ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 32/ मन्त्र 7
ऋषिः - कवष ऐलूषः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - स्वराडार्चीत्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
अक्षे॑त्रवित्क्षेत्र॒विदं॒ ह्यप्रा॒ट् स प्रैति॑ क्षेत्र॒विदानु॑शिष्टः । ए॒तद्वै भ॒द्रम॑नु॒शास॑नस्यो॒त स्रु॒तिं वि॑न्दत्यञ्ज॒सीना॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठअक्षे॑त्रऽवित् । क्षे॒त्र॒ऽविद॑म् । हि । अप्रा॑ट् । सः । प्र । ए॒ति॒ । क्षे॒त्र॒ऽविदा॑ । अनु॑ऽशिष्टः । ए॒तत् । वै॒ । भ॒द्रम् । अ॒नु॒ऽशास॑नस्य । उ॒त । स्रु॒तिम् । वि॒न्द॒ति॒ । अ॒ञ्ज॒सीना॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
अक्षेत्रवित्क्षेत्रविदं ह्यप्राट् स प्रैति क्षेत्रविदानुशिष्टः । एतद्वै भद्रमनुशासनस्योत स्रुतिं विन्दत्यञ्जसीनाम् ॥
स्वर रहित पद पाठअक्षेत्रऽवित् । क्षेत्रऽविदम् । हि । अप्राट् । सः । प्र । एति । क्षेत्रऽविदा । अनुऽशिष्टः । एतत् । वै । भद्रम् । अनुऽशासनस्य । उत । स्रुतिम् । विन्दति । अञ्जसीनाम् ॥ १०.३२.७
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 32; मन्त्र » 7
अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 30; मन्त्र » 2
अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 30; मन्त्र » 2
विषय - आत्मज्ञान के निमित्त अज्ञानी ज्ञानी की उपासना करें। पक्षान्तर में क्षेत्रवित् और कृषक तथा आत्मज्ञ-अनात्मज्ञ पक्षों का विवरण।
भावार्थ -
(अक्षेत्रवित्) क्षेत्र, वा मार्ग को न जानने वाला (हि) अवश्य (क्षेत्रविदं अप्राट्) क्षेत्र को जानने वाले पुरुष से प्रश्न करता है। (सः) वह (क्षेत्र-विदा) क्षेत्रज्ञ विद्वान् से (अनुशिष्टः) अनुशासित, शिक्षित होकर (प्र एति) आगे उत्तम मार्ग को प्राप्त करता है । (अनुशासनस्य) गुरु के किये अनुशासन वा शिक्षण का (एतत् वै भद्रम्) यही उत्तम कल्याणदायक फल होता है कि वह अनुशासित, अज्ञ पुरुष भी (अञ्जसीनाम्) ज्ञान को प्रकाशित करने वाला वाणियों की (स्रुतिं) गति वा श्रुति को (विन्दति) प्राप्त करता है। (२) जिस प्रकार क्षेत्र-विद्या कृषि आदि को न जानने वाला पुरुष क्षेत्रज्ञ अर्थात् क्षेत्रिक से ज्ञान को जान लेता है तब वह भी क्षेत्रज्ञ अर्थात् माली होकर आगे बढ़ता है। वह भी (अञ्जसीनां स्रुतिं विन्दति) धान्योत्पादक भूमियों के मार्ग, अथवा क्षेत्र में बहती जल-धाराओं की गति को जान लेता है। (३) उसी प्रकार क्षेत्र यह देह, या प्रकृति है अक्षेत्रज्ञ मूढ-आत्मा आत्मज्ञों से प्रश्नपूर्वक ही आत्मा का ज्ञान प्राप्त करता है तब वह भी ज्ञानप्रकाशक वाणियों, आत्मप्रकाशक प्रवृत्तियों की संगति समझने लगता है और ज्ञानप्रकाशक इन्द्रियों के मार्ग पर भी वश प्राप्त कर लेता है।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - कवष ऐलूष ऋषिः। विश्वेदेवा देवताः। छन्दः- १, २ विराड्जगती। ३ निचृज्जगती ४ पादनिचृज्जगती। ५ आर्ची भुरिग् जगती। ६ त्रिष्टुप्। ७ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। ८, निचृत् त्रिष्टुप्॥ नवर्चं सूक्तम्॥
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