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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 39 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 39/ मन्त्र 3
    ऋषिः - कण्वो घौरः देवता - मरूतः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    परा॑ ह॒ यत्स्थि॒रं ह॒थ नरो॑ व॒र्तय॑था गु॒रु । वि या॑थन व॒निनः॑ पृथि॒व्या व्याशाः॒ पर्व॑तानाम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    परा॑ । ह॒ । यत् । स्थि॒रम् । ह॒थ । नरः॑ । व॒र्तय॑थ । गु॒रु । वि । या॒थ॒न॒ । व॒निनः॑ । पृ॒थि॒व्याः । वि । आशाः॑ । पर्व॑तानाम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    परा ह यत्स्थिरं हथ नरो वर्तयथा गुरु । वि याथन वनिनः पृथिव्या व्याशाः पर्वतानाम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    परा । ह । यत् । स्थिरम् । हथ । नरः । वर्तयथ । गुरु । वि । याथन । वनिनः । पृथिव्याः । वि । आशाः । पर्वतानाम्॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 39; मन्त्र » 3
    अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 18; मन्त्र » 3

    भावार्थ -
    हे (नरः) वीर नायक पुरुषो! (यत्) जिस कारण (स्थिरम्) वृक्ष के समान स्थिर शत्रु को प्रचण्ड वायु के समान (परा हथ) आघात करके उखाड़ देते हो और (गुरु) पर्वत के समान भारी पदार्थ को भी (परावर्त्तयथ) पलट देते हो, उथल पुथल कर देते हो इस कारण तुम (वनिनः) रश्मियों से युक्त प्रचण्ड वायु के समान तीव्र एवं वन के समान सेना संघ बना कर चलने वाले आप सब (पृथिव्याः) पृथिवी, समस्थल और (पर्वतानाम्) पर्वतों के (आशाः) समस्त दिशाओं को (वि याथन) विविध प्रकारों से पहुंचो और उन पर आक्रमण करो।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - कण्वो घौर ऋषिः ॥ मरुतो देवताः ॥ छन्दः- १, ५, ९ पथ्याबृहती ॥ २, ७ उपरिष्टाद्विराड् बृहती। २, ८, १० विराट् सतः पंक्तिः । ४, ६ निचृत्सतः पंक्तिः । ३ अनुष्टुप् । दशर्चं सूक्तम् ।

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