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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 35 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 35/ मन्त्र 8
    ऋषिः - हिरण्यस्तूप आङ्गिरसः देवता - सविता छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    अ॒ष्टौ व्य॑ख्यत्क॒कुभः॑ पृथि॒व्यास्त्री धन्व॒ योज॑ना स॒प्त सिन्धू॑न् । हि॒र॒ण्या॒क्षः स॑वि॒ता दे॒व आगा॒द्दध॒द्रत्ना॑ दा॒शुषे॒ वार्या॑णि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ष्टौ । वि । अ॒ख्य॒त् । क॒कुभः॑ । पृ॒थि॒व्याः । त्री । धन्व॑ । योज॑ना । स॒प्त । सिन्धू॑न् । हि॒र॒ण्य॒ऽअ॒क्षः । स॒वि॒ता । दे॒वः । आ । अ॒गा॒त् । दध॑त् । रत्ना॑ । दा॒शुषे॑ । वार्या॑णि ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अष्टौ व्यख्यत्ककुभः पृथिव्यास्त्री धन्व योजना सप्त सिन्धून् । हिरण्याक्षः सविता देव आगाद्दधद्रत्ना दाशुषे वार्याणि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अष्टौ । वि । अख्यत् । ककुभः । पृथिव्याः । त्री । धन्व । योजना । सप्त । सिन्धून् । हिरण्यअक्षः । सविता । देवः । आ । अगात् । दधत् । रत्ना । दाशुषे । वार्याणि॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 35; मन्त्र » 8
    अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 7; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    (अष्टौ) चतस्रोदिश उपदिशश्च (वि) विशेषार्थे क्रियायोगे (अख्यात्) ख्यापयति (ककुभः) दिशः। ककुभइति दिङ्नामसु पठितम्। निघं० १।६। (पृथिव्याः) भूमेः सम्बन्धिनीः (त्री) त्रीणि भूम्यन्तरिक्षप्रकाशस्थानि भुवनानि (धन्व) प्राप्तव्यानि। अत्र गत्यर्थाद्धविधातोरौणादिकः कनिन् सुपां सुलुग् इतिविभक्तेर्लुक्। (योजना) युज्यन्ते सर्वाणि वस्तूनि येषु भुवनेषु तानि योजनानि। अत्र शेश्छन्दसि इति शेर्ल्लोपः। (सप्त) सप्तसङ्ख्याकान् (सिंधून्) भूम्यन्तरिक्षोपर्युपरिस्थितान् (हिरण्याऽक्षः) हिरण्यानि ज्योतींष्यक्षीणि व्याप्तिशीलानि यस्य सः (सविता) वृष्ट्युत्पादकः (देवः) द्योतनात्मकः (आ) समंतात् (अगात्) एति प्राप्नोति। अत्र लडर्थे लुङ्। इणो गा लुङि। अ० २।४।४५। इति गा आदेशः। (दधत्) दधातीति दधत्सन् (रत्ना) सुवर्णादीनि रमणीयानि (दाशुषे) सर्वोपकारकाय विद्यादिदानशीलाय यजमानाय (वार्य्याणि) वरितुं ग्रहीतुं योग्यानि ॥८॥

    अन्वयः

    पुनरेतस्य कृत्यमुपदिश्यन्ते।

    पदार्थः

    हे सभेश त्वं यथा यो हिरण्याक्षः सविता देवः सूर्यलोकः पृथिव्याः सम्बन्धिनीरष्टौककुभस्त्री त्रीण्युपर्यधोमध्यस्थानि धन्वानि योजनानि तदुपलक्षितान् मार्गान् सप्तसिंधूँश्च व्यख्यद्विख्यापयति स दाशुषे वार्याणि रत्ना रत्नानि दधत्सन्नागात् समंतादेति तथा भूतः सन् वर्त्तस्व ॥८॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथाऽयं सूर्यलोकः सर्वाणि मूर्त्तद्रव्याणि प्रकाश्य छित्वावायुद्वाराऽन्तरिक्षे नीत्वा तस्मादधो निपात्य सर्वाणि रमणीयानि सुखानि जीवार्थं नयति। पृथिव्या मध्ये स्थितानामेकोनपंचाशत् क्रोशपर्यन्तेन्तरिक्षे स्थूलसूक्ष्मलघुगुरुत्वरूपेण स्थितानां चापां सप्तसिंध्विति संज्ञैताः सर्वा आकर्षणेन धरति च तथा सर्वैर्विद्वद्भिर्विद्याधर्म्माभ्यां सकलान् मनुष्यान् धृत्वाऽऽनन्दयितव्याः ॥८॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर इसके कृत्य का उपदेश अगले मन्त्र में किया है।

