज्जगती । २, ५, १०, ११ विराट् त्रिष्टुप् । ३, ४, ६ त्रिष्टुप् । ७, ८ भुरिक् पंक्तिः । एकादशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात श्लेष व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. जसा सूर्य इत्यादीच्या उत्पत्तीचे निमित्त, सूर्य इत्यादी गोलाचे धारण करणारा, बलवान, सर्व लोक (गोल) व आकर्षणरूपी बल धारण करीत वायू विचरण करतो व जसा सूर्य आपल्या जवळच्या स्थानांना धारण करून सर्व रूप प्रकट करून बल व आकर्षणशक्तीने सर्वांना धारण करतो. या दोन्हींशिवाय एखाद्या स्थूल किंवा सूक्ष्म वस्तूचे धारण शक्य नाही. तसे राजाने शुभगुणयुक्त होऊन राज्याचे धारण करावे. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Savita, adorable and companionable lord of wondrous light, commanding enormous power, holding the world regions by his subtle waves of gravitation, rides the vast, beautiful and autonomous world of infinite forms brighter than gold.
Subject of the mantra
Even then, by illustrating both of them (air and Sun) state affairs preaching has been done in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (sabheśa)=lord of the Assembly, (rājan)=king, (tvam)=you, (yathā) like, (yajataḥ)=associate giving company and illuminating, (citrabhānuḥ)=pictorial and radiant, (savitā)=the majestic king or the wind of the sun-world, (kṛśanaiḥ)=attenuated to subtle form or air of the sun-world, (bṛhantam)=for a long time, (hiraṇyaśamyam)=in which gold or light is pacifying, (abhivṛtam)=whose means are everywhere, (viśvarūpam)=In whose light there are many forms, to him, (ratham)=in which rejoice, (kṛṣṇāni) =attractive or dark coloured, (ca)=and, (rajāṃsi)=of the earth etc. worlds, (taviṣīm)=to power, (dadhānaḥ+san)=holding, [aura]=and, (ā)=from all sides, (tiṣṭhati)=stays stationed, (tathā)=in the same way, (bhūtvā)=becoming, (varttasva)=behave.
English Translation (K.K.V.)
O Lord of the assembly king! Images such as, you who associate or illuminate splendidly majestic king with pictorial and radiant or the air of the Sun world were made subtle by attenuation or by various forms of rays for a long time in which gold or light is able to pacify, the means of which are everywhere. In whose light there are many forms to those, in whom they are pleased, possessed of attractiveness or black-colour and possesses the power of the earth etc. and remains stationed from all sides. Behave in the same way.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
This mantra has a simile and a vocal latent simile as figurative. As the instrument of origin of the Sun etc., the mighty one who holds the Sun and the other worlds moves around all the worlds and holds the force of attraction and like the Sun, holding the places near him and revealing all the forms and objects, imbues everyone with force or attraction power. And without both of these it is not possible to hold any gross or subtle thing, similarly a king should possess the best qualities and hold the kingdom.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
By their (of the air and the sun) illustration the duties of a king are taught.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O king or President of the Assembly, you should be like the many rayed sun who is giver of light, having power to disperse darkness with his brightest splendor from the world, decorated with many kinds of golden ornaments and furnished with golden yokes mounted on his golden chariot ( so to speak ) many-hued. You should also be like the air which upholds the world. (It is to be clearly understood that this description of the sun is poetical and metaphorical).
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
( कृशनै: ) तनूकरणै: सूक्ष्मत्वनिष्पादकैः किरणविविधरूपैर्वा कृशनमिति रूपनामसु पठितम् (निघ० ३.७ ) = With his attenuating rays or various forms. ( यजतः ) संगतिप्रकाशयोर्दाता = Giver of Unity and light. ( रथम् ) यस्मिन् रमते तम् रममाणस्तिष्ठतीति वा (निरुक्ते ९.११) (सविता) ऐश्वर्यवान् राजा सूर्यलोको वायुर्वा । सवितेति पदनामसु पठितम् ( निघ० ५.४ ) अनेन प्राप्तिहेतोर्वायोरपि ग्रहणम् । = (1) Wealthy King or President. (2) The sun, (3) The air.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As there is the mighty air which is the cause of the sun and other objects and upholder of the solar and other worlds, having the power of gravitation and as there is the sun sustaining all worlds and manifesting all forms with his power and attraction and without them (the air and the sun) not even an atom can be sustained, so a king should maintain kingdom being full of the wealth of virtues.
Translator's Notes
For the meaning of the Savita as air, we have already quoted passages from the Brahmanas. The word सविता is from षु प्रसश्वर्ययो: So the meaning of the word as wealthy king is clear.
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