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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 35 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 35/ मन्त्र 9
    ऋषिः - हिरण्यस्तूप आङ्गिरसः देवता - सविता छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    हिर॑ण्यपाणिः सवि॒ता विच॑र्षणिरु॒भे द्यावा॑पृथि॒वी अ॒न्तरी॑यते । अपामी॑वां॒ बाध॑ते॒ वेति॒ सूर्य॑म॒भि कृ॒ष्णेन॒ रज॑सा॒ द्यामृ॑णोति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    हिर॑ण्यऽपाणिः । स॒वि॒ता । विऽच॑र्षणिः । उ॒भे इति॑ । द्यावा॑पृथि॒वी इति॑ । अ॒न्तः । ई॒य॒ते॒ । अप॑ । अमी॑वाम् । बाध॑ते । वेति॑ । सूर्य॑म् । अ॒भि । कृ॒ष्णेन॑ । रज॑सा । द्याम् । ऋ॒णो॒ति॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    हिरण्यपाणिः सविता विचर्षणिरुभे द्यावापृथिवी अन्तरीयते । अपामीवां बाधते वेति सूर्यमभि कृष्णेन रजसा द्यामृणोति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    हिरण्यपाणिः । सविता । विचर्षणिः । उभे इति । द्यावापृथिवी इति । अन्तः । ईयते । अप । अमीवाम् । बाधते । वेति । सूर्यम् । अभि । कृष्णेन । रजसा । द्याम् । ऋणोति॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 35; मन्त्र » 9
    अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 7; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    (हिरण्यपाणिः) हिरण्यानि ज्योतींषि पाणयो हस्तवद्ग्रहणसाधनानि यस्य सः (सविता) रसानां प्रसविता (विचर्षणिः) विलेखनस्वभावेन विच्छेदकः। कृषेरादेश्चचः उ० २।१००। इति कृषविलेखने धातोरनिः प्रत्ययः (उभे) द्वे (द्यावापृथिवी) प्रकाश पृथिव्यौ (अन्तः) अन्तरिक्षस्य मध्ये (ईयते) प्रापयति (अप) दूरीकरणे (अमीवाम्) रोगपीड़ाम् (बाधते) निवारयति (वेति) प्रजनयति। अत्रान्तर्गतो ण्यर्थः। (सूर्यम्) सरणशीलं स्वकीयरश्मिगणम् (अभि) सर्वतो भावे (कृष्णेन) पृथिव्यादिना (रजसा) लोकसमूहेन (द्याम्) प्रकाशम् (ऋणोति) प्रापयति। अत्रान्तर्गतो ण्यर्थः ॥९॥

    अन्वयः

    पुनः स किं करोतीत्युपदिश्यते।

    पदार्थः

    भोः सभाध्यक्ष यथा हिरण्यपाणिर्विचर्षणिः सविता सूर्यलोक उभे द्यावापृथिवी अन्तरीयते अमीवामपबाधते सूर्यमभिवेति कृष्णेन रजसा सह द्यामृणोति तथाभूतस्त्वं भव ॥९॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे सभापते यथायं सूर्योबहुभिर्लोकैः सहाकर्षणसंबन्धेन वर्त्तमानः सर्वं वस्तूजातं प्रकाशयन् प्रकाशपृथिव्योरान्तर्यं करोति तथैव त्वया भवितव्यमिति ॥९॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वह क्या करता है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है।

    पदार्थ

    हे सभाध्यक्ष ! जैसे (हिरण्यपाणिः) जिसके हिरण्यरूप ज्योति हाथों के समान ग्रहण करनेवाले हैं (विचर्षणिः) पदार्थों को छिन्न-भिन्न और (सविता) रसों को उत्पन्न करनेवाला सूर्यलोक (उभे) दोनों (द्यावापृथिवी) प्रकाश भूमि को (अन्तः) अन्तरिक्ष के मध्य में (ईयते) प्राप्त (अमीवाम्) रोग पीड़ा का (अपबाधते) निवारण (सूर्य्य) सबको प्राप्त होनेवाले अपने किरणसमूह को (अभिवेति) साक्षात् प्रगट और (कृष्णेन) पृथिवी आदि प्रकाश रहित (रजसा) लोकसमूह के साथ अपने (द्याम्) प्रकाश को (ऋणोति) प्राप्त करता है वैसे तुझको भी होना चाहिये ॥९॥

    भावार्थ

    इस मंत्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे सभापते जैसे यह सूर्य्यलोक बहुत लोकों के साथ आकर्षण संबन्ध से वर्त्तमान सब वस्तुमात्र को प्रकाशित करता हुआ प्रकाश तथा पृथिवी लोक का मेल करता है वैसे स्वभावयुक्त आप हूजिये ॥९॥

