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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 35 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 35/ मन्त्र 7
    ऋषिः - हिरण्यस्तूप आङ्गिरसः देवता - सविता छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    वि सु॑प॒र्णो अ॒न्तरि॑क्षाण्यख्यद्गभी॒रवे॑पा॒ असु॑रः सुनी॒थः । क्वे॒३॒॑दानीं॒ सूर्यः॒ कश्चि॑केत कत॒मां द्यां र॒श्मिर॒स्या त॑तान ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि । सु॒ऽप॒र्णः । अ॒न्तरि॑क्षाणि । अ॒ख्य॒त् । ग॒भी॒रऽवे॑पाः । असु॒रः । सु॒ऽनी॒थः । क्व॑ । इ॒दानी॒म् । सूर्यः॑ । कः । चि॒के॒त॒ । क॒त॒माम् । द्याम् । र॒श्मिः । अ॒स्य॒ । आ । त॒ता॒न॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वि सुपर्णो अन्तरिक्षाण्यख्यद्गभीरवेपा असुरः सुनीथः । क्वे३दानीं सूर्यः कश्चिकेत कतमां द्यां रश्मिरस्या ततान ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वि । सुपर्णः । अन्तरिक्षाणि । अख्यत् । गभीरवेपाः । असुरः । सुनीथः । क्व । इदानीम् । सूर्यः । कः । चिकेत । कतमाम् । द्याम् । रश्मिः । अस्य । आ । ततान॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 35; मन्त्र » 7
    अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 7; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    (वि) विशेषार्थे (सुपर्णः) शोभनपतनशीला रश्मयो यस्य। सुपर्णा इति रश्मिनामसु पठितम्। निघं० १।५। (अन्तरिक्षाणि) अन्तरिक्षस्थानि सर्वाणि भुवनानि (अख्यत्) ख्यापयति प्रकाशयति (गभीरवेपाः) गभीरोऽविद्वद्भिर्लक्षितुमशक्यो वेपः कंपनं यस्य सः। टुवेपृकंपन अस्मात्सर्वधातुभ्योऽसुन् इत्यसुन् प्रत्ययः (असुरः) सर्वेभ्यः प्राणदः सूर्य्योदये मृता इवोत्तिष्ठन्तीत्यतः। असुषु प्राणेषु रमते वा। (सुनीथः) सुष्ठनीथाः पदार्थप्राप्तयो यस्मात् सः। हनिकुषि० उ० २।२। अनेन णीञ् प्रापणे धातोः क्थन् प्रत्ययः (क्व) कुत्र (इदानीम्) अस्मिन् समये वर्त्तमानायां रात्रौ (सूर्यः) (कः) विद्वान् (चिकेत) केतति जानाति। अत्र कितज्ञाने धातोर्लडर्थे लिट्। (कतमाम्) बहूनां पृथिवीनां मध्ये काम् (द्याम्) द्योतनात्मिकाम् (रश्मिः) ज्योतिः (अस्य) सूर्यस्य (आ) समन्तात् (ततान) तनोति विस्तृणोति। अत्रापि लडर्थे लिट् ॥७॥

    अन्वयः

    पुनरस्य सूर्यलोकस्य गुणा उपदिश्यन्ते।

    पदार्थः

    हे विद्वन् यथाऽसुरो गभीरवेपाः सुनीथः सुपर्णोस्यरश्मिरन्तरिक्षाणिव्यख्यद्विख्यापयति प्रकाशयति तेन रश्मिगणेन युक्तः सूर्य्य इदानीं क्व वर्त्तते। एतत्कश्चिकेत को जानाति। कतमां द्यामस्य सूर्य्यस्य रश्मिराततानैतदपि कश्चिकेत। कश्चिदेव जानाति न तु सर्वे तदेतत्त्वमवेहि ॥७॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यदायं भूगोलो भ्रमणेन सूर्य प्रकाशमाच्छाद्यान्धकारं जनयति तदाऽविद्वांसो जनाः पृच्छन्तीदानीं सूर्य्यः क्व गत इति तंप्रश्नमुत्तरेणैवं समादध्यात् पृथिव्या अपरे पृष्ठेस्तीति यस्य चलनमतीव सूक्ष्ममस्त्यतः प्राकृतैर्जनैर्न विज्ञायत एवं विद्वद्भिप्रायोपि ॥७॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर इस सूर्यलोक के गुणों का उपदेश अगले मंत्र में किया है।

