ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 159/ मन्त्र 6
सम॑जैषमि॒मा अ॒हं स॒पत्नी॑रभि॒भूव॑री । यथा॒हम॒स्य वी॒रस्य॑ वि॒राजा॑नि॒ जन॑स्य च ॥
स्वर सहित पद पाठसम् । अ॒जै॒ष॒म् । इ॒माः । अ॒हम् । स॒ऽपत्नीः॑ । अ॒भि॒ऽभूव॑री । यथा॑ । अ॒हम् । अ॒स्य । वी॒रस्य॑ । वि॒ऽराजा॑नि । जन॑स्य । च॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
समजैषमिमा अहं सपत्नीरभिभूवरी । यथाहमस्य वीरस्य विराजानि जनस्य च ॥
स्वर रहित पद पाठसम् । अजैषम् । इमाः । अहम् । सऽपत्नीः । अभिऽभूवरी । यथा । अहम् । अस्य । वीरस्य । विऽराजानि । जनस्य । च ॥ १०.१५९.६
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 159; मन्त्र » 6
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 17; मन्त्र » 6
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 17; मन्त्र » 6
विषय - वीर सेना और वीराङ्गना की विजयादि की महत्त्वाकांक्षा।
भावार्थ -
(अहं) मैं (इमाः सपत्नीः) इन शत्रु सेनाओं को (अभि-भूवरी) पराजित करने वाली होकर (सम् अजैषम्) अच्छी प्रकार विजय करूं। (यथा) जिससे (अहम्) मैं (अस्य वीरस्य जनस्य च) इस वीर और प्रजाजन के साथ (विराजानि) विशेष रूप से चमकूं, प्रतिष्ठा प्राप्त करूं।
टिप्पणी -
इसी प्रकार स्त्री भी चाहे कि उसके पुत्र शत्रुहन्ता वीर और कन्याएं गुणवती हों। (३) वह पति के हृदय को जीते, और उसके अधीन रहकर उत्तम कीर्त्ति प्राप्त करे। (४) वह ऐसा कार्य करे जिससे उसका पति समर्थ और धनी, यशस्वी हो, (५) ऐसा न हो कि कोई उसके घर में उसकी सौत आ जावे। (६) प्रत्युत वह ही उसके साथ सदा विराजे। इति सप्तदशो वर्गः॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ऋषिः शची पौलोमी॥ देवता—शची पौलोमी॥ छन्दः–१–३, ५ निचृदनुष्टुप्। ४ पादनिचृदनुष्टुप्। ६ अनुष्टुप्॥ षडृचं सूक्तम्॥
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