ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 35/ मन्त्र 5
ऋषिः - हिरण्यस्तूप आङ्गिरसः
देवता - सविता
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
वि जना॑ञ्छ्या॒वाः शि॑ति॒पादो॑ अख्य॒न्रथं॒ हिर॑ण्यप्रउगं॒ वह॑न्तः । शश्व॒द्विशः॑ सवि॒तुर्दैव्य॑स्यो॒पस्थे॒ विश्वा॒ भुव॑नानि तस्थुः ॥
स्वर सहित पद पाठवि । जना॑न् । श्या॒वाः । शि॒ति॒ऽपादः॑ । अ॒ख्य॒न् । रथ॑म् । हिर॑ण्यऽप्रऽउग॒म् । वह॑न्तः । शश्व॑त् । विशः॑ । स॒वि॒तुः । दैव्य॑स्य । उ॒पऽस्थे॑ । विश्वा॑ । भुव॑नानि । त॒स्थुः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
वि जनाञ्छ्यावाः शितिपादो अख्यन्रथं हिरण्यप्रउगं वहन्तः । शश्वद्विशः सवितुर्दैव्यस्योपस्थे विश्वा भुवनानि तस्थुः ॥
स्वर रहित पद पाठवि । जनान् । श्यावाः । शितिपादः । अख्यन् । रथम् । हिरण्यप्रउगम् । वहन्तः । शश्वत् । विशः । सवितुः । दैव्यस्य । उपस्थे । विश्वा । भुवनानि । तस्थुः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 35; मन्त्र » 5
अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 6; मन्त्र » 5
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अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 6; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
(वि) विशेषार्थे (जनान्) विदुषः (श्यावाः) श्यायन्ते प्राप्नुवन्ति ते। श्यावाः सवितुरित्यादिष्टोपयोजननामसु पठितम्। निघं० १।१५। (शितिपादः) शितयः शुक्लाः पादा अंशा येषां किरणानान्ते (अख्यन्) ख्याता भवन्ति। अत्र लडर्थे लुङ्। (रथम्) विसानादियानम् (हिरण्यप्रउगम्) हिरण्यस्य ज्योतिषोऽग्नेः प्रउगं सुखवत्स्थानं यस्मिँस्तं प्रयोगार्हम्। पृषोदरादिना अभीष्टरूपसिद्धिः (वहन्तः) प्राप्नुवन्तः (शश्वत्) अनादयः (विशः) प्रजाः (सवितुः) सूर्यलोकस्य (दैव्यस्य) देवेषु दिव्येषु पदार्थेषु भवो दैव्यस्तस्य (उपस्थे) उपतिष्ठन्ते यस्मिँस्तस्मिन्। अत्र घञर्थे कविधानम् इत्यधिकरणे कः प्रत्ययः। (विश्वा) विश्वानि सर्वाणि। अत्र शेश्छन्दसि इति शेर्लोपः। (भुवनानि) पृथिवीगोलादीनि (तस्थुः) तिष्ठन्ति। अत्र लडर्थे लिट् ॥५॥
अन्वयः
पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते।
पदार्थः
हे सज्जन यथाऽस्य दैव्यस्य सवितुः सूर्यलोकस्योपस्थे विश्वा भुवानानि सर्वे भूगोलास्तस्थुस्तस्य शितिपादः श्यावाः किरणा जनान् हिरण्यप्रउगं रथं शश्वद्विशश्च वहन्ती व्यख्यन् विविधतया ख्यान्ति तथा तव निकटे विद्वांसस्तिष्ठन्तु त्वं च विद्याधर्मौ प्रकटय ॥५॥
भावार्थः