    पदार्थ

    हे विद्वज्जन ! जैसे यह सूर्य्यलोक जो (असुरः) सबके लिये प्राणदाता अर्थात् रात्रि में सोये हुओं को उदय के समय चेतनता देने (गभीरवेपाः) जिसका कंपन गभीर अर्थात् सूक्ष्म होने से साधारण पुरुषों के मन में नहीं बैठता (सुनीथः) उत्तम प्रकार से पदार्थों की प्राप्ति कराने और (सुपर्णः) उत्तम पतन स्वभाव किरण युक्त सूर्य्य (अन्तरिक्षाणि) अन्तरिक्ष में ठहरे हुए सब लोकों को (व्यख्यत्) प्रकाशित करता है (इदानीम्) इस वर्त्तमान समय रात्रि में (क्व) कहाँ है। इस बात को (कः) कौन (चिकेत) जानता तथा (कतमाम्) बहुतों में किस (द्याम्) प्रकाश को (अस्य) इस सूर्य्य के (रश्मिः) किरण (आततान) व्याप्त हो रहे हैं इस बात को भी कौन जानता है अर्थात् कोई-२ जो विद्वान् हैं वे ही जानते हैं सब साधारण पुरुष नहीं इस लिये सूर्य्यलोक का स्वरूप और गति आदि को तूं जान ॥७॥

    भावार्थ

    इस मंत्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है जब यह भूगोल अपने भ्रमण से सूर्य्य के प्रकाश का आच्छादन कर अन्धकार करता है तब साधारण मनुष्य पूंछते है कि अब वह सूर्य कहाँ गया उस प्रश्न का उत्तर से समाधान करे कि पृथिवी के दूसरे पृष्ठ में है जिसका चलना अति सूक्ष्म है वैसे वह मूर्ख मनुष्यों से जाना नहीं जाता वैसे ही महाशय मनुष्यों का आशय भी अविद्वान् लोग नहीं जान सकते ॥७॥

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    विषय

    फिर इस सूर्यलोक के गुणों का उपदेश इस मंत्र में किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे विद्वन् यथा असुरः गभीरवेपाः सुनीथः सुपर्ण अस्य रश्मिः अन्तरिक्षाणि वि अख्यत् विख्यापयति प्रकाशयति तेन रश्मिगणेन युक्तः सूर्य्य इदानीं क्व वर्त्तते। एतत् कः चिकेत को जानाति। कतमां द्याम् अस्य सूर्य्यस्य रश्मिः आततान एतत् अपि कः चिकेत  कश्चित् एव जानाति न तु सर्वे तत् एतत् त्त्वम् अवेहि ॥७॥

