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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 35 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 35/ मन्त्र 11
    ऋषिः - हिरण्यस्तूप आङ्गिरसः देवता - सविता छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    ये ते॒ पन्थाः॑ सवितः पू॒र्व्यासो॑ऽरे॒णवः॒ सुकृ॑ता अ॒न्तरि॑क्षे । तेभि॑र्नो अ॒द्य प॒थिभि॑स्सु॒गेभी॒ रक्षा॑ च नो॒ अधि॑ च ब्रूहि देव ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ये । ते॑ । पन्थाः॑ । स॒वि॒त॒रिति॑ । पू॒र्व्यासः॑ । अ॒रे॒णवः॑ । सुऽकृ॑ताः । अ॒न्तरि॑क्षे । तेभिः॑ । नः॒ । अ॒द्य । प॒थिऽभिः॑ । सु॒ऽगेभिः॑ । रक्ष॑ । च॒ । नः॒ । अधि॑ । च॒ । ब्रू॒हि॒ । दे॒व॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ये ते पन्थाः सवितः पूर्व्यासोऽरेणवः सुकृता अन्तरिक्षे । तेभिर्नो अद्य पथिभिस्सुगेभी रक्षा च नो अधि च ब्रूहि देव ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ये । ते । पन्थाः । सवितरिति । पूर्व्यासः । अरेणवः । सुकृताः । अन्तरिक्षे । तेभिः । नः । अद्य । पथिभिः । सुगेभिः । रक्ष । च । नः । अधि । च । ब्रूहि । देव॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 35; मन्त्र » 11
    अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 7; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    (ये) वक्ष्यमाणाः (ते) तव (पन्थाः) धर्ममार्गाः। अत्र सुपां सुलुग् इति जसः स्थाने सुः। (सवितः) सकलजगदुत्पादकेश्वर (पूर्व्यासः) पूर्वैः कृताः साधिताः सेविताश्च। अत्र पूर्वैः कृतमिनियौ च। अ० ४।४।१३३। इति पूर्वशब्दाद्यः प्रत्ययः। आज्जसेरसुग्# इत्यसुगागमश्च। (अरेणवः) अविद्यमाना रेणवो धूल्यंशा इव विघ्ना येषु ते। अत्रिवृरी०। उ० ३।३७। इति रीधातोर्णुः प्रत्ययः। (सुकृताः) सुष्ठु निर्मिताः (अन्तरिक्षे) स्वव्याप्तिरूपे ब्रह्माण्डे (तेभिः) तैः (नः) अस्मान् (अद्य) अस्मिन्नहनि (पथिभिः) उक्तमार्गैः (सुगेभिः) सुखेन गच्छन्ति येषु तैः। सुदुरोरधिकरणे०। अ० ३।२।४८। इति वार्त्तिकेन सूपपदाद्गमधातोर्डः प्रत्ययः (रक्ष) पालय। अत्र द्वचोतस्तिङ इतिदीर्घः। (च) समुच्चये (नः) अस्मभ्यम् (अधि) ईश्वरार्थ उपरिभावे (च) अपि (ब्रूहि) उपदिश (देव) सर्वसुखप्रदातरीश्वर ॥११॥ #[अ० ७।१।५०।]

    अन्वयः

    अथेन्द्रशब्देनेश्वर उपदिश्यते।

    पदार्थः

    हे सवितर्देव जगदीश्वर त्वं कृपया येते तवारेणवः पूर्व्यासः सुकृताः पंथानोन्तरिक्षे स्वव्याप्तिरूपे वर्त्तन्ते तेभिः सुगेभिः पथिभिर्नोस्मानद्य रक्ष च नोस्मभ्यं सर्वा विद्या अधिब्रूहि च ॥११॥

    भावार्थः

    हे इश्वर त्वया ये सूर्यादि लोकानां भ्रमणार्था मार्गा प्राणिसुखाय च धर्ममार्गा अन्तरिक्षे स्वमहिम्नि च रचितास्तेष्विमे यथानियमं भ्रमन्ति विचरन्ति च तान् सर्वेषां पदार्थानां मार्गानां गुणांश्चास्मभ्यं ब्रूहि। येन वयं कदाचिदितस्ततो न भ्रमेमेति ॥११॥ अस्मिन् सूक्ते सूर्यलोकेश्वरवायुगुणानां प्रतिपादनाश्चतुस्त्रिंशसूक्तोक्तार्थेन संगतिरस्तीति वेदितव्यम्। इति ७ वर्गः ७ अनुवाकः ३५ सूक्तं च समाप्तम् ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    अब अगले मन्त्र में इन्द्र शब्द से ईश्वर का उपदेश किया है।

