ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 143/ मन्त्र 6
ऋषिः - अत्रिः साङ्ख्यः
देवता - अश्विनौ
छन्दः - निचृदनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
आ वां॑ सु॒म्नैः शं॒यू इ॑व॒ मंहि॑ष्ठा॒ विश्व॑वेदसा । सम॒स्मे भू॑षतं न॒रोत्सं॒ न पि॒प्युषी॒रिष॑: ॥
स्वर सहित पद पाठआ । वा॒म् । सु॒म्नैः । शं॒यूइ॒वेति॑ शं॒यूऽइ॑व । मंहि॑ष्ठा । विश्व॑ऽवेदसा । सम् । अ॒स्मे इति॑ । भू॒ष॒त॒म् । न॒रा॒ । उत्स॑म् । न । पि॒प्युषीः॑ । इषः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ वां सुम्नैः शंयू इव मंहिष्ठा विश्ववेदसा । समस्मे भूषतं नरोत्सं न पिप्युषीरिष: ॥
स्वर रहित पद पाठआ । वाम् । सुम्नैः । शंयूइवेति शंयूऽइव । मंहिष्ठा । विश्वऽवेदसा । सम् । अस्मे इति । भूषतम् । नरा । उत्सम् । न । पिप्युषीः । इषः ॥ १०.१४३.६
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 143; मन्त्र » 6
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 1; मन्त्र » 6
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 1; मन्त्र » 6
विषय - दोनों ज्ञानदाता और कामनापूरक है।
भावार्थ -
हे (विश्व-वेदसा) समस्त ज्ञानों और धनों के स्वामि जनो ! (वां) आप दोनों (सुम्नैः) नाना सुखों वा सुख से अभ्यास करने योग्य उपदेशों से (शं-यू इव) शान्तिदायक माता पिता के तुल्य (मंहिष्ठा) हमें ज्ञान शान्ति आदि देने वाले हो। हे (नरा) उत्तम २ पदार्थ प्राप्त करने वालो ! आप दोनों (पिप्युषीः इषः उत्सं न) खूब बढ़ती जल वृष्टियां या जलधाराएं जैसे कूप वा झरने को प्राप्त होती हैं वा उत्तम दुग्ध जैसे स्तनों को प्राप्त होते हैं उसी प्रकार (अस्मे) हमारे लिये (पिप्युषीः इषः संभूषतम्) वृद्धिदायक अन्न, जल और नाना कामनाएं प्राप्त कराओ। इति प्रथमो वर्गः॥
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ऋषिः अत्रिः सांख्यः॥ अश्विनौ देवते॥ छन्द:—१—५ अनुष्टुप्। ६ निचृदनुष्टुप्। षडृचं सूक्तम्॥
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