हे मनुष्या यूयं यथा सूर्यलोकस्य प्रकाशाकर्षणादयो गुणाः सन्ति ते सर्वं जगद्धारणपुरस्सरं यथा योग्यं प्रकटयन्ति ये सूर्यस्य सन्निधौ लोकाः सन्ति ते सूर्य्यप्रकाशेन प्रकाशन्ते या अनादिरूपाः प्रजास्ता अपि वायुर्धरति। अनेन सर्वेलोकाः स्वस्वपरिधौ समवतिष्ठन्ते तथा गुणान्धरत स्वस्वव्यवस्थायां स्थित्वा न्यायान् स्थापयत च ॥५॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर वे कैसे हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है।
पदार्थ
हे सज्जन पुरुष ! आप जैसे जिस (दैव्यस्य) विद्वान् वा दिव्य पदार्थों में उत्पन्न होनेवाले (सवितुः) सूर्यलोक की (उपस्थे) गोद अर्थात् आकर्षण शक्ति में (विश्वा) सब (भुवनानि) पृथिवी आदि लोक (तस्थुः) स्थित होते हैं उसके (शितिपादः) अपने श्वेत अवयवों से युक्त (श्यावाः) प्राप्ति होनेवाले किरण (जनान्) विद्वानों (हिरण्यप्रउगम्) जिसमें ज्योति रूप अग्नि के मुख के समान स्थान हैं उस (रथम्) विमान आदि यान और (शश्वत्) अनादि रूप (विशः) प्रजाओं को (वहन्तः) धारण और बढ़ाते हुए (अख्यन्) अनेक प्रकार प्रगट होते हैं वैसे तेरे समीप विद्वान् लोग रहैं और तूं भी विद्या तथा धर्म का प्रचार कर ॥५॥
भावार्थ
हे मनुष्यो ! तुम जैसे सूर्यलोक के प्रकाश का आकर्षण आदि गुण सब जगत् को धारणपूर्वक यथायोग्य प्रगट करते हैं। और जो सूर्य के समीप लोक हैं वे सूर्य के प्रकाश से प्रकाशित होते हैं। जो अनादि रूप प्रजा है उसका भी वायु धारण करता है इस प्रकार होने से सब लोक अपनी-२ परिधि में स्थित होते हैं वैसे तुम सद्गुणों का धारण और अपने-२ अधिकारों में स्थित होकर अन्य सबको न्याय मार्ग में स्थापन किया करो ॥५॥
विषय
फिर वे कैसे हैं, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है।
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे सज्जन यथा अस्य दैव्यस्य सवितुः सूर्यलोकस्य उपस्थे विश्वा भुवानानि सर्वे भूगोलाः तस्थुः तस्य शितिपादः श्यावाः किरणा जनान् हिरण्य प्रउगं रथं शश्वद् विशः च वहन्त वि अख्यन् विविधतया ख्यान्ति तथा तव निकटे विद्वांसः तिष्ठन्तु त्वं च विद्याधर्मौ प्रकटय ॥५॥
पदार्थ
हे (सज्जन)=सज्जन पुरुष ! (यथा)=जैसे, (अस्य)=जिस, (दैव्यस्य) देवेषु दिव्येषु पदार्थेषु भवो दैव्यस्तस्य=विद्वान् या दिव्य पदार्थों में उत्पन्न होनेवाले, (सवितुः) सूर्यलोकस्य=सूर्यलोक के, (उपस्थे) उपतिष्ठन्ते यस्मिँस्तस्मिन्=जिस गोद में सम्मान और पालन करते हैं, उसमें उन (विश्वा) विश्वानि सर्वाणि=समस्त, (भुवनानि) पृथिवीगोलादीनि=पृथिवी आदि लोकों में, (सर्वे)=समस्त, (भूगोलाः)=लोकों में, (तस्थुः) तिष्ठन्ति=स्थिर रहता है, (तस्य)=उसके, (शितिपादः) शितयः शुक्लाः पादा अंशा येषां किरणान्ते=श्वेत पाद हैं जिनके, ऐसी किरणों को (श्यावाः) श्यायन्ते प्राप्नुवन्ति ते=वे प्राप्त करते हैं, (किरणा)=किरणें, (जनान्) विदुषः=विद्वानों को, (हिरण्यप्रउगम्) हिरण्यस्य ज्योतिषोऽग्नेः प्रउगं सुखवत्स्थानं