    पदार्थ

    हे (सवितः) सकल जगत् के रचने और (देव) सब सुख देनेवाले जगदीश्वर ! (ये) जो (ते) आपके (अरेणवः) जिनमें कुछ भी धूलि के अंशों के समान विघ्नरूप मल नहीं है तथा (पूर्व्यासः) जो हमारी अपेक्षा से प्राचीनों ने सिद्ध और सेवन किये हैं (सुकृताः) अच्छे प्रकार सिद्ध किये हुए (पन्थाः) मार्ग (अन्तरिक्षे) अपने व्यापकता रूप ब्रह्माण्ड में वर्त्तमान हैं (तेभिः) उन (सुगेभिः) सुखपूर्वक सेवने योग्य (पथिभिः) मार्गो से (नः) हम लोगों को (अद्य) आज (रक्ष) रक्षा कीजिये (च) और (नः) हम लोगों के लिये सब विद्याओं का (अधिब्रूहि) उपदेश (च) भी कीजिये ॥११॥

    भावार्थ

    हे ईश्वर ! आपने जो सूर्य आदि लोकों के घूमने और प्राणियों के सुख के लिये आकाश वा अपने महिमारूप संसार में शुद्ध मार्ग रचे हैं जिनमें सूर्यादि लोक यथा नियम से घूमते और सब प्राणी विचरते हैं उन सब पदार्थों के मार्गों तथा गुणों का उपदेश कीजिये कि जिससे हम लोग इधर-उधर चलायमान न होवें ॥११॥ इस सूक्त में सूर्यलोक वायु और ईश्वर के गुणों का प्रतिपादन करने से चौतीसवें सूक्त के साथ इस सूक्त की संगति जाननी चाहिये ॥ यह सातवां वर्ग ७ सातवां अनुवाक ७ और पैंतीसवां सूक्त समाप्त हुआ ॥३५॥

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    विषय

    अब इस मन्त्र में इन्द्र शब्द से ईश्वर का उपदेश किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे सवितः देवः जगदीश्वरः त्वं कृपया ये ते तव अरेणवः पूर्व्यासः सुकृताः पन्थानः अन्तरिक्षे स्वव्याप्तिरूपे वर्त्तन्ते तेभिः सुगेभिः पथिभिः नः अस्मान् अद्य रक्ष च नः अस्मभ्यं सर्वा विद्या अधिब्रूहि च ॥११॥

    पदार्थ

    हे (सवितः) सकलजगदुत्पादकेश्वर=सकल जगत् के रचने और  (देव) सर्वसुखप्रदातरीश्वर=सब सुख देनेवाले जगदीश्वर !  (त्वम्)=आप, (कृपया)= कृपया, (ये) वक्ष्यमाणाः=वर्णित, (ते) तव=आपके, (अरेणवः) अविद्यमाना रेणवो धूल्यंशा इव विघ्ना येषु ते= जिनमें कुछ भी धूल के अंशों के समान विघ्नरूप नहीं है और,  (पूर्व्यासः) पूर्वैः कृताः साधिताः सेविताश्च=जो पूर्व में किये गये और सेवित कर्म हैं, (सुकृताः) सुष्ठु निर्मिताः=शोभनीय रूप से सिद्ध किये हुए, (पन्थाः) धर्ममार्गाः=धर्ममार्ग हैं, (अन्तरिक्षे) स्वव्याप्तिरूपे ब्रह्माण्डे=अपने व्याप्ति रूपी ब्रह्माण्ड में, (स्वव्याप्तिरूपे)=अपने व्याप्ति रूप में, (वर्त्तन्ते)=हैं, (तेभिः) तैः=उनके द्वारा, (सुगेभिः) सुखेन गच्छन्ति येषु तैः=उनमे जो सुख से जाते हैं, उनके द्वारा, (पथिभिः) उक्तमार्गैः=उक्त मार्ग से. (नः) अस्मान्=हमारे लिये, (अद्य) अस्मिन्नहनि=आज ही, (रक्ष) पालय=पालन करो, (च)=और, (नः) अस्मभ्यम्=हमारे लिये, (सर्वा)=सब, (विद्या)=विद्या, (च)=और, (अधि) ईश्वरार्थ उपरिभावे=ईश्वर प्रदत्त, (ब्रूहि) उपदिश=उपदेश कीजिये  ॥११॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    हे ईश्वर ! आपने जो सूर्य आदि लोकों के घूमने और प्राणियों के सुख के लिये आकाश वा अपने महिमारूप संसार में शुद्ध मार्ग रचे हैं जिनमें सूर्यादि लोक यथा नियम से घूमते और सब प्राणी विचरते हैं उन सब पदार्थों के मार्गों तथा गुणों का उपदेश कीजिये कि जिससे हम लोग इधर-उधर चलायमान न होवें ॥११॥ 