    पदार्थ

    हे (विद्वन्)=विद्वज्जन ! (यथा)=जैसे, (असुरः) सर्वेभ्यः प्राणदः सूर्य्योदये मृता इवोत्तिष्ठन्तीत्यतः। असुषु प्राणेषु रमते वा=सबके लिए प्राणदाता सूर्य के उदय होने पर मरे पड़े मानो उठ जाते हैं, इसलिए, (गभीरवेपाः) गभीरोऽविद्वद्भिर्लक्षितुमशक्यो वेपः कंपनं यस्य सः=जिसका कंपन गभीर अर्थात् सूक्ष्म होने से साधारण पुरुषों के मन में नहीं बैठता, ऐसा वह, (सुनीथः) सुष्ठनीथाः पदार्थप्राप्तयो यस्मात् सः=जिससे उत्तम प्रकार से पदार्थों की प्राप्ति होती है, वह, (सुपर्णः) शोभनपतनशीला रश्मयो यस्य=शोभनीय पतनशील स्वभाव वाली किरणें,  (अस्य) सूर्य्यस्य=सूर्य की,  (रश्मिः)=किरणें, (अन्तरिक्षाणि) अन्तरिक्षस्थानि सर्वाणि भुवनानि=अन्तरिक्ष स्थान के सारे भुवन में, (वि) विशेषार्थे=विशेष रूप से, (अख्यत्) ख्यापयति प्रकाशयति=प्रकाशित करती हैं, (तेन)=उनकी, (रश्मिगणेन)=किरणों से,  (युक्तः)=युक्त, (सूर्य्यः)=सूर्य्य, (इदानीम्) अस्मिन् समये वर्त्तमानायां रात्रौ=इस वर्तमान समय की रात्रि में, (क्व) कुत्र=कहाँ, (वर्त्तते)=है। (एतत्)=यह, (कः)=कौन,  (चिकेत)=जानता है, (कतमाम्) बहूनां पृथिवीनां मध्ये काम्=बहुत लोकों के बीच में, (द्याम्) द्योतनात्मिकाम्=प्रकट होने के कारण और प्रभाव पर आधारित, (अस्य) सूर्यस्य=इस सूर्य की, (रश्मिः) ज्योतिः=ज्योति, (आ) समन्तात्=हर ओर से, (ततान) तनोति विस्तृणोति=फैलती है, (एतत्)=यह, (अपि)=भी, (कः) विद्वान्=विद्वान्, (चिकेत) केतति जानाति=जानता है,  (कश्चित्)=कोई, (एव)=ही, (जानाति)=जानता है,  (न)=नहीं, (तु)=तो, (सर्वे)=सब, (तत्)=उस, (एतत्)=इसको, (त्त्वम्)=तुम, (अवेहि)=जानो ॥७॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    इस मंत्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जब यह भूगोल अपने भ्रमण से सूर्य्य के प्रकाश का आच्छादन कर अन्धकार करता है तब साधारण मनुष्य पूंछते है कि अब वह सूर्य कहाँ गया उस प्रश्न का उत्तर से समाधान करे कि पृथिवी के दूसरे पृष्ठ में है जिसका चलना अति सूक्ष्म है वैसे वह मूर्ख मनुष्यों से जाना नहीं जाता वैसे ही महाशय मनुष्यों का आशय भी अविद्वान् लोग नहीं जान सकते ॥७॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (विद्वन्) विद्वान् लोगों ! (यथा) जैसे (असुरः) सबके लिए प्राणदाता सूर्य के उदय होने पर मरे पड़े [जीव] मानो उठ जाते हैं, इसलिए, (गभीरवेपाः) जिसका कंपन गभीर अर्थात् सूक्ष्म होने से साधारण पुरुषों के मन में नहीं बैठता, ऐसा वह (सुनीथः) जिससे उत्तम प्रकार से पदार्थों की प्राप्ति होती है, वह (सुपर्णः) शोभनीय पतनशील स्वभाव वाली (अस्य) सूर्य की (रश्मिः) किरणें (अन्तरिक्षाणि) अन्तरिक्ष स्थान के सारे भुवन में (वि) विशेष रूप से (अख्यत्) प्रकाशित करती हैं। (तेन) उनकी (रश्मिगणेन) किरणों से (युक्तः) युक्त (सूर्य्यः) सूर्य  (इदानीम्) इस वर्तमान रात्रि के समय में (क्व) कहाँ (वर्त्तते) है। (एतत्) यह (कः) विद्वान्  (चिकेत) जानता है। (कतमाम्) बहुत लोकों के बीच में (द्याम्) प्रकट होने के कारण और प्रभाव पर आधारित (अस्य) इस सूर्य की (रश्मिः) ज्योति  (आ) हर ओर से (ततान) व्याप्त होती है। (एतत्) यह (अपि) भी (कः) विद्वान् (चिकेत) जानता है। (कश्चित्) कोई एक विद्वान् (एव) ही (जानाति) जानता है।  (न+तु)) अन्यथा (तत्) उस (सर्वे) सबको (त्त्वम्) तुम ही (अवेहि) जानो ॥७॥ 