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    विषय

    फिर वह क्या करता है, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    भोः सभाध्यक्ष यथा हिरण्यपाणिः विचर्षणिः सविता सूर्यलोकः उभे द्यावापृथिवी अन्तः ईयते अमीवाम् अप बाधते सूर्यम् अभि वेति कृष्णेन रजसा सह द्याम् ऋणोति तथा भूतः त्वं भव ॥९॥

    पदार्थ

    (भोः)=हे, (सभाध्यक्ष)=सभाध्यक्ष, (यथा)=जैसे, (हिरण्यपाणिः) हिरण्यानि ज्योतींषि पाणयो हस्तवद्ग्रहणसाधनानि यस्य सः=जिसके हाथ अर्थात् ग्रहण करने के साधन सुवर्णमयी ज्योति के समान हैं, (विचर्षणिः) विलेखनस्वभावेन विच्छेदकः=उखाड़ने के स्वभाव से छिन्न-भिन्न करने वाला, (सविता) रसानां प्रसविता=रसों को उत्पन्न करनेवाला, (सूर्यलोकः)=सूर्यलोक, (उभे) द्वे=दोनों, (द्यावापृथिवी) प्रकाश पृथिव्यौ=प्रकाश और पृथिवी के, (अन्तः) अन्तरिक्षस्य मध्ये=अन्तरिक्ष के मध्य में, (ईयते) प्रापयति=प्राप्त होता है और (अमीवाम्)= रोग और पीड़ा का (अप) दूरीकरणे=निवारण करता है, (सूर्यम्) सरणशीलं स्वकीयरश्मिगणम्=अपनी किरणों के  त्वरित गति का स्वभाव होने से, (अभि) सर्वतो भावे=हर ओर से, (वेति) प्रजनयति=उत्पन्न करता है, (कृष्णेन) पृथिव्यादिना=पृथिवी आदि, (रजसा) लोकसमूहेन=लोकों के समूह के, (सह)=साथ, (द्याम्) प्रकाशम्=प्रकाश को, (ऋणोति) प्रापयति=प्राप्त करता है, (तथा)=वैसे ही,  (भूतः)= मूल द्रव्य [के समान] (त्वम्)=तुम,  (भव)=होओ ॥९॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    इस मंत्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे सभापते जैसे यह सूर्य्यलोक बहुत लोकों के साथ आकर्षण सम्बन्ध से वर्त्तमान सब वस्तुमात्र को प्रकाशित करता हुआ प्रकाश तथा पृथिवी लोक का मेल करता है वैसे स्वभाव से युक्त आप हूजिये ॥९॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    (भोः) हे (सभाध्यक्ष) सभाध्यक्ष ! (यथा) जैसे (हिरण्यपाणिः) जिसके हाथ अर्थात् ग्रहण करने के साधन स्वर्णमयी ज्योति के समान हैं, (विचर्षणिः) ऐसे उखाड़ने के स्वभाव से छिन्न-भिन्न करने वाला, (सविता) रसों को उत्पन्न करनेवाला (सूर्यलोकः) सूर्यलोक, (द्यावापृथिवी) प्रकाश और पृथिवी इन (उभे) दोनों और (अन्तः) अन्तरिक्ष के मध्य में (ईयते) पहुँचता है। यह (अमीवाम्) रोग और पीड़ा का (अप) निवारण करता है। (सूर्यम्) अपनी किरणों के  त्वरित गति का स्वभाव होने से (अभि) हर ओर से (वेति) उत्पन्न करने का कार्य करता है। (कृष्णेन) पृथिवी आदि (रजसा) लोकों के समूह के (सह) साथ (द्याम्) प्रकाश को (ऋणोति) प्राप्त कराता है, (तथा) वैसे ही (त्वम्) तुम  (भूतः) मूल वस्तु [की प्रकृति को धारण करने वाले के समान] (भव) होओ ॥९॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (हिरण्यपाणिः) हिरण्यानि ज्योतींषि पाणयो हस्तवद्ग्रहणसाधनानि यस्य सः (सविता) रसानां प्रसविता (विचर्षणिः) विलेखनस्वभावेन विच्छेदकः। कृषेरादेश्चचः उ० २।१००। इति कृषविलेखने धातोरनिः प्रत्ययः (उभे) द्वे (द्यावापृथिवी) प्रकाश पृथिव्यौ (अन्तः) अन्तरिक्षस्य मध्ये (ईयते) प्रापयति (अप) दूरीकरणे (अमीवाम्) रोगपीड़ाम् (बाधते) निवारयति (वेति) प्रजनयति। अत्रान्तर्गतो ण्यर्थः। (सूर्यम्) सरणशीलं स्वकीयरश्मिगणम् (अभि) सर्वतो भावे (कृष्णेन) पृथिव्यादिना (रजसा) लोकसमूहेन (द्याम्) प्रकाशम् (ऋणोति) प्रापयति। अत्रान्तर्गतो ण्यर्थः ॥९॥ 
    विषयः- पुनः स किं करोतीत्युपदिश्यते।