    विशेष

    सूक्त के महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद- इस सूक्त में सूर्यलोक वायु और ईश्वर के गुणों का प्रतिपादन करने से चौतीसवें सूक्त के साथ इस सूक्त की संगति जाननी चाहिये॥११॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (सवितः) सकल जगत् के रचने वाले और  (देव) सब सुख देनेवाले जगदीश्वर !  (त्वम्) आप (कृपया) कृपया (ये) कहे गये (ते) आपके (पूर्व्यासः) जो पूर्व में किये गये और सेवित कर्म हैं,  (अरेणवः) जिनमें कुछ भी धूल के अंशों के समान विघ्नरूप नहीं है, (सुकृताः) शोभनीय रूप से सिद्ध किये हुए हैं और (पन्थाः) धर्ममार्ग हैं। (अन्तरिक्षे) ब्रह्माण्ड में (स्वव्याप्तिरूपे) अपने व्याप्ति रूप में (वर्त्तन्ते) हैं। (तेभिः) उनके द्वारा (पथिभिः) कहे गये मार्ग से (सुगेभिः) सुख से जाते हैं।  (नः) हमारे लिये (अद्य) आज ही (रक्ष) पालन करो (च) और (नः) हमारे लिये (सर्वा) सब (विद्या) विद्या (च) और (अधि) ईश्वर प्रदत्त (ब्रूहि) उपदेश कीजिये ॥११॥ 

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (ये) वक्ष्यमाणाः (ते) तव (पन्थाः) धर्ममार्गाः। अत्र सुपां सुलुग् इति जसः स्थाने सुः। (सवितः) सकलजगदुत्पादकेश्वर (पूर्व्यासः) पूर्वैः कृताः साधिताः सेविताश्च। अत्र पूर्वैः कृतमिनियौ च। अ० ४।४।१३३। इति पूर्वशब्दाद्यः प्रत्ययः। आज्जसेरसुग्# इत्यसुगागमश्च। (अरेणवः) अविद्यमाना रेणवो धूल्यंशा इव विघ्ना येषु ते। अत्रिवृरी०। उ० ३।३७। इति रीधातोर्णुः प्रत्ययः। (सुकृताः) सुष्ठु निर्मिताः (अन्तरिक्षे) स्वव्याप्तिरूपे ब्रह्माण्डे (तेभिः) तैः (नः) अस्मान् (अद्य) अस्मिन्नहनि (पथिभिः) उक्तमार्गैः (सुगेभिः) सुखेन गच्छन्ति येषु तैः। सुदुरोरधिकरणे०। अ० ३।२।४८। इति वार्त्तिकेन सूपपदाद्गमधातोर्डः प्रत्ययः (रक्ष) पालय। अत्र द्वचोतस्तिङ इतिदीर्घः। (च) समुच्चये (नः) अस्मभ्यम् (अधि) ईश्वरार्थ उपरिभावे (च) अपि (ब्रूहि) उपदिश (देव) सर्वसुखप्रदातरीश्वर ॥११॥ #[अ० ७।१।५०।] 
    विषयः- अथेन्द्रशब्देनेश्वर उपदिश्यते।