यस्मिँस्तं=स्वर्णमयी दिव्य ज्योतिरूपी अग्नि के सुख रूपी स्थान में, (रथम्) विमानादियानम्=विमान आदि यान को, (शश्वत्) अनादयः=हिंसक रूप से कंपन या ध्वनि करता है, (च)=और, (विशः) प्रजाः=प्रजा को, (वहन्तः) प्राप्नुवन्तः=प्राप्त होता है, (वि) विशेषार्थे=विशेष रूप से. (अख्यन्) ख्याता भवन्ति=जाने जाते हैं, (विविधतया)=विविध प्रकार से, (ख्यान्ति)= जाने जाते हैं, (तथा)=वैसे ही, (तव)=आपके, (निकटे)=निकट में, (विद्वांसः)=विद्वान् लोग, (तिष्ठन्तु)=बैठें। (त्वम्)=तुम, (च)=भी, (विद्याधर्मौ)= विद्या और धर्म का, (प्रकटय)=प्रचार करो॥५॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
हे मनुष्यो ! तुम जैसे सूर्यलोक के प्रकाश का आकर्षण आदि गुण सब जगत् को धारणपूर्वक यथायोग्य प्रकट करते हैं। और जो सूर्य के समीप लोक हैं वे सूर्य के प्रकाश से प्रकाशित होते हैं। जो अनादि रूप प्रजा है उसका भी वायु धारण करता है इस प्रकार होने से सब लोक अपनी- अपनी परिधि में स्थित होते हैं वैसे तुम सद्गुणों का धारण और अपने-अपने अधिकारों में स्थित होकर अन्य सबको न्याय मार्ग में स्थापन किया करो ॥५॥
विशेष
अनुवादक की टिप्पणी- इस मन्त्र में जिस मेघ में जल की बूँदें एकत्रित होती हैं, वह उस गोद के समान है जिसमें आकाशीय पदार्थों में सूर्य-संसार निर्मित होता है। उसमें वह सब पृथ्वी आदि सब लोकों में स्थित रहते हैं। सूर्य की किरणों को सफेद पैर बताया गया है।
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (सज्जन) सज्जन पुरुष ! (यथा) जैसे (अस्य) जिस (दैव्यस्य) दिव्य पदार्थों में उत्पन्न होनेवाले (सवितुः) सूर्यलोक की (उपस्थे) जिस गोद में सम्मान और पालन करते हैं, उसमें उन (विश्वा) समस्त (भुवनानि) पृथिवी आदि (सर्वे) समस्त (भूगोलाः) लोकों में (तस्थुः) स्थिर रहता है। (तस्य) उसके (शितिपादः) श्वेत पाद हैं जिनको, [ऐसी किरणों को] (श्यावाः) वे प्राप्त करते हैं। (किरणा) किरणें (जनान्) विद्वानों को, (हिरण्यप्रउगम्) स्वर्णमयी दिव्य ज्योतिरूपी अग्नि के सुख रूपी स्थान में, (रथम्) विमान आदि यान को (शश्वत्) हिंसक रूप से कंपन या ध्वनि करता है। (च) और (विशः) प्रजा को (वहन्तः) प्राप्त होता है, (वि) विशेष रूप से और (विविधतया) विविध प्रकार से (ख्यान्ति) जाने जाते हैं। (तथा) वैसे ही (तव) आपके (निकटे) निकट में (विद्वांसः) विद्वान् लोग (तिष्ठन्तु) उपस्थित रहें। (त्वम्) तुम (च) भी (विद्याधर्मौ) विद्या और धर्म का (प्रकटय) प्रचार करो॥५॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (वि) विशेषार्थे (जनान्) विदुषः (श्यावाः) श्यायन्ते प्राप्नुवन्ति ते। श्यावाः सवितुरित्यादिष्टोपयोजननामसु पठितम्। निघं० १।