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (वि) विशेषार्थे (सुपर्णः) शोभनपतनशीला रश्मयो यस्य। सुपर्णा इति रश्मिनामसु पठितम्। निघं० १।५। (अन्तरिक्षाणि) अन्तरिक्षस्थानि सर्वाणि भुवनानि (अख्यत्) ख्यापयति प्रकाशयति (गभीरवेपाः) गभीरोऽविद्वद्भिर्लक्षितुमशक्यो वेपः कंपनं यस्य सः। टुवेपृकंपन अस्मात्सर्वधातुभ्योऽसुन् इत्यसुन् प्रत्ययः (असुरः) सर्वेभ्यः प्राणदः सूर्य्योदये मृता इवोत्तिष्ठन्तीत्यतः। असुषु प्राणेषु रमते वा। (सुनीथः) सुष्ठनीथाः पदार्थप्राप्तयो यस्मात् सः। हनिकुषि० उ० २।२। अनेन णीञ् प्रापणे धातोः क्थन् प्रत्ययः (क्व) कुत्र (इदानीम्) अस्मिन् समये वर्त्तमानायां रात्रौ (सूर्यः) (कः) विद्वान् (चिकेत) केतति जानाति। अत्र कितज्ञाने धातोर्लडर्थे लिट्। (कतमाम्) बहूनां पृथिवीनां मध्ये काम् (द्याम्) द्योतनात्मिकाम् (रश्मिः) ज्योतिः (अस्य) सूर्यस्य (आ) समन्तात् (ततान) तनोति विस्तृणोति। अत्रापि लडर्थे लिट् ॥७॥
    विषयः- पुनरस्य सूर्यलोकस्य गुणा उपदिश्यन्ते।

    अन्वयः- हे विद्वन् यथाऽसुरो गभीरवेपाः सुनीथः सुपर्णोस्यरश्मिरन्तरिक्षाणिव्यख्यद्विख्यापयति प्रकाशयति तेन रश्मिगणेन युक्तः सूर्य्य इदानीं क्व वर्त्तते। एतत्कश्चिकेत को जानाति। कतमां द्यामस्य सूर्य्यस्य रश्मिराततानैतदपि कश्चिकेत। कश्चिदेव जानाति न तु सर्वे तदेतत्त्वमवेहि ॥७॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यदायं भूगोलो भ्रमणेन सूर्य प्रकाशमाच्छाद्यान्धकारं जनयति तदाऽविद्वांसो जनाः पृच्छन्तीदानीं सूर्य्यः क्व गत इति तंप्रश्नमुत्तरेणैवं समादध्यात् पृथिव्या अपरे पृष्ठेस्तीति यस्य चलनमतीव सूक्ष्ममस्त्यतः प्राकृतैर्जनैर्न विज्ञायत एवं विद्वद्भिप्रायोपि ॥७॥

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    विषय

    सूर्य की सुपर्णता व असुरता

    पदार्थ

    १. (सुपर्णः) - उत्तमता से सबका पालन करनेवाला यह सूर्य (अन्तरिक्षाणि) - अन्तरिक्ष लोकों को, अर्थात् अन्तरिक्ष में स्थित इन सब लोकों को (वि अख्यत्) - विशेष रूप से प्रकाशित करता है ।
    २. यह (सूर्य गभीरवेपाः) - अत्यन्त गम्भीर कम्पनवाला है । इसका अपनी कीली पर घूमना इतना गम्भीर है कि वह दिखता नहीं, यह स्थित - सा प्रतीत होता है । (असुरः) - यह प्राणशक्ति को देनेवाला है - 'प्राणः प्रजानामुदयत्येष सूर्यः ' । (सुनीथः) - मार्गदर्शन कराता हुआ यह सम्यक्तया हमें लक्ष्य - स्थान पर पहुँचानेवाला है । 
    ३. जिस समय हमसे अधिष्ठित पृथिवी - भाग सूर्याभिमुख नहीं होता उस समय (इदानीम्) - अब रात्रि के समय (सूर्यः) - यह सूर्य (क्व) - कहाँ है ? (कः चिकेत) - कौन इस बात को ठीक - ठीक जानता है ? (कतमां द्याम्) - किस द्युलोक में (अस्य रश्मिः) - इसकी किरणें (आततान) - अपने को विस्तृत कर रही हैं, अर्थात् इस समय कौन - सा भू - भाग सूर्य के द्वारा प्रकाशमय किया जा रहा है ? 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - सूर्य की अक्ष पर गति अति गम्भीर है, वह दिखती नहीं । सब प्राणशक्ति को देनेवाला, उत्तमतया मार्गदर्शक यह सूर्य बारी - बारी अपने सामने आये हुए भू - भाग को प्रकाशित करता है । 
     