    अन्वयः- हे सवितर्देव जगदीश्वर त्वं कृपया येते तवारेणवः पूर्व्यासः सुकृताः पंथानोन्तरिक्षे स्वव्याप्तिरूपे वर्त्तन्ते तेभिः सुगेभिः पथिभिर्नोस्मानद्य रक्ष च नोस्मभ्यं सर्वा विद्या अधिब्रूहि च ॥११॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- हे इश्वर त्वया ये सूर्यादि लोकानां भ्रमणार्था मार्गा प्राणिसुखाय च धर्ममार्गा अन्तरिक्षे स्वमहिम्नि च रचितास्तेष्विमे यथानियमं भ्रमन्ति विचरन्ति च तान् सर्वेषां पदार्थानां मार्गानां गुणांश्चास्मभ्यं ब्रूहि। येन वयं कदाचिदितस्ततो न भ्रमेमेति ॥११॥ 

    सूक्तस्य भावार्थः- अस्मिन् सूक्ते सूर्यलोकेश्वरवायुगुणानां प्रतिपादनाश्चतुस्त्रिंशसूक्तोक्तार्थेन संगतिरस्तीति वेदितव्यम्। इति ७ वर्गः ७ अनुवाकः ३५ सूक्तं च समाप्तम् ॥ ॥११॥

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    विषय

    रजःशून्य पथ

    पदार्थ

    १. हे (सवितः) - कर्मों में प्रेरित करनेवाले सूर्यदेव ! (ये) - जो (ते) - तेरे (पन्थाः) - मार्ग (पूर्व्यासः) - पूर्णता को प्राप्त करानेवाले (अरेणवः) - धूलि से रहित (सुकृताः) - उत्तमता से बने हुए (अन्तरिक्षे) - इस अन्तरिक्षलोक में हैं, हे सूर्यदेव ! (तेभिः) - उन (सुगेभिः) - उत्तम स्थिति को प्राप्त करानेवाले (पथिभिः) - मार्गों से (अद्य) - आज (नः) - हमें (रक्ष) - रक्षित कीजिए, (च) - और हे (देव) - प्रकाश प्राप्त करानेवाले सूर्यदेव ! (नः) - हमें (अधिब्रूहि) - आधिक्येन उपदेश दीजिए । 
    २. वेद में अन्यत्र कहा गया है कि 'पूषन्तव व्रते वयं न रिष्येम कदाचन' हे पूषन् ! हम तेरे व्रत में कभी हिंसित न हों । [क] सूर्य अपने मार्ग पर निरन्तर चल रहा है, हम भी सूर्य का अनुकरण करते हुए निरन्तर क्रियाशील बनें । [ख] सूर्य के मार्ग पूर्ण है, पूरण करनेवाले हैं, सूर्य प्राणशक्ति का पूरण करता है - रोगकृमियों का संहार करता है । इसी प्रकार हमारे कार्य पूर्णता को उत्पन्न करनेवाले हों । [ग] सूर्य के मार्ग धूलि से रहित हैं - हमारे जीवन - मार्ग रजोवृत्ति से ऊपर उठे हुए हों । [घ] सूर्य अन्तरिक्ष में गति कर रहा है, हम भी सदा 'अन्तरा - क्षि' - मध्य मार्ग से चलनेवाले हों । 
    ३. सबको शक्ति व प्रकाश को प्राप्त कराता हुआ सूर्य हमें भी यही उपदेश दे रहा है कि हम शक्ति व ज्ञान का संग्रह करके इन्हीं का प्रसार करनेवाले बनें । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - हम सूर्य के मार्ग पर चलनेवाले बनें । 
     

    विशेष / सूचना

    विशेष - इस सूक्त का प्रारम्भ अग्नि आदि देवों के आह्वान से होता है [१] । विशेषकर सूर्य के हिरण्यमय रथ का वर्णन करते हैं [२] । यह सविता देव सब दुरितों को दूर करता है [३] । सूर्य शक्ति व प्रकाश का केन्द्र है [४] । यह सम्पूर्ण प्रजाओं व भुवनों का आधार है [५] । द्युलोक के दो भाग सूर्य के नीचे, एक भाग ऊपर है [६] । यह सूर्य उत्तमता से पालन करनेवाला व प्राणशक्ति को देनेवाला है [७] । यह हिरण्याक्ष है [८] । हिरण्यपाणि व [९] हिरण्यहस्त है [१०] । रजः शून्य पथ से जाता हुआ हमें भी उत्तम उपदेश दे रहा है [११] । यह सूर्य जिस प्रभु की विभूति है उसके आराधन से अगला सूक्त प्रारम्भ होता है -
     