१५। (शितिपादः) शितयः शुक्लाः पादा अंशा येषां किरणानान्ते (अख्यन्) ख्याता भवन्ति। अत्र लडर्थे लुङ्। (रथम्) विसानादियानम् (हिरण्यप्रउगम्) हिरण्यस्य ज्योतिषोऽग्नेः प्रउगं सुखवत्स्थानं यस्मिँस्तं प्रयोगार्हम्। पृषोदरादिना अभीष्टरूपसिद्धिः (वहन्तः) प्राप्नुवन्तः (शश्वत्) अनादयः (विशः) प्रजाः (सवितुः) सूर्यलोकस्य (दैव्यस्य) देवेषु दिव्येषु पदार्थेषु भवो दैव्यस्तस्य (उपस्थे) उपतिष्ठन्ते यस्मिँस्तस्मिन्। अत्र घञर्थे कविधानम् इत्यधिकरणे कः प्रत्ययः। (विश्वा) विश्वानि सर्वाणि। अत्र शेश्छन्दसि इति शेर्लोपः। (भुवनानि) पृथिवीगोलादीनि (तस्थुः) तिष्ठन्ति। अत्र लडर्थे लिट् ॥५॥
विषयः- पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते।
अन्वयः- हे सज्जन यथाऽस्य दैव्यस्य सवितुः सूर्यलोकस्योपस्थे विश्वा भुवानानि सर्वे भूगोलास्तस्थुस्तस्य शितिपादः श्यावाः किरणा जनान् हिरण्यप्रउगं रथं शश्वद्विशश्च वहन्त व्यख्यन् विविधतया ख्यान्ति तथा तव निकटे विद्वांसस्तिष्ठन्तु त्वं च विद्याधर्मौ प्रकटय ॥५॥
भावार्थः(महर्षिकृतः)- हे मनुष्या यूयं यथा सूर्यलोकस्य प्रकाशाकर्षणादयो गुणाः सन्ति ते सर्वं जगद्धारणपुरस्सरं यथा योग्यं प्रकटयन्ति ये सूर्यस्य सन्निधौ लोकाः सन्ति ते सूर्य्यप्रकाशेन प्रकाशन्ते या अनादिरूपाः प्रजास्ता अपि वायुर्धरति। अनेन सर्वेलोकाः स्वस्वपरिधौ समवतिष्ठन्ते तथा गुणान्धरत स्वस्वव्यवस्थायां स्थित्वा न्यायान् स्थापयत च ॥५॥
विषय
सम्पूर्ण प्रजाओं व भुवनों का आधार
पदार्थ
१. (श्यावः) - [श्यैङ् गतौ] सब लोकों में गति करनेवाले (शितिपादः) - श्वेतकिरणरूप पाँवोंवाले सूर्य के अश्व (हिरण्यप्रउगम्) - ज्योतिर्मय मुखवाले [प्रउग - रथ का युगबन्धन स्थान] (रथम्) - रथ को (वहन्तः) - आगे ले - चलते हुए (जनान्) - सब प्राणियों को (वि अख्यन्) - विशेषरूप से प्रकाश प्राप्त कराते हैं । यह सूर्य का पिण्ड ही रथ है, उसमें किरणें ही मानो घोड़े जुते हुए हैं । ये सूर्य - रथ को निरन्तर गतिमय कर रहे हैं ।
२. (विशः) - सब प्रजाएँ (शश्वत्) - सदा (दैव्यस्य) - उस महान् देव प्रभु की विभूतिरूप (सवितुः) - इस कर्मों में प्रेरित करनेवाले सूर्य की (उपस्थे) - गोद में (तस्थः) - स्थित होती हैं ।
३. और (विश्वा भुवनानि) - सम्पूर्ण लोक उस सूर्य के ही समीप (तस्थुः) - स्थित हैं । उसके आकर्षण से स्थित हुए - हुए उसके चारों ओर ही गति कर रहे हैं ।
भावार्थ
भावार्थ - सूर्य प्रभु की महती विभूति है । सम्पूर्ण प्रजाएँ व लोक उसी के समीप स्थित हैं । प्रजाओं को वह प्राणशक्ति दे रहा है और भुवनों को आकर्षण से धारण कर रहा है ।
विषय
सर्व भुवनाधार, सर्वोत्पादक प्रभु ।
भावार्थ