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    विषय

    सूर्य के दृष्टान्त से तेजस्वी सुपर्ण रूप से राजा का वर्णन ।

    भावार्थ

    (सुपर्णः) उत्तम सुखकारी रश्मियों से युक्त (गभीरवेपाः) अति गंभीर, अज्ञात बल और गतिवाला (असुरः) सबको प्राणशक्ति देने वाला (अन्तरिक्षाणि) समस्त आकाश के प्रदेशों को (वि अख्यत्) विविध प्रकार से प्रकाशित करता है। परन्तु अस्त हो जाने पर फिर प्रश्न उठता है कि —(इदानीं) अब (सूर्यः क्व) वह सूर्य कहां है? इस रहस्य को (कः) कौन विद्वान् (चिकेत) जानता है कि (अस्य रश्मिः) इस सूर्य का रश्मिगण अब (कतमां द्याम्) किस आकाश को (ततान) व्याप रहा है। अर्थात् विद्वान् लोग ही उसकी गति स्थिति का ज्ञान रखते हैं। इसी प्रकार राजा भी (गभीरवेपाः) गंभीर, अगाध बलशाली (असुरः) प्राणों के बल में रमण करनेवाला, (सुनीथः) उत्तम मार्ग पर प्रजाओं को ले चलाने वाला, (सुपर्णः) उत्तम पालन करनेवाले साधनों और शासकों वाला (अन्तरिक्षाणि) अपने राष्ट्र के भीतर स्थित प्रदेशों को (वि अख्यत्) विविध प्रकार के ज्ञानों का उपदेश करे। अब वह तेजस्वी सूर्य कहाँ है और उसकी (रश्मिः) रासें, शासन सामर्थ्य किस आकाश या स्थान या राजसभा, विद्वत् सभा को व्यापता है? उसको कौन जाने? तेजस्वी राजा की गति स्थिति दुर्बोध है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    हिरण्यस्तूप आङ्गिरस ऋषिः ॥ देवताः—१ अग्निर्मित्रावरुणौ रात्रिः सविता । २-११ सविता ॥ छन्दः- १ विराड् जगती । ९ निचृज्जगती । २, ५, १०, ११ विराट् त्रिष्टुप् । ३, ४, ६ त्रिष्टुप् । ७, ८ भुरिक् पंक्तिः । एकादशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जेव्हा हा भूगोल आपल्या भ्रमणाने सूर्याच्या प्रकाशाचे आच्छादन करून अंधकार करतो तेव्हा साधारण माणसे विचारतात की आता तो सूर्य कुठे गेला? त्या प्रश्नाचे उत्तर द्यावे की पृथ्वीच्या दुसऱ्या भागात आहे. पृथ्वीची गती अति सूक्ष्म आहे. जशी ती मूर्ख माणसे जाणू शकत नाहीत तसेच विद्वान माणसांचा आशयही अविद्वान लोक जाणू शकत नाहीत. ॥ ७ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    The sun is mighty brilliant, illuminates the middle regions, awfully vibrating with fusion, gives pranic life to nature and humanity, holding and guiding things in orbit. And then, where is the sun now, (when it is no more there)? In what heaven does its light shine now? Who knows? Kah knows. The Lord Supreme only knows.