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    विषय

    सूर्य के दृष्टान्त से तेजस्वी सुपर्ण रूप से राजा का वर्णन ।

    भावार्थ

    हे (सवितः) सबके उत्पादक परमेश्वर! हे राजन्! हे सूर्य! (अन्तरिक्षे) अन्तरिक्ष में जिस प्रकार सूर्य के लिए पहले ही से बने रेणु रहित मार्ग हैं, उन निर्विघ्न आकाशमार्गों से सूर्य प्रतिदिन तेज से प्राप्त होकर हमें सुख प्रदान करता है। उसी प्रकार हे राजन्! (अन्तरिक्षे) आकाश और पृथिवी के बीच में (ये) जो (ते) तेरे लिए या तुझ राजा के लिए (पूर्व्यासः) पूर्व के विद्वानों से निर्धारित (अरेणवः) विघ्न बाधा आदि से रहित, रजोदोष आदि से रहित, निःस्वार्थता युक्त, (सुकृताः) अच्छी प्रकार से बनाये गये हैं (सुगेभिः) सुखपूर्वक जाने योग्य (तेभिः पथिभिः) उन मार्गों से (नः च) हमारी भी (रक्ष) रक्षा कर। हे (देव) राजन्! (अधि ब्रूहि च) हम पर अधिकारी रूप से शासन भी कर। राजा उत्तम मार्गों, विधियों और राजनियमों से प्रजा की रक्षा और शासन करे। इति सप्तमो वर्गः । इति सप्तमोऽनुवाकः।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    हिरण्यस्तूप आङ्गिरस ऋषिः ॥ देवताः—१ अग्निर्मित्रावरुणौ रात्रिः सविता । २-११ सविता ॥ छन्दः- १ विराड् जगती । ९ निचृज्जगती । २, ५, १०, ११ विराट् त्रिष्टुप् । ३, ४, ६ त्रिष्टुप् । ७, ८ भुरिक् पंक्तिः । एकादशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे ईश्वरा! तू सूर्य इत्यादी गोलांना फिरण्यासाठी व प्राण्यांच्या सुखासाठी आकाश व आपल्या महिमामयी जगात शुद्ध मार्ग निर्माण केलेले आहेस, ज्यात सूर्य इत्यादी गोल नियमाने फिरतात व सर्व प्राणी त्यात वावरतात. त्या सर्व पदार्थांच्या मार्गांचा व गुणांचा उपदेश कर ज्यामुळे आम्ही इकडे तिकडे भटकता कामा नये. ॥ ११ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Savita, self-refulgent lord creator and giver of light, by those paths of divinity set out by you which are ancient and eternal, free from dust and smoke, well laid out on high in heaven, by those very paths simple, straight and pleasant, come to-day, guide and protect us, and reveal into our soul the Voice Divine.

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    Subject of the mantra

    By the word ‘Indra” God has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (savitaḥ)=the creator of the whole world, [aura]=and, (deva)= giver of all happiness God! (tvam)=you, (kṛpayā)=kindly, (ye)=said earlier, (te)=your, (pūrvyāsaḥ)= The deeds done and serviced in the past, (areṇavaḥ)= in which nothing is as disturbing as the dust particles, (sukṛtāḥ)=well accomplished, [aura]=and, (panthāḥ=there are paths of tenet, (antarikṣe) =in the universe, (svavyāptirūpe)= in its pervading form, (varttante)=are, (tebhiḥ)=by them, (pathibhiḥ)= by that route, (sugebhiḥ)=go happily, (naḥ) = for us, (adya)=to day itself, (rakṣa)=follow, (ca)=and, (naḥ)=for us, (sarvā)=all, (adhi)= god given, (vidyā)=knowledge, (ca)=and, (brūhi)= preach.

    English Translation (K.K.V.)

    O Creator of the whole world and who giver of all happiness God! You kindly, whatever you have said and done in the past, in which there is nothing like a particle of dust in the form of obstacles, these have been proven gracefully and are the path of righteousness and are in their pervasive form in the universe. Go through the above path happily. Follow for us today itself and give all the knowledge and God-given teachings for us.