    पदार्थ

    हे सभेश ! जैसे जो (हिरण्याक्षः) जिसके सुवर्ण के समान ज्योति हैं वह (सविता) वृष्टि उत्पन्न करनेवाला (देवः) द्योतनात्मक सूर्यलोक (पृथिव्याः) पृथिवी से संबन्ध रखनेवाली (अष्टौ) आठ (ककुभः) दिशा अर्थात् चार दिशा और चार उपदिशाओं (त्री) तीन भूमि अन्तरिक्ष और प्रकाश के अर्थात् ऊपर नीचे और मध्य में ठहरनेवाले (धन्व) प्राप्त होने योग्य (योजना) सब वस्तु के आधार तीन लोकों और (सप्त) सात (सिंधून्) भूमि अंतरिक्ष वा ऊपर स्थित हुए जलसमुदायों को (व्यख्यत्) प्रकाशित करता है वह (दाशुषे) सर्वोपकारक विद्यादि उत्तम पदार्थ देनेवाले यजमान के लिये (वार्याणि) स्वीकार करने योग्य (रत्ना) पृथिवी आदि वा सुवर्ण आदि रमणीय रत्नों को (दधत्) धारण कर्ता हुआ (आगात्) अच्छे प्रकार प्राप्त होता है वैसे तुम भी वर्त्तो ॥८॥

    भावार्थ

    इस मंत्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे यह सूर्यलोक सब मूर्त्तिमान् पदार्थो का प्रकाश छेदन वायुद्वारा अन्तरिक्ष में प्राप्त और वहां से नीचे गेर कर सब रमणीय सुखों को जीवों के लिये उत्पन्न करता और पृथिवी में स्थित और उनचास क्रोश पर्यन्त अन्तरिक्ष में स्थूल सूक्ष्म लघु और गुरु रूप से स्थित हुए जलों को अर्थात् जिनका सप्तसिंधु नाम है आकर्षणशक्ति से धारण करता है वैसे सब विद्वान् लोग विद्या और धर्म से सब प्रजा को धारण करके सबको आनन्द में रक्खें ॥८॥

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    विषय

    फिर इसके कृत्य का उपदेश इस मन्त्र में किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे सभेश त्वं यथा यः हिरण्याक्षः सविता देवः सूर्यलोकः पृथिव्याः सम्बन्धिनीः अष्टौ ककुभः त्री त्रीणि उपरि अधः मध्य स्थानि धन्वानि योजनानि तत् उपलक्षितान् मार्गान् सप्तसिंधून् च लि अख्यत् विख्यापयति स दाशुषे वार्याणि रत्ना रत्नानि दधत् सन् अगात् समन्तात् एति तथा भूतः सन् वर्त्तस्व ॥८॥ 