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    Subject of the mantra

    Then the qualities of this Sun-world have been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (vidvan)=scholar, (yathā)=as, (asuraḥ)= at the rising of the Sun, the giver of life to all, rises as if dead, therefore, [jīva]=living beings, [aura]=and, (gabhīravepāḥ)= whose vibration, being deep, that is, subtle, does not sit in the minds of ordinary men, such a person, (sunīthaḥ)= high quality germs are like, that, (suparṇaḥ)= gracefully decadent, (asya)=of sun, (raśmiḥ)=rays, (antarikṣāṇi)=in all the places of space, (vi)=specially, (akhyat)=illuminate, (tena)=their, (raśmigaṇena)=by rays, (yuktaḥ)=with, (sūryyaḥ)=sun, (idānīm)= at this present time at night, (kva)=where, (varttate)=is, (etat)=this, (kaḥ)=who, (ciketa)=knows, (katamām)= in the middle of many worlds, (dyām)=due to appearance, (asya)=of this sun, (raśmiḥ)=radiation,, (ā)=from all sides, (tatāna)=pervade, (etat)=this, (api)=also, (kaḥ)=scholar, (ciketa)=knows, (kaścit)= one of some scholars, (eva)=only, (jānāti)=knows, (na+tu)=otherwise, (sarve)=all, (tat)=that.

    English Translation (K.K.V.)

    O scholars! Just as the dead creatures rise when the Sun, which gives life to all, rises; so, the one whose vibration does not sit in the minds of ordinary men, due to being deep, that is, the one from whom things are obtained in the best way. One who obtains the best of things, the rays of the Sun with a beautiful falling nature, specially illuminate the whole earth of the space. This scholar knows. The light of this Sun pervades from all sides, based on the cause and effect of appearing in the midst of many worlds. Even the scholar knows this. Only the scholar knows. Otherwise you know all that.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    In this mantra, it is said that when this earth envelops the Sun's light with its travels, then ordinary people ask that where did the Sun go now and answer the question that it is in the second surface of the earth, whose movement is very subtle. By the way, it is not known by the foolish people, similarly the view of gentlemen cannot be known by ignorant people.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The attributes of the solar world are taught further in the seventh Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned person, The solar ray which is the giver of life to all, deep-quivering, well-directed or cause of the attainment of all articles, has illuminated the three regions. At night, where is the sun whose rays illumine or light up the world ? Who knows all this properly ? Who knows to what sphere, his rays have extended ? This can be known. Only by some learned persons and not by all. You should know all this well.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (सुपर्ण:) शोभनपतनशीला रश्मयो यस्य | सुपर्णा इति रश्मिनामसु पठितम् ( निघ० १.५) = The Sun with rays which are like his charming wings. ( गभीरवेपाः ) गभीरः अविद्वद्भिः लक्षितुम् अशवयः वेपः कम्पनं यस्य सः । टु वेपृ- कम्पने अस्मात् सर्व धातुभ्योऽसुन् इति असुन् प्रत्ययः । = Deep-quivering whose quivering or subtle movement can not be known by ignorant persons. (असुर:) सर्वेभ्य: प्राणप्रदः सूर्योदये मृता इवोत्तिष्ठन्तीत्यतः । = Give of life to all beings as at the rise of the sun, they get up as if from the dead state. असुषु-प्राणेषु रमते इति वा । (सुनीथा:) सुष्ठु नीथा: पदार्थप्राप्तयो यस्मात् सः हनिकुषिनीरमि काषिभ्य: क्थन् (उणादि २.२ ) इति अनेन णीज् प्रापणे इति धातोः क्थन् प्रत्ययः । = The cause of the attainment of all articles.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    When this earth while rotating around the Sun, covers the light of the sun and creates darkness, then learned persons ask where has the sun gone? The question should be properly answered that he is on the back of the earth. His rotation at his own axis is very subtle, therefore ordinary people cannot know it. Such are also the thoughts of the wise, which all cannot understand.

    Translator's Notes

    Rishi Dayananda has interpreted गम्भीरवेपा: as गभीर:अविद्वद्भिः लक्षितुम् अशक्य: षेप:- कम्पनं यस्य सः on the basis of the root-meaning of वेप्-कम्पने |

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