    Footnote

    Translation of gist of the hymn by Maharshi Dayanand- In this hymn, one should know the association of this hymn with the thirty-fourth hymn by rendering the qualities of the Sun, air and God.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    O God ! You, who has created pure paths in the sky or your glorious world for the movement of the Sun and other worlds, in which the Sun-like worlds move according to the rules and all living beings move, preach the paths and qualities of all those things so that we can live here and there. Don't move there.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The attributes of God are taught by the use of the word "सविता"

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O God Creator of the world and Giver of all happiness, protect us to-day and for ever by Thy dustless (or free from all obstacles ancient and easy paths of righteousness followed by noble persons that Thou hast ordained in. Thy universe. Be our sure Protector on those easy and straight paths and teach us all wisdom and sciences.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (पन्थाः ) धर्ममार्गा:= Paths of righteousness.(सवितः ) सकलजगदुत्पादकेश्वर = O God Creator of the world. ( अरेणवः ) अविद्यमाना रेणव: धूल्यंशा इव विघ्ना येषु ते = Dustless or free from all obstacles like the dust. (अन्तरिक्षं) स्वव्याप्तिरूपे ब्रह्माण्डे | In the Universe pervaded by Thee (God). ( सुगेभिः ) सुखेन गच्छन्ति येषु तैः । सुदुरोरधिकरणे (अष्टा० ३.२.४८) वा० इति वार्तिकेन सूपपदाद् गम्धातोर्ड: प्रत्ययः । ( अधिबूहि) ईश्वरार्थ उपरिभावे उपदिश = Teach or instruct us with authority.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O God, the paths that Thou hast ordained for the solar and other worlds for their rotation and the paths of righteousness for the happiness of all beings in the firmament and in Thy glory, they tread upon them. Instruct us about those eternal paths or laws and internal paths of righteousness and merits, so that we may never swerve an inch from them.

    Translator's Notes

    This is the most important and significant Mantra of the the hymn. While Skanda Swami, Venkata Mandhava, Sayanacharya, Wilson, Maxmuller, Griffith, Geldner and others. take Savita as the Sun and think, that the prayer for protection and instruction is addressed to him;, Rishi Dayananda clearly states that by Savita is here meant God the Creator of the world. This view is supported by the authorities from the Brahmanas like. प्रजापतिर्वै सविता ( ताण्ड्य महाब्राह्मणे १६.५.१८ ) यो ह्येव सविता स प्रजापतिः (शतपथे १२.३.५.१ गोपथ ब्राह्मणे २.५.२२ सविता प्रजानयत् (तैत्तिरीय १.६.२.२) Among other distinguished Acharyas, Shri Madhvacharya and his follower Raghavendra Yati also take Savita here in the sense of Vishnu or God, though obsessed with the Pauranic conception, they have given it a Pauranic coloring in the form of नृसिहरुपी सविता देव: = Man-lion God. Yogi Shri Aurabindo and Shri Kapali Shastri a distinguished South Indian Scholar and Commentator of the 1st Ashtaka (121 Hymns of the Rigveda in Sanskrit Support Rishi Dayananda in taking Savita (सविता) to mean the Creator God. The last line of the last Mantra of this hymn is specially worth considering in this connection अधि न्स ब्रूहि देव which Rishi Dayananda rightly interprets as सर्वा विद्या अधि ब्रूहि उपदिश = Teach us all sciences or give us wisdom. This cannot surely be an address or prayer to an inanimate thing like the Sun. Sayanacharya explains it as देवानामग्ने अस्मान् अनुष्ठातृत्वेन अधिकत्वेन कथय =Tell us superiors to others before the gods. Skanda Swami's interpretation is better. अधिच ब्रुहि । अधिवचनम् आज्ञापनम् । आज्ञाप्रय च यदाहापयितव्य हे देव = Command us what is to be done. Even Prof. Wilson's translation is not bad. "Deity, speak to us." (Wilson). Griffith's translation as "Bless us" is not faithful to the original text. The same is the case with Prof. Maxmuller's translation "Grant to us today thy gracious blessing." Surely this is not correct translation conveying the sense of the beautiful stanza. Here ends the seventh Verga or 35th Hymn of the first Mandal of the Rigveda Sanhita.

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