    पदार्थ

    हे (सभेश)=सभा के स्वामी, (त्वम्)=आप, (यथा)=जैसे,  (यः)=जो, (हिरण्याऽक्षः) हिरण्यानि ज्योतींषि अक्षीणि व्याप्तिशीलानि यस्य सः=सुवर्ण के  समान ज्योति और आँखें हैं जिसकी और व्याप्त होने वाले स्वभाव का, (सविता) वृष्ट्युत्पादकः=बरसा कराने वाला, (देवः) द्योतनात्मकः=प्रकाशित करने वाला, (सूर्यलोकः)=सूर्यलोक, (पृथिव्याः) भूमेः सम्बन्धिनीः=भूमि से सम्बन्धित, (अष्टौ) चतस्रोदिश उपदिशश्च=चार दिशा. और चार उप, (ककुभः) दिशः=दिशायें, (त्री) त्रीणि भूम्यन्तरिक्षप्रकाशस्थानि भुवनानि=भुवन में भूमि, अन्तरिक्ष और प्रकाश के तीन स्थान, (उपरि)=ऊपर, (अधः)=नीचे, (मध्य)=मध्य, (स्थानि)=स्थान में (धन्वानि) प्राप्तव्यानि=प्राप्त होने वाले, (योजना) युज्यन्ते सर्वाणि वस्तूनि येषु भुवनेषु तानि योजनानि=जिन भुवनों में समस्त वस्तुएं संयुक्त की जाती हैं, (तत्)=उनके, (उपलक्षितान्)=निकट से स्पष्ट, (मार्गान्)=मार्गों को, (सप्त) सप्तसङ्ख्याकान्=जो गणना में सात हैं, (सिंधून्) भूम्यन्तरिक्षोपर्युपरिस्थितान्=भूमि और अन्तरिक्ष के ऊपर के स्थान, (च)=भी, (वि) विशेषार्थे क्रियायोगे=विशेष रूप से, (अख्यत्) ख्यापयति=प्रकाशित करता है, (सः)=वह, (दाशुषे) सर्वोपकारकाय विद्यादिदानशीलाय यजमानाय=सर्वोपकारी, विद्या आदि के दान के स्वभाव वाले और यज्ञकर्ता के लिये, (वार्य्याणि) वरितुं ग्रहीतुं योग्यानि=ग्रहण करने योग्य, (रत्ना) सुवर्णादीनि रमणीयानि=सुवर्ण आदि रमणीय, (रत्नानि)=रत्न, (दधत्) धारण करते, (सन्)=हैं, (समन्तात्)=हर ओर से, (एति)=प्राप्त होते है, (तथा)=वैसे ही, (भूतः+सन्)=पदार्थों के होते हुए, (वर्त्तस्व)=इनको व्यवहार में लाओ ॥८॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    इस मंत्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे यह सूर्यलोक सब मूर्त्तिमान् पदार्थो का प्रकाश छेदन वायु द्वारा अन्तरिक्ष में प्राप्त और वहां से नीचे गिरा कर सब रमणीय सुखों को जीवों के लिये उत्पन्न करता और पृथिवी में स्थित और उनपचास क्रोश पर्यन्त अन्तरिक्ष में स्थूल सूक्ष्म लघु और गुरु रूप से स्थित हुए जलों को अर्थात् जिनका सप्तसिंधु नाम है आकर्षण शक्ति से धारण करता है, वैसे ही सब विद्वान् लोग विद्या और धर्म से सब प्रजा को धारण करके सबको आनन्द में रक्खें ॥८॥ 

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (सभेश) सभा के स्वामी! (त्वम्) आप (यथा) जैसे (यः) जो (हिरण्याऽक्षः) सुवर्ण के  समान ज्योति और आँखें हैं जिसकी और व्याप्त होने वाले स्वभाव का है, (सविता) उस बरसा कराने वाले (देवः) प्रकाशित करने वाला (सूर्यलोकः) सूर्यलोक (पृथिव्याः) भूमि से सम्बन्धित (अष्टौ) चार दिशा और चार उप (ककुभः)  दिशाओं में (त्री) भुवन में भूमि, अन्तरिक्ष और प्रकाश के तीन स्थान के (उपरि) ऊपर, (अधः) नीचे और (मध्य) मध्य के (स्थानि) स्थान में (धन्वानि) प्राप्त होने वाले (योजना) जिन भुवनों में समस्त वस्तुएं संयुक्त की जाती हैं, (तत्) उनके (उपलक्षितान्) निकट से स्पष्ट (मार्गान्) मार्गों को (सप्त) जो गणना में सात हैं (सिंधून्) भूमि और अन्तरिक्ष के ऊपर के स्थान में (च) भी (वि) विशेष रूप से (अख्यत्) प्रकाशित करता है। (सः) वह (दाशुषे) सर्वोपकारी, विद्या आदि के दान करने के स्वभाव वाले और यज्ञकर्ता के लिये (वार्य्याणि) ग्रहण करने योग्य (रत्ना) सुवर्ण आदि रमणीय (रत्नानि) रत्न (दधत्+सन्) धारण करते हुए (समन्तात्) हर ओर से (एति) प्राप्त होते है। (तथा) वैसे ही (भूतः+सन्)=पदार्थों के होते हुए, (वर्त्तस्व) उनको व्यवहार में लाओ ॥८॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (अष्टौ) चतस्रोदिश उपदिशश्च (वि) विशेषार्थे क्रियायोगे (अख्यात्) ख्यापयति (ककुभः) दिशः। ककुभइति दिङ्नामसु पठितम्। निघं० १।६। (पृथिव्याः) भूमेः सम्बन्धिनीः (त्री) त्रीणि भूम्यन्तरिक्षप्रकाशस्थानि भुवनानि (धन्व) प्राप्तव्यानि। अत्र गत्यर्थाद्धविधातोरौणादिकः कनिन् सुपां सुलुग् इतिविभक्तेर्लुक्। (योजना) युज्यन्ते सर्वाणि वस्तूनि येषु भुवनेषु तानि योजनानि। अत्र शेश्छन्दसि इति शेर्ल्लोपः। (सप्त) सप्तसङ्ख्याकान् (सिंधून्) भूम्यन्तरिक्षोपर्युपरिस्थितान् (हिरण्याऽक्षः) हिरण्यानि ज्योतींष्यक्षीणि व्याप्तिशीलानि यस्य सः (सविता) वृष्ट्युत्पादकः (देवः) द्योतनात्मकः (आ) समंतात् (अगात्) एति प्राप्नोति। अत्र लडर्थे लुङ्। इणो गा लुङि। अ० २।४।४५। इति गा आदेशः। (दधत्) दधातीति दधत्सन् (रत्ना) सुवर्णादीनि रमणीयानि (दाशुषे) सर्वोपकारकाय विद्यादिदानशीलाय यजमानाय (वार्य्याणि) वरितुं ग्रहीतुं योग्यानि ॥८॥
    विषयः- पुनरेतस्य कृत्यमुपदिश्यन्ते।