(दैव्यस्य) दिव्य, तेजस्वी और आकाश में विचरने वाले समस्त लोकों में सर्वश्रेष्ठ (सवितुः) सबके प्रकाशक, सूर्य के समान तेजस्वी एवं सबके उत्पादक परमेश्वर के (उपस्थे) गोद में, उसके आश्रय में (विशः) समस्त प्रजाएं और (विश्वा) समस्त (भुवनानि) लोक (तस्थुः) स्थित हैं। और (श्यावाः) ज्ञान करने योग्य, (शितिपादः) शुभ्र, विशुद्ध ज्ञान कराने वाले पादों, छन्दों के चरणों से युक्त, (हिरण्यप्रउगम्) कान्ति वाले, आत्मा द्वारा जानने योग्य (रथम्) अति रमणीय, आनन्द मय रस को (वहन्तः) धारण करते हुए, (जनान्) मनुष्यों को (वि अख्यन्) विविध ज्ञानों का प्रकाश करते और स्वयं भी किरणों के समान प्रकाशित होते हैं। सूर्य के पक्ष में—(श्यावाः) समस्त लोकों में पहुंचने वाले (शितिपादः) श्वेत अंशु वाले,किरण (हिरण्यप्रउगम्) अग्नि रूप कान्ति का प्रयोग करने वाले, तापमय (रथम्) स्वरूप को धारण करते हुए (जनान्) और जन्तुओं को धारण पोषण करते हुए (वि अख्यन्) विविध रूप से प्रकाशित होते हैं (सवितुः दैव्यस्य उपस्थे) उस सूर्य के आधार पर (विशः विश्वा भुवनानि) समस्त प्रजाएं और लोक भी (शश्वत्) सदा काल से (तस्थुः) स्थित हैं। राजा के पक्ष में—सूर्य के समान तेजस्वी राजा के आश्रय पर समस्त (विशः) प्रजाएं और (भुवनानि) सब लोक आश्रय लेते हैं। (श्यावाः शितिपादः) काले लाल रंग के, बैजनी रंग के, श्वेत चरणों वाले घोड़े (हिरण्य-प्रउगं) सुवर्ण के जुए से सुशोभित रथ को ढोते और (जनान् वि अख्यन्) सब लोकों को राजा का वैभव दर्शाते हैं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
हिरण्यस्तूप आङ्गिरस ऋषिः ॥ देवताः—१ अग्निर्मित्रावरुणौ रात्रिः सविता । २-११ सविता ॥ छन्दः- १ विराड् जगती । ९ निचृज्जगती । २, ५, १०, ११ विराट् त्रिष्टुप् । ३, ४, ६ त्रिष्टुप् । ७, ८ भुरिक् पंक्तिः । एकादशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जसे सूर्याचा प्रकाश किंवा आकर्षण इत्यादी गुण सर्व जगाला धारणापूर्वक यथायोग्य प्रकट करतात व जे गोल सूर्यासमीप आहेत ते सूर्याच्या प्रकाशाने प्रकाशित होतात. जी अनादीरूप प्रजा आहे त्यांनाही वायू धारण करतो. याप्रकारे सर्व गोल आपापल्या परिधीत स्थित असतात. तसे हे माणसांनो! तुम्ही सद्गुणांना धारण करून आपापल्या अधिकारात स्थित राहून इतरांना न्यायमार्गात स्थापित करा. ॥ ५ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
In the lap of Divine Savita, eternal Lord of the universe, reside all the worlds of existence and the children of the divine. So in the gravitational field of the sun, heavenly light, are held all the regions of the solar system alongwith the living beings ever abiding therein. And the rays of the sun, white and brilliant, bearing the world-chariot of the golden yoke, shine and proclaim the glory of the lord to the people.