    अन्वयः- भोः सभाध्यक्ष यथा हिरण्यपाणिर्विचर्षणिः सविता सूर्यलोक उभे द्यावापृथिवी अन्तरीयते अमीवामपबाधते सूर्यमभिवेति कृष्णेन रजसा सह द्यामृणोति तथाभूतस्त्वं भव ॥९॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे सभापते यथायं सूर्योबहुभिर्लोकैः सहाकर्षणसंबन्धेन वर्त्तमानः सर्वं वस्तूजातं प्रकाशयन् प्रकाशपृथिव्योरान्तर्यं करोति तथैव त्वया भवितव्यमिति ॥९॥

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    विषय

    हिरण्यपाणि सविता

    पदार्थ

    १. (हिरण्यपाणि) - अपने किरणरूप हाथों में स्वर्ण को लिये हुए, सूर्याभिमुख होकर छाती पर, सूर्य - किरणों को अपने शरीर पर लेनेवालों को यह सूर्य अपनी किरणों से स्वर्ण के इंजैक्शन्स लगाता प्रतीत होता है, (सविता) - सबको कर्मों में व्याप्त होने की यह प्रेरणा दे रहा है । (विचर्षणिः) - [विशिष्टदर्शनयुक्ताः] यह दृष्टि - शक्ति को विशेष रूप से बढ़ानेवाला है । ऐसा यह सूर्य (उभे) - दोनों (द्यावापृथिवी अन्तः) - द्युलोक व पृथिवीलोक के मध्य में (ईयते) - गति करता है । 
    २. सर्वत्र प्रकाश फैलाता हुआ यह सूर्य (अमीवाम्) - रोगकृमियों को (अपबाधते) - सुदूर फेंक देता है । [उद्यन् आदित्यः क्रिमीन् हन्ति निम्लोचन हन्तु रश्मिभिः] । 
    ३. (सूर्यम्) - सरणशीलता को (वेति) - प्राप्त कराता है [जनयति, द०] शरीर में स्फूर्ति लाकर आलस्य को नष्ट करता है । (कृष्णेन) - [तमसः कर्षकेण] अन्धकार के निवारक (रजसा) - तेज से (द्याम्) - द्युलोक को (अभि ऋणोति) - दोनों ओर से व्याप्त करता है । सूर्याभिमुख पृथिवी के भाग पर सूर्य की किरणें सीधी पड़ती हैं तथा दूसरी ओर चन्द्रमा से प्रतिक्षिप्त होकर सूर्यकिरणें प्रकाश फैलाती हैं । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - सूर्य हिरण्यपाणि है, रोगों को दूर करता है और सरणशीलता व स्फूर्ति प्राप्त कराता है । 
     