    अन्वयः- हे सभेश त्वं यथा यो हिरण्याक्षः सविता देवः सूर्यलोकः पृथिव्याः सम्बन्धिनीरष्टौककुभस्त्री त्रीण्युपर्यधोमध्यस्थानि धन्वानि योजनानि तदुपलक्षितान् मार्गान् सप्तसिंधूँश्च व्यख्यद्विख्यापयति स दाशुषे वार्याणि रत्ना रत्नानि दधत्सन्नागात् समंतादेति तथा भूतः सन् वर्त्तस्व ॥८॥ 

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथाऽयं सूर्यलोकः सर्वाणि मूर्त्तद्रव्याणि प्रकाश्य छित्वावायुद्वाराऽन्तरिक्षे नीत्वा तस्मादधो निपात्य सर्वाणि रमणीयानि सुखानि जीवार्थं नयति। पृथिव्या मध्ये स्थितानामेकोनपंचाशत् क्रोशपर्यन्तेन्तरिक्षे स्थूलसूक्ष्मलघुगुरुत्वरूपेण स्थितानां चापां सप्तसिंध्विति संज्ञैताः सर्वा आकर्षणेन धरति च तथा सर्वैर्विद्वद्भिर्विद्याधर्म्माभ्यां सकलान् मनुष्यान् धृत्वाऽऽनन्दयितव्याः ॥८॥

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    विषय

    हिरण्याक्ष - सविता

    पदार्थ

    १. यह सूर्य (पृथिव्याः) - पृथिवी की (अष्टौ ककुभः) - आठों दिशाओं को [चार मुख्य व चार उपदिशाओं को] (वि अख्यत्) - विशेष रूप से प्रकाशित करता है । 
    २. (योजना) - सब प्राणियों के उचित भोगों से युक्त [योजित] करनेवाले (त्री धन्व) - तीन लोकों को [द्युलोक, अन्तरिक्ष व पृथिवी को] भी तथा (सप्त सिन्धून्) - इन सर्पणशील जलों को भी (व्यख्यत्) - यह प्रकाशित करता है ।
    ३. (हिरण्याक्षः) - ज्योतिर्मय आँखवाला, अर्थात् चमकते हुए प्रकाशवाला (सविता) - सबका प्रेरक (देवः) - सब व्यवहारों का साधक सूर्य (आगात्) - आता है और (दाशुषे) - दान देनेवाले, अर्थात् त्याग की वृत्तिवाले पुरुष के लिए तथा सूर्य के प्रति अपना अर्पण करनेवाले के लिए, सूर्याभिमुख होकर ध्यानादि करनेवाले के लिए (वार्याणि) - वरणीय - चाहने योग्य (रत्ना) - रमणीय पदार्थों को, शरीर की धारक सात धातुओं को (दधत्) - धारण कराता है । सूर्य - किरणों के सेवन से शरीर की सब धातुएँ ठीक रहती हैं और नीरोगता प्राप्त होती है । 
    ४. 'दाशुषे' शब्द का अर्थ सायण [हविर्दत्तवते] 'अग्निहोत्र करनेवाले के लिए' यह करते हैं । एवं, प्रातः सायं सूर्याभुमख होकर यज्ञ करना आरोग्यता के लिए अत्यन्त सहायक है । 
    ५. 'हिरण्याक्षः' का अर्थ [हितरमणीय चक्षुर्युक्तः] है, अतः यह संकेत कर रहा है कि सूर्याभिमुख होकर ध्यान व यज्ञ करेंगे तो आँख की शक्ति भी बढ़ेगी । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - सूर्याभिमुख होकर ध्यान व यज्ञ में बैठने से दृष्टि - शक्ति बढ़ेगी, शरीरस्थ धातुएँ ठीक होकर स्वास्थ्य प्राप्त होगा । 
     