Subject of the mantra
Then, what kind of they are? This subject has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (sajjana)=Gentle man, (yathā)=like, (asya)=which,(daivyasya)=created in celestial substances, (savituḥ)=of the Sun-world, (upasthe)=In the lap in which they respect and obey, in those, (viśvā)=all, (bhuvanāni)=earth etc. (sarve)=all, (bhūgolāḥ)=in worlds, (tasthuḥ)=remains stable, (tasya)=of that, (śitipādaḥ)=has white feet, [aisī kiraṇoṃ ko]=to such rays, (śyāvāḥ) =they receive. (kiraṇā)=rays, (janān)=to scholars, (hiraṇyaprugam)=In the abode of happiness in the form of fire of golden divine light, the triangular place [in the lap] of the golden divine flame of fire, (ratham)=to aircraft etc. vehicle, (śaśvat) =vibrates or makes a sound violently, (ca)=and, (viśaḥ)=to the people, (vahantaḥ)=Is obtained, (vi)=specially, [aura]=and, (vividhatayā)=in a variety of ways, (khyānti)=are known, (tathā)=in the same way, (tava)=your, (nikaṭe)=near, (vidvāṃsaḥ)=scholars, (tiṣṭhantu)=be present, (tvam)=you, (ca)=also, (vidyādharmau)=of knowledge and tenet, (prakaṭaya)=propagate.
English Translation (K.K.V.)
O gentle man! Like In the lap in which they respect and obey, in those, in which the Sun-world created in celestial substances, In him, all those earths etc. remain stable in all the worlds. He has white feet, which such rays they receive. The rays give the scholars in the abode of happiness in the form of fire of golden divine light. Vibrating or making sounds violently for the purpose of fulfillment of the stomach, i.e. cloud etc., containing water droplets, aircraft etc. and the people get it specially and are known in various ways. In the same way, scholars should be present near you. You should also propagate knowledge and tenets.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
O human beings! Like you, the attractiveness of the Sun's light, etc., manifests itself as appropriately to all the worlds. And those who are near the Sun are illuminated by the light of the Sun. The person who is of the eternal form also holds the air, by being in this way all the worlds are situated in their respective periphery, in the same way, by imbibing virtues and being established in your rights, establish everyone else on the path of justice.
TRANSLATOR’S NOTES-
In this mantra the cloud where the water droplets collect is like the lap in which the Sun-world is created in celestial substances. In that all those earths etc. remain stable in all the worlds. Sun rays have been said to be white feet.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How are they (the air and the Sun) is taught in the fifth Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O noble person, as all men and all the regions are dependent (for light and life) on the sun, whose white rays manifest light to man-kind, maintaining aero planes and other vehicles where fire and light are properly put, so learned men should stay with you and you should manifest knowledge and righteousness.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(श्यावा:) श्यायन्ते प्राप्नुवन्ति ते । श्यावा: संवितुरित्यादिष्टोपयोजन नामसु पठितम् ( निघ० १.१५ ) = The rays of the Sun. ( शितिपाद: ) शितयः शुक्ल: पादा अंशा येषां किरणानां ते = White beams. (हिरण्य प्र उगम्) हिरण्यस्य ज्योतिषः अग्नेः प्रउगं सुखवत् स्थानं यस्मिन् तं प्रयोगार्हम् पृषोदरत्वादित्वादभीष्टरूपसिद्धिः ॥ = Having proper place for the fire and light. (रथम्) विमानादियानम् = Chariot or vehicle like the aero plane etc.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men, all these are the attributes of the solar world like the light and attraction which uphold the world and properly manifest all objects. The worlds that are near the sun, are illumined by the light of the sun and the air also sustains the people. On account of this, all worlds remain in their axis. So you should bear all noble virtues and establish justice, maintaining proper order.
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