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    विषय

    सूर्य के दृष्टान्त से तेजस्वी सुपर्ण रूप से राजा का वर्णन ।

    भावार्थ

    (हिरण्यपाणिः) जलों के ग्रहण करनेवाले, हाथों के समान ज्योतिर्मय किरणों को धारण करनेवाला (सविता) समस्त ओषधियों और अन्तरिक्ष में जलों और रसों का उत्पादक (विचर्षणिः) विशेषरूप से समस्त लोकों को आकर्षण करने वाला होकर सूर्य (द्यावापृथिवी अन्तः) आकाश और भूमि दोनों के बीच में गति करता। और (अमीवां) रोगादि पीड़ा को (अप बाधते) दूर करता है। और (सूर्यम्) सबके प्रेरक और उत्पादक प्रकाश समूह को (वेति) प्रकाशित करता है। और (कृष्णेन रजसा) अन्धकार के नाश करने वाले तेज से, अथवा (कृष्णेन रजसा) तमोमय, प्रकाश रहित पृथिवी आदि लोक समूह के साथ (द्याम् अभि ऋणोति) आकाश को प्रकाश से भर देता है। उसी प्रकार राजा सभापति भी (सविता) सबका आज्ञापक (हिरण्यपाणिः) सुवर्ण आदि ऐश्वर्य को अपने हाथ या अधिकार में रखनेवाला और विविध प्रजाओं का द्रष्टा, या आकर्षक, वशकारी होकर (द्यावापृथिव्योः अन्तः) राजवर्ग और प्रजावर्ग दोनों के बीच में विद्यमान रहे। वह (अमीवां) प्रजा के पीड़क शत्रु और रोगों को दूर करे। वह (सूर्यं वेति) सूर्य समान तेजस्वी पद को प्राप्त करे। (कृष्णेन रजसा) आकर्षक तेज से (द्याम् ऋणोति) राजसभा को प्राप्त हो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    हिरण्यस्तूप आङ्गिरस ऋषिः ॥ देवताः—१ अग्निर्मित्रावरुणौ रात्रिः सविता । २-११ सविता ॥ छन्दः- १ विराड् जगती । ९ निचृज्जगती । २, ५, १०, ११ विराट् त्रिष्टुप् । ३, ४, ६ त्रिष्टुप् । ७, ८ भुरिक् पंक्तिः । एकादशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे सभापती! जसा हा सूर्यलोक पुष्कळ गोलांबरोबर आकर्षण संबंधाने स्थित असून सर्व वस्तूंना प्रकाशित करतो व प्रकाश आणि पृथ्वीलोकाचा संयोग करतो तसा स्वभाव तुमचाही ठेवा. ॥ ९ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Savita, the sun, lord of the golden hand of generosity, creator of the sap of life, shines across the regions of heaven and earth. It destroys and eliminates disease and dirt, spreads its light all over, blazes in the heavens and over-reaches the regions of darkness.

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    Subject of the mantra

    Then what does he do? This subject has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    (bhoḥ)=O! (sabhādhyakṣa)=President of the Assembly, (yathā)=like, (hiraṇyapāṇiḥ)= whose hands, being the means of receiving are like a golden light, (vicarṣaṇiḥ)= The destroyer by the nature of such uprooting, (savitā)= the producer of saps, (sūryalokaḥ)=sun-world, (dyāvāpṛthivī)=light and earth, (ubhe)=both, (antaḥ) in the middle of space, [aur]=and, (īyate)= reaches, [yaha]=this, (amīvām)= pain of disease, (apa)= eradicates, (sūryam)= Due to the nature of the rapid movement of its rays, (abhi)=from all sides, (veti)=to create, (kṛṣṇena)= earth etc. (rajasā)=group of worlds, (saha)=with, (dyām)=to light, (ṛṇoti)=receives, (tathā)=in the same way, (bhūtaḥ)= like the one possessing the nature of the original object., (tvam)=you, (bhava)=be.

    English Translation (K.K.V.)

    O President of the assembly! Like, whose hands, that is, the means of receiving, are like the golden light, the one who dissipates by the nature of such uprooting, the producer of the juices, the Sun-world, the light and the earth reaches between these two and space. It cures diseases and pain. Due to the nature of the rapid movement of its rays, it works to generate it from all sides. The earth receives the light along with the group of the original worlds, in the same way you are like the one who possesses the nature of the original object.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There is vocal latent simile as a figurative in this mantra. O speaker of assembly! Just as this Sun-like planet, illumining all the present objects with an attraction relationship with many worlds, merges the light and the earth world, in the same way, you be of the of that nature.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What does Savita do is further taught in the 9th Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O President of the Assembly! You should be like the solar world which has light as its hands, which is generator of sap and disintegrator of particles. It travels (through its rays ) between the two regions of heaven and earth, dispels diseases, spreads its rays, and overspreads the light with the earth.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    ( हिरण्यपाणि:) हिरण्यानि ज्योतींषि पाणयः-हस्तवद् ग्रहण साधनानि यस्य सः = Having light as its hands. ( सविता) रसानां प्रसविता = The generator of sap. (विचर्षणिः) विलेखन स्वभावेन विच्छेदकः । कृषेरादेश्च चः (उणा० ३.१०० ) इति कृष्-विलेखने धातोः अनि: प्रत्ययः | = Disintegrator. ( सूर्यम् ) सरणशीलं स्वकीय रश्मिगणम् = The band of the rays of the Sun. ( कृष्णेन रजसा ) ! पृथिव्यादिना लोकसमूहेन = With the earth and other worlds. (द्याम्) प्रकाशम् = Light.(ऋणोति) प्रापयति अन्तर्गतोण्यर्थः = Causes. ( ऋ०-गतिप्रापणयोः) (अमीवाम् ) रोगपीडाम् = The pain of disease. अम-रोगे

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O President of the Assembly, as this Sun related with many worlds on account of his gravitation, illumines all objects and enables all to distinguish between light and darkness, you should also be like him, spreading the light of knowledge and dispelling all darkness of ignorance.

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