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    विषय

    सूर्य के दृष्टान्त से तेजस्वी सुपर्ण रूप से राजा का वर्णन ।

    भावार्थ

    (हिरण्याक्षः) हितकारी, मनोहर ज्योतिरूप व्यापनशील किरणों वाला (सविता देवः) प्रकाश और ताप का उत्पादक, प्रकाशमान सूर्य (दाशुषे) यज्ञशील पुरुष को (वार्याणि) उत्तम उत्तम (रत्ना) रमण करने योग्य सुखों को (दधत्) देता हुआ (आ अगात्) आता है और वह (पृथिव्याः) पृथिवी के ऊपर (अष्टौ ककुभः) आठों दिशाओं, (योजना) सब पदार्थों को अपने भीतर धारण करने वाले (त्री धन्व) तीनों लोकों और (सप्त सिन्धून्) सर्पणशील आकाशस्थ जलों को भी (वि-अख्यत्) प्रकाशित करता है। उसी प्रकार (दाशुषे) कर आदि देने वाले प्रजाजन को उत्तम २ ऐश्वयों का प्रदान करता हुआ, सूर्य के समान तेजस्वी राजा हितकारी, रमणीय कृपादृष्टि से युक्त होकर आवे। वह आठों दिशा, तीनों स्थलों और सातों समुद्रों को (वि अख्यत्) विविध रूप से शासन करें। उन पर आज्ञा चलावे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    हिरण्यस्तूप आङ्गिरस ऋषिः ॥ देवताः—१ अग्निर्मित्रावरुणौ रात्रिः सविता । २-११ सविता ॥ छन्दः- १ विराड् जगती । ९ निचृज्जगती । २, ५, १०, ११ विराट् त्रिष्टुप् । ३, ४, ६ त्रिष्टुप् । ७, ८ भुरिक् पंक्तिः । एकादशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा सूर्य प्रत्यक्ष पदार्थाच्या प्रकाशाचे छेदन करून वायूद्वारे अंतरिक्षातून खाली आणतो व सर्व रमणीय सुख जीवासाठी उत्पन्न करतो व पृथ्वीत स्थित एकोणचाळीस कोसांपर्यंत अंतरिक्षात स्थूल, सूक्ष्म, लघु व गुरु रूपाने स्थित झालेले जल अर्थात ज्यांचे नाव सप्तसिंधू आहे, आकर्षणशक्तीने धारण करतो. तसे सर्व विद्वान लोकांनी विद्या व धर्माने सर्व प्रजेला धारण करून सर्वांना आनंदात ठेवावे. ॥ ८ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Savita, generous lord of golden light, comes illuminating the eight directions and sub-directions of the earth, the three sustaining regions of earth, heaven and the middle skies, and the seven seas of space, holding and bringing choicest gifts for the man of charity and yajna.

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    Subject of the mantra

    Then its deeds have been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (sabheśa)=president of the assembly, (tvam)=You, (yathā)=like, (yaḥ)=who, (hiraṇyā’kṣaḥ)= hasradiance and eyes like gold, which is of a pervasive nature, (savitā)=that showering rain, (devaḥ)==illuminator, (sūryalokaḥ)=sun-world, (pṛthivyāḥ)= related to land, (aṣṭaau)= four directions and four sub directions, (kakubhaḥ)=in eight directions, (trī)= of the place of land, space and light in the three worlds, (upari)=above, (adhaḥ)=below, (madhya)=in the middle, (sthāni)=places, (dhanvāni)= to be approached, (yojanā)= Bhuvans in which all things are combined, (tat)=their, (upalakṣitān)=apparent in proximity, (mārgān)=ways, (sapta)= which is seven in the count, (siṃdhūn)= in the place above earth and space, (ca)=also, (vi)= In a special way, (akhyat)=illuminates, (saḥ)=that, (dāśuṣe)= For the one who has the nature of giving charity, knowledge etc. and for the one who performs yajna (sacrifice), (vāryyāṇi)= acceptable, (ratnā)= golden gems etc. (dadhat+san)=possessing,(samantāt)=from all sides, (eti)= are received. (tathā)=in the same way, [jo]=those, (bhūtaḥ+san)=the being of substances, (varttasva)= put them into practice.

    English Translation (K.K.V.)

    O President of the assembly! Like you who have light and eyes like gold, whose nature is more pervasive, the four directions related to the land, the earth, the space and the place of light in the three worlds in the four directions and the four sub-directions that bring that rain, are received in the place above, below and in the middle, in which all things are combined, that also specifically illuminates the clear paths near him, which are seven in the count, in the space above the land and space. He is all-beneficent, having the nature of giving charity of knowledge etc. and while possessing beautiful gems, gold etc. acceptable to the performer of yajan, are obtained from all sides. In the same way, being the substances, put them into practice.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There is vocal latent simile as a figurative in this mantra. Like this Sun-world the light of all the embodied objects received in space by the penetrating wind and falling down from there produces all the delightful pleasures for the living beings and the waters situated in the earth's upto forty nine krośa (one krośa=1/4 miles) in space are gross, small and huge. That is, the one whose name is Saptasindhu (seven places above earth and space), possesses it with the power of attraction, similarly all the learned people by imbibing all the subjects with knowledge and righteousness, keep everyone in joy.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The same subject of Savita is continued.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O president of the Assembly, You should be like the sun who lights up or illumines the earth's eight quarters, the three worlds where all objects are placed properly and the moving seven waters in the firmament. He the glorious Sun, comes on all sides upholding desirable gold and other objects for the benevolent Yajamana (performing Yajnas) imparting education to all.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (अष्टौ ककुभः) चतस्रो दिश: उपदिशश्च । ककुभः इति विङ्नामसु पठितम् ( निघ० १.६) =Four directions East, West, North and South and four sub directions known as Agneya, Ishaana etc. ( त्री धन्व) त्रीणि भूम्यन्तरिक्षप्रकाशस्थानि भुवनानि = Three worlds i. e. the earth, heaven and middle region. धन्व प्राप्तव्यानि अत्र गत्यर्थाद्धविधातोरौणादिक: दानिन् सुपां सुलुक् इति विभक्तेर्लुक् ( योजना ) युज्यन्ते सर्वाणि वस्तूनि येषु भुवनेषु तानि योजनानि अत्र शेश्छन्दसि बहुलम् (अष्टा० ६.१.७० ) इति शेर्लोपः । = Worlds in which all things are properly united. (हिरण्याक्ष:) हिरण्यानि ज्योतींषि अक्षीणि-व्याप्ति शीलानि यस्य सः । = Glorious or Resplendent. (सविता) वृष्ट्युत्पादक: (सूर्य:) = The Sun-the cause of rains. षु-प्रसवैश्वर्ययोः ( दाशुषे ) सर्वोपकारकाय विद्यादिदानशीलाय यजमानाय = For the performer of the Yajna who does good to others by giving them knowledge and other things.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    There is implied simile used in the Mantra. This Solar world illuminating all objects, disintegrating particles, taking them to the firmament through the air and bringing them down brings about charming happiness to all souls. It upholds or sustains the waters on the earth and up to about 50 miles in the firmament in gross subtle, light or heavy forms known technically as Sapta Sindhus. In the same manner, learned persons should maintain all with knowledge and righteousness and should make them happy and blissful.

    Translator's Notes

    (ज्योतिवें शुक्रं हिरण्यम् ऐतरेय ब्रा० ७.१२) ज्योतिहि हिरण्यम् (शत०४.३.१.२२) = Light. Though according to the Nighantu ( 13 ) Dhanva ( धन्व ) is used for अन्तरिक्ष or firmament धन्व इत्यन्तरिक्ष नामसु ( निघ० १.३ ) yet because the number of the Dhanvas used here is three, therefore it is clear that here it means three worlds. Sayanacharya and Skanda Swami have also given the same meaning saying— साहचर्याद् वा त्रयोऽपि लोकास्त्रीणि धन्वान्युच्यन्ते ( स्कन्दस्वामी ) धन्वअन्तरिक्षोपलक्षितान् त्रिसंख्याकान् पृथिव्यादिलोकान् इति सायणाचार